विरासत पानी की (Gift of Water)

जल
जल


(डॉ. दि.मा. मोरे एक प्रसिद्ध जल अभियन्ता हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन जलक्षेत्र के काम से सम्बन्धित रहा है। श्री. मोरेजी जलक्षेत्र कार्य के एक चिकित्सक एवं संशोधक भी रहे हैं। आपने श्री यशवंतराव चव्हाण मुक्त विद्यापीठ से जल व्यवस्थापन की पारम्परिक पद्धतियाँ और उनसे मिली हुई अनोखी व्यावहारिक सोच पर पीएच.डी का संशोधन निबन्ध प्रस्तुत कर पदवी सम्पादित की है। इन्हीं पद्धतियों की सूझ-बूझ से सम्बन्धित बहुत ही जानकारी देने वाली कुछ कथाएँ हमारे जलसंवाद के वाचक वर्ग के लिये प्रस्तुत कर रहे हैं।)

जलभारतवर्ष को इतिहास की प्राचीन और विस्तृत धरोहर मिली है। हमारा इतिहास, जय-पराजय, सुख-समृद्धि, गरीबी, विषमता, राजकीय, धार्मिक युद्ध, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आदि परिवर्तनों और अभूतपूर्व घटनाओं से भरा पड़ा है। हजारों साल पहले यहाँ मानवी संस्कृति पनपी, विकसित हुई और इसी देश की मिट्टी से घुल-मिल गई। यहाँ की भूमि पर रामराज, महाभारत से बुद्ध धर्म तक का कालखण्ड तथा सातवाहन से लेकर अंग्रेजों की गुलामगिरि और स्वातंत्र्य प्राप्ति तक का कालखण्ड मौजूद है एवं अनेक घटनाओं की उथल-पुथल का इतिहास भी यहीं से सामने आता है। लेकिन इन सभी कालखण्डों से जल व्यवस्थापन इतिहास सम्प्रेषित करने वाले सबूतों और अवशेषों की जानकारी हमें मिलेगी ही, यह हम कह नहीं सकते। साधारणतः ईस्वी सन के आरम्भ से जुड़ा हुआ और आगे आने वाले कालखण्ड का इतिहास बहुत जानकारी प्रदान करने वाला है।

इन सभी का ज्ञान एवं सबूत शिलालेखों और भौतिक ढाँचों के अवशेषों में लिखित और शब्द बद्ध स्वरूप में हो सकते हैं। भूतकाल की इन सभी बातों को जानने-पहचानने के लिये, इन घटनाओं का इतिहास जानकर भविष्य के मार्गक्रमण की दिशा निश्चित करना और भूतकाल की पुनरावृत्ति को टालकर उस कालखण्ड में हुई अच्छी बातों का अनुकरण करना, यही इतिहास समझने का कुछ उद्देश्य हो सकता है। जिस संस्कृति का कोई भी इतिहास नहीं है और इस सम्बन्धी इतिहास की कोई जानकारी भी नहीं रखी गई है, वह संस्कृति आने वाले समय के लिये, किस विरासत का मार्ग अपनाने वाली है, इस विषय पर प्रश्नचिन्ह निर्माण हो जाता है।

इसीलिये भविष्य के यशस्वी मार्गों को जानने के लिये इतिहास का आधार मिलना एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात साबित होती है। इसी सोच को ध्यान में रखते हुए अनेक अभ्यासकों और विद्वानों ने भिन्न-भिन्न कालखण्ड का इतिहास लिखने का प्रयास किया है तथा इन्हीं के आधार पर समाज, राज्यकर्ता और विद्वानों ने भविष्यकालीन समस्याओं के हल ढूँढने की अपेक्षा व्यक्त की है।

