विपरीत परिस्थितियों में चौर क्षेत्र के पानी का समुचित उपयोग


ब्रह्मांड में हो रहे अप्राकृतिक क्रियाकलापों के कारण पानी की समस्या बढ़ रही है। जहाँ वर्षा चाहिए वहाँ अकाल है, जहाँ कम पानी चाहिए वहाँ बादल फट रहे हैं। इससे हमारी दैनिक क्रियाओं के साथ कृषि क्रियाएँ भी ज्यादा प्रभावित हो रही हैं। पिछले कुछ वर्षों से बिहार में कम वर्षा हो रही है जिससे सूखे की समस्या बढ़ रही है। अतः पानी का समुचित उपयोग कर हमें तात्कालिक परिस्थिति से उभरने की आवश्यकता है जिसके लिये चौर क्षेत्र में उपलब्ध पानी का समुचित उपयोग कर जल उत्पादकता को बढ़ाना होगा। सर्वप्रथम हमें चौर एवं चौर के किनारे वाले जमीन को विभिन्न खण्डों में बाँटकर कृषि कार्य करना होगा जो निम्न प्रकार हैं :-

1. मत्स्य पालन


चौर में पानी हो तो मत्स्य पालन करना चाहिए।

2. चौर के किनारे वानिकी कार्यक्रम


चौर के किनारे हमें वैसे पौधों का रोपण करना चाहिए जो अधिक पानी भी सहन कर सकें, एवं पानी नहीं रहने पर भी हरा-भरा रह सके। इसके लिये उपयुक्त प्रजातियाँ हैं- अर्जुन, जामुन, महोगनी, सहजन, बाँस, बबूल, सुबबूल, खैर (कत्था) आदि।

3. चौर से सटे कृषि योग्य भूमि पर असिंचित फसलों की खेती


इसके लिये हम ऐसी फसलों की खेती कर सकते हैं, जिनको पानी की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती।

(क) गर्मा फसल: फरवरी-मार्च के महीने में मूँग-तिल की मिश्रित खेती।
(ख) खरीफ फसल: अगस्त में पशुओं के लिये चारा एवं हरी खाद तथा जलावन के लिये ढैंचा की खेती। सितम्बर से अरहर एवं तोरिया की खेती।
(ग) रबी फसलः नवम्बर के अन्त में दलहनी फसल - मसूर, मटर, मेथी एवं धनिया की खेती।

4. एक से दो सिंचाई वाली फसलों की खेती


(क) गर्मा फसल:- ज्वार, बाजरा, भिंडी, मिर्ची।
(ख) खरीफ फसल:- मूँग एवं उरद, सफेद तिल, सब्जी में लौकी, नेनुआ, भिंडी, वर्षाकालिन मक्का एवं गेंदा।
(ग) रबी फसल: - काला एवं पीला सरसों की खेती, शरदकालीन टमाटर, पालक, कुसुम, साग, मूली, गाजर, चुकंदर।

5. दो से तीन सिंचाई वाली फसलों की खेती


इस खण्ड को भी गर्मी, खरीफ और रबी फसलों को ध्यान में रखकर फसल योजना बनानी चाहिए। इसमें खाद्यान्न फसल जैसे मक्का, धान, गेहूँ, मौसमी सब्जी फूल, तंबाकू आदि की खेती कर सकते हैं।

(क) गर्मा फसल - मक्का, प्याज, करेला, एवं कद्दूवर्गीय फसल की खेती।
(ख) खरीफ फसल - धान, मडुआ, बैंगन, खीरा, लाल-हरा साग, शल्क वाली प्याज आदि की खेती।
(ग) रबी फसल - आलू, गेहूँ, मक्का, शीतकालीन सब्जी, तंबाकू एवं फूल की खेती।

उपरोक्त फसलों की खेती से परिस्थिति एवं खेत को ध्यान में रखकर जीविकोपार्जन के साधनों का विकास होगा। इन सभी कृषि क्रियाओं में वैज्ञानिक तरीके से सिंचाई की तकनीक का प्रयोग कर जल-उत्पादकता को बढ़ाया जा सकता है। इसके लिये तीन कार्य अति आवश्यक है-

(क) खेती योग्य भूमि का समतलीकरण - इससे खेत में जरूरत के अनुसार पानी एक समान उपयोग होगा जिससे उत्पादकता में वृद्धि होगी।
(ख) मिट्टी की जाँच- फसल के अनुसार मिट्टी में पोषक तत्व नहीं होने से हम अनजाने में ज्यादा रासायनिक खाद का उपयोग करते हैं। मिट्टी की जाँच से सामान्य सूक्ष्म पोषक तत्वों का उपयोग कर रासायनिक खाद के अधिक प्रयोग को रोका जा सकता है।
(ग) सिंचाई प्रणाली में सुधार: सिंचाई की नई वैज्ञानिक पद्धति जैसे- सिंचाई पाइप, फव्वारा, लेठा एवं टपक सिंचाई प्रणाली को अपनाकर जल उत्पादकता में वृद्धि कर सकते हैं। सिंचाई पाइप से पानी को जहाँ जितनी जरूरत है भेज सकते हैं। फव्वारा एवं लेठा विधि से फसलों की एक समान मात्रा से सिंचाई की जाती है। टपक सिंचाई प्रणाली की भी दो पद्धतियाँ हैं- पहला पम्पसेट से दूसरा- पुराने प्लास्टिक की बोतल या मटके में पानी भरकर पौधों के जड़ के पास बोतल या मटके में महीन छिद्र कर रख दिया जाता है और बूँद-बूँद पौधे की जड़ को पानी से नमी मिलती रहती है।

धान, पान और गन्ना ही ऐसी फसलें हैं जो पानी पीती हैं, बाकी सभी फसलें पानी चाटती हैं (थोड़ा पानी चूसती है)। अतः उपयुक्त तकनीक अपना कर एवं खेत में फसल चक्र अपना कर पानी की बचत की जा सकती है।

 

चौर क्षेत्र में मात्स्यिकी द्वारा जीविकोत्थान के अवसर - जनवरी, 2014


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

आजीविका उन्नति के लिये मत्स्य-पालन प्रौद्योगिकी

2

चौर में मत्स्य प्रबन्धन

3

पेन में मत्स्य-पालन द्वारा उत्पादकता में वृद्धि

4

बरैला चौर में सफलतापूर्वक पेन कल्चर बिहार में एक अनुभव

5

चौर संसाधनों में पिंजरा पद्धति द्वारा मत्स्य पालन से उत्पातकता में वृद्धि

6

एकीकृत समन्वित मछली पालन

7

बिहार में टिकाऊ और स्थाई चौर मात्स्यिकी के लिये समूह दृष्टिकोण

8

विपरीत परिस्थितीयों में चौर क्षेत्र के पानी का समुचित उपयोग

 

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