विनाश की ऊर्जा

परमाणु-तकनीक से जुड़ी संवेदनशीलता अपने आसपास आमजन से कटे, निहायत गोपनीय और अलोकतांत्रिक नीति-तंत्र को जन्म देती है। आज जब उत्तर कोरिया और ईरान जैसे घोर अलोकतांत्रिक देश भी परमाणु-तकनीक पर दावा कर चुके हैं, हमें तकनीक और व्यापक समाज के संबंधों की कोरी आधुनिकतावादी समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए।

परमाणु तकनीक के अपने अनिवार्य खतरे हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। फुकुशिमा के बाद के महीनों में कई अन्य दुर्घटनाएं दुनिया भर में हुई हैं- फ्रांस के मारकोल में विस्फोट से एक व्यक्ति की मौत हुई और बड़े पैमाने पर विकिरण फैलने की खबर है। जून में अमेरिका में एक तरफ जहां नेब्रास्का में फोर्ट कॉल्होन रिएक्टर बाढ़ की चपेट में था, वहीं न्यू मेक्सिको प्रांत के जंगल में लगी भीषण आग लॉस अलामॉस परमाणु अनुसंधान केंद्र को घेर चुकी थी, जहां सैकड़ों टन परमाणु कचरा सालों से प्लास्टिक की टेंटों में पड़ा था। कूडनकुलम में दो दशक से अधिक समय से चल रहे आंदोलन ने दिखाया है कि विशेषज्ञों की बपौती समझे जाने वाले विषयों पर आम लोग ने कैसे दखल दी है और विकास, ऊर्जा, और पर्यावरण के वैकल्पिक प्रतिमानों को अपने जीवनानुभवों के बरक्स गढ़ा है। यह आंदोलन हजारों लोगों की सक्रिय भागीदारी के बावजूद पूरी तरह अहिंसक रहा है, जबकि सरकार झूठ और दमन का सहारा लेती रही है।

देश के अन्य हिस्सों में अणुबिजली प्रकल्पों के विरुद्ध चल रहे आंदोलनों में भी यही बात देखने को मिल रही है। जैतापुर में झूठे मुकदमों में गिरफ्तारियां, पुलिस फायरिंग, कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत धमकी और प्रलोभन ही सरकार को सुहाते हैं। हरियाणा के फतेहाबाद जिले में प्रस्तावित गोरखपुर परमाणु ऊर्जा परियोजना का तीस गांवों की पंचायतों ने आमराय से विरोध किया है और वहां के किसान पिछले चौदह महीनों से जिला-मुख्यालय के सामने धरने पर बैठे हैं। बिना सुनवाई लगातार जारी इस संघर्ष ने तीन किसानों की जान ले ली है, लेकिन लोगों के हौसले बुलंद हैं। फतेहाबाद में उस भाखड़ा नहर के आसरे परमाणु रिएक्टर लगाए जा रहे हैं, जो इस इलाके के किसानों की खुशहाली का स्रोत है। किसी दुर्घटना की हालत में एक नहर का पानी रिएक्टरों को बुझा पाएगा, यह बात भी लोगों के गले नहीं उतरती। ऐसे ही जुझारू आंदोलन मध्यप्रदेश के चुटका, गुजरात के भावनगर स्थित मीठीविर्डी और आंध्र के कोवाडा में भी चल रहे हैं।

कूडनकुलम की जीत तो पूरी तरह से जन-दबाव की जीत है। पश्चिम बंगाल में सत्ता में आने से पहले ही ममता बनर्जी ने हरिपुर परमाणु बिजली परियोजना को निरस्त करने का वादा किया था और इस बीच परमाणु मुद्दे को लेकर माकपा के रुख में भी बदलाव आया है। जैतापुर से लेकर हरियाणा के फतेहाबाद तक माकपा परमाणु-विरोधी आंदोलन में शरीक है। लेकिन यह कांग्रेस के परमाणु-करार को गलत साबित करने के तर्क से निकला हुआ विरोध है या माकपा ने परमाणु-बिजली, उद्योगीकरण और विकास पर वैकल्पिक सोच की जमीनी जरूरत को सही में समझा है, इसकी ताकीद होनी अभी बाकी है, क्योंकि परमाणु करार के विरोध में माकपा का एक तर्क यही था कि इससे देशी परमाणु-उद्योग और उसके तकनीकी विकास को नुकसान होगा।

परमाणु-तकनीक से जुड़ी संवेदनशीलता अपने आसपास आमजन से कटे, निहायत गोपनीय और अलोकतांत्रिक नीति-तंत्र को जन्म देती है। आज जब उत्तर कोरिया और ईरान जैसे घोर अलोकतांत्रिक देश भी परमाणु-तकनीक पर दावा कर चुके हैं, हमें तकनीक और व्यापक समाज के संबंधों की कोरी आधुनिकतावादी समझ पर पुनर्विचार करना चाहिए। परमाणु-विरोधी आंदोलन जमीनी स्तर पर उन सारे सरोकारों को एकजुट करने की संभावना रखता है जिनको आजकल अलग-अलग देखने का चलन है। इन सवालों के निर्णायक राजनीतिक हल की तलाश भी इस आंदोलन को है। यह मुद्दा सबको एक कर पाए और व्यापक सामाजिक बदलाव के टूटे हुए तार जोड़ पाए, इसके लिए बड़े स्तर पर पहलकदमी और संघर्ष की जरूरत है।

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