यदि हम इतिहास के पन्नों पर नजर डालते हैं तब यही ज्ञात होता है कि ज्यादातर राजकीय घटनाओं के सामने रखते हुए इतिहास को लेखन किया गया है। घमासान लड़ाइयों का और राजकीय सन्धियों के बारे में इतिहास लिखा गया है। सैनिकों की रचना उनकी ताकत, लड़ाइयों के अलग-अलग कारण, किले, किलों के परकोटों की बन्दी, गोला - बारूद और युद्धभूमि से सम्बन्धित हत्यारों और शस्त्रों का इतिहास विस्तृत रूप से उपलब्ध है। इन राजाओं ने युद्ध में प्राप्त विजय के बाद उन्हीं राज्यों और प्रान्तों पर राज किया है, इन सभी का इतिहास लिखा गया है। इतना ही नहीं वहाँ का ऐतिहासिक भूगोल, महाराजाओं ने बनवाए महल, वास्तु, राज्य वैभव तथा उस समय की शिल्पकला, वास्तुकला, धर्म प्रसार इन सभी के बारे में इतिहास जानकारी देता है। उस समय किस तरह की राज व्यवस्था और सामाजिक अनुशासन तथा समाज की अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने वाली व्यापार की क्रय-विक्रय प्रणाली थी, इन सभी का इतिहास में समावेश है।

उस कालखण्ड के समाज का रहन-सहन, आभूषण, वस्त्र, अलंकार, पंथ, राजा महाराजाओं और राजकुमारों के स्वभाव विशेष तथा मन्दिर और प्रार्थना स्थानों का भी इतिहास लिखा गया है। उस समय कृषि प्रधान संस्कृति से जुड़ा हुआ व्यापार, खेती पर लगाया गया लगान, तरह-तरह के उत्पादन, सुगंधी वनस्पति, वस्त्र, रेशम उद्योग, अनाज उत्पादन से लेकर देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिये आहूति देने वाले वीर पुरुषों की गाथाओं का इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। लेकिन विस्मय की बात यह है कि जिन संस्कृतियों का मूल आधार पानी है और जिन प्राकृतिक साधनों के बलबूते पर पानी नियोजन की पद्धतियाँ समय-समय पर अपनाई गई हैं तथा भिन्न-भिन्न कालखण्डों में बहुत ही कुशलता से इनका उपयोग किया गया है, इन सभी का जल इतिहास बहुत ही कम मात्रा में लिखा गया है।

सोचने वाली बात है कि हजारों वर्ष पूर्व के जल नियोजन के सबूत आज भी अस्तित्व में मिलते हैं। कई वस्तुओं और ऐतिहासिक जगहों पर यह व्यवस्था अभी तक जागृत और जीवित है। जिन उद्देश्यों के लिये उन कालखण्डों में यह व्यवस्थाएँ निर्माण की गई थीं और यद्यपि आगे आने वाली पीढ़ियों ने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया है, फिर भी आज, वर्तमान समय में वह अपना काम निरन्तर रूप से कर रही है तथा प्राणीमात्र, वनस्पति, पर्यावरण की आवश्यकताओं जल प्रदान करने का पुण्य कर्म कर रही है। पानी समृद्धि और वैभवता का प्रतीक है।

समय-समय की बात है, कहते हैं एक समय हमारा भारत देश वैभवशाली था। सदियों साल पहले यहाँ सोने का धुआँ निकलता था। प्राचीन काल से ही हमारा भारत कृषि प्रधान देश रहा है। लेकिन जिस पानी ने हमारी मातृभूमि को सुजलाम, सुफलाम किया है वहाँ के कुशल जल नियोजन के संशोधन का इतिहास कहीं भी दिखाई नहीं देता। किस कारणवश इस व्यवस्था के तकनीकी और सामाजिक महत्त्व की सोच को रखकर सूत्रबद्ध प्रणाली में लिखने का प्रयास कदापि नहीं हो पाया, यह न सुलझने वाली बात है। सिर्फ कुछ इतिहासकारों का ध्यान इस नियोजन पर जाने से इनका अभ्यास किया गया। हालांकि उन सभी अभ्यासकों का इस विषय से कोई सम्बन्ध न होते हुए भी उन्होंने इस जल व्यवस्थापन को जाना और पहचाना है। इसीलिये उन सभी के लिये हमें ऋणी रहना चाहिए। वर्तमान समय में जरूरत है इन अभ्यासकों और विद्वानों के संशोधन के इतिहास का अभ्यास सीखने की और समझने की। इसी से हमें पानी का महत्त्व समझना और जानना है।

यदि हम इतिहास के कुछ लम्हों को पकड़कर सीखने का प्रयास करते हैं तब हमें महाराष्ट्र प्रदेश की सदियों पुरानी ऐतिहासिक अजंता और एलोरा की गुफाएँ दिखाई देती हैं, जो समृद्धि और वैभवशाली जीवन का द्योतक है। वहाँ के एक शिल्प में सम्पत्ति की देवी लक्ष्मीजी कमल के आसन पर विराजमान हैं और गजराज देवीजी को जल अर्पित करने का काम कर रहे हैं। इस शिल्प से यह निर्देशित होता है कि जल से सम्पत्ति है। एलोरा की सुन्दर शिल्पकला कृतियाँ और सभी शिल्प वास्तु, जो हमारे देश में कई जगह दिखाई देते हैं, उन कुछ शिल्पों में गरीब समाज के जीवन को कलात्मक दृष्टि से दिखाया गया है।

सभी शिल्पकला के वास्तु बहुत ही सुन्दर हैं लेकिन ये सभी पानी निर्माण का काम नहीं कर सकते। पानी प्रकृति का वरदान है और इसी से जीवन है। पानी का निर्माण पर्वतों और नदियों के गर्भ से प्रकृति के चक्र से हुआ है और इसीलिये समृद्धि का आधार पर्वत, जमीन और पानी है। यही सन्देश एलोरा की गुफाओं से प्राप्त होता है। हम सभी इन अद्वितीय शिल्पों को निरखते हैं और उनका गुणगान करते हैं और इस अनोखे सन्देश को नजरअन्दाज करते हैं। इसका कारण यही है कि, हमें ना सही सोच मिली है और ना दृष्टि। हमें यह सोचना चाहिए कि गरीब समाज व्यवस्था उन्नति के पंखों पर नहीं उभर सकती। हमारे इसी समाज में विद्वान और पंडितों की भी कमी नहीं है। लेकिन समाज की उन्नति और भौतिक प्रगति के लिये सम्पत्ति और समृद्धि का अभूतपूर्व योगदान रहा है। इस बात को हमें इतिहास से सीखना चाहिए। हमारे भारतवर्ष में इस तरह के जल नियोजन की जगहें हजारों में हैं। महाराष्ट्र प्रदेश में ही तीन सौ से ज्यादा पहाड़ी किले हैं। इन सभी किलों पर कुशल जल नियोजन को अपनाया गया है।

वहाँ का भौगोलिक प्रदेश, मौसम, समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर इस व्यवस्था का निर्माण किया गया है। पानी को एक घाटी से दूसरी घाटी में ले जाना, नदी के बहाव को घुमाना, पानी को स्वच्छ रखना, उतना ही नहीं, पानी का वाष्पीभवन से संरक्षण करना इन सभी बातों का उस समय के पानी नियोजन में योग्यतापूर्वक विचार किया गया है। पानी के बहाव को अटकाकर उस समय के समाज जीवन की पानी की आवश्यकताओं का बड़ी ही कुशलता से पूरा किया गया है। यह सभी हमें इतिहास से मिले अवशेष सबूतों में दिखाई देता है।

महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त की घाटियों में बहुत बारिश होती है। इसी विचार को ध्यान में रखकर वहाँ का पानी नियोजन अलग है। मराठवाड़ा में औरंगाबाद, बीड, जालना, आंबेजोगाई, परली इत्यादि नगरों का इलाका सूखे से पीड़ित है। इसका कारण है कि यह भाग बहुत पथरीला है। जिस भाग का वातावरण शुष्क रहता है, वहाँ के जल नियोजन का तौर-तरीका अलग रहता है। विदर्भ के पूर्णा गाँव में अलग प्रणाली का अवलम्ब किया गया है। इसीलिये इस तरह की अलग-अलग जल व्यवस्था विश्लेषण का अभ्यास करना हमें जरूरी हो जाता है। कारण इन सभी पद्धतियों से जो सत्य सामने आता है, वह है सोच-विचार पूर्वक किया गया जल व्यवस्थापन। इसीलिये हमें इन सभी उदाहरणों का केवल अभ्यास मात्र उपयोग नहीं करना है, बल्कि उन्हीं के जरिए वर्तमान समय के पानी से जुड़ी हुई समस्याओं के उत्तर ढूँढना, टटोलना है और कमियों को ध्यान में लाना है और इन्हें दूर करना है। इस ऐतिहासिक जल व्यवस्था से पीढ़ियों और पुरखों से चले आये कुशल जल तांत्रिक ज्ञान से आगे आने वाले समाज को वैभवशाली और बलवान बनाना है। यह सभी निहायत ही जरूरी है।

इन लेखों में इतिहास के पन्नों से दुर्लक्षित हुए घटकों का संशोधन करने के बाद उन्हें सभी के सामने लाने का एक प्रयास किया गया है। इस विषय की व्यापकता बहुत है और हमारा देश भी बहुत विस्तीर्ण है। इसीलिये महाराष्ट्र और पास के प्रदेशों तक ही इस विषय को सीमित रखा है और केवल उन्हीं का विश्लेषण किया गया है।

सच तो यह है कि इतिहास में विज्ञान लाने की जरूरत थी जिससे समाज में इतिहासकालीन कौशल्य शास्त्र समझने की क्षमता निर्माण होती और इसी क्षमता से जल इतिहास वैज्ञानिक दृष्टि से स्पष्ट रूप में लिखा गया होता। लेकिन यह हुआ नहीं। पानी का शास्त्र इतिहास से जुड़ा नहीं और इसीलिये इतिहास और अभियांत्रिक ज्ञान अलग-अलग रहे और विज्ञान के अभ्यास में ऐतिहासिक पानी नियोजन की प्रेरणा भी अस्तित्व में नहीं आ सकी। संक्षिप्त रूप में यह कह सकते हैं कि पानी और इतिहास एकत्रित करने में बड़े-से-बड़े विज्ञान भी सफल नहीं हो पाये।

इन्हीं सभी कारणों से आज वर्तमान समय में इस विषय का सामाजिक और आर्थिक महत्त्व समझने में असफलता मिली है। आज हमारी कौन सी नदी स्वच्छ है, कहाँ का पानी नापा जाता हो? इन सभी नकारात्मक कारणों से लोकसहयोग कम होकर शासन व्यवस्था पर अवलम्बित रहने की प्रवृत्ति का उदय हुआ। इसे ही परावलम्बन कहते हैं। आखिर समृद्धि यह समाज को विकलांग बनाकर नहीं आती। वह जनमानस में अन्तःकारण और प्रेरणा जागृत करती है।

दो से ढाई हजार वर्षों के कालखण्ड पर नजर रखने से एक बात सामने आती है, वह यह कि अनेक राजघरानों के कालखण्ड में जलनियोजन अविरत रूप से कार्यरत रहा है। धर्म, पंथ, जात इन राजघरानों के बड़े-बड़े शीर्षकों के नीचे इन व्यवस्थाओं को उध्वस्त नहीं किया गया, यह विशेष है। मगर इतिहास के आखिरी पर्व याने अंग्रेजी कालखण्ड में इस व्यवस्थापन में लोक सहयोग कमजोर होता गया और समाज परावलम्बित होता हुआ दिखाई देता है और इसी समय इस जल नियोजन में शाश्वत अस्थिरता के बीज बोए गए हैं और उन्होंने जड़ पकड़ ली है।

हिंदी भाषान्तर - शोभना दि. आपटे
पुणे (निवृत्त सचिव, जलसिंचन विभाग, महाराष्ट्र राज्य)

 

Path Alias

/articles/vairaasata-paanai-kai-gift-water

Post By: Hindi
×