ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट की तर्ज पर डरबन में भी ऑक्यूपाई द कॉप आंदोलन पहुंच गया है। पूरी तरह से युवाओं की कमान वाले इस आंदोलन का कहना है कि धरती संकट में है लेकिन उसे बचाने के लिए गंभीर कोशिश इसलिए नहीं हो रही कि कॉरपोरेट घराने और उनके हितों की रक्षा करने वाली सरकारें ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को नहीं रोकना चाहतीं। इससे तमाम देशों पर दबाव बना है और ऐसी उम्मीद बंधती है कि भारत-चीन और बाकी विकासशील देश कुछ ठोस कदम उठाने में सफल होंगे।
धरती लगातार ज्यादा से ज्यादा गरम हो रही है। तमाम देशों में असमय और विकराल बाढ़ का प्रकोप बढ़ा है। तूफानों के आने की रफ्तार ही सिर्फ नहीं बढ़ रही है बल्कि वे पहले की तुलना में कई गुना ज्यादा विनाशकारी हो गए हैं। आंशका है कि अगर तुरंत कदम न उठाए गए तो सदी के अंत तक 3-6 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ेगा और विनाशकारी परिवर्तन होगा, ग्लेशियर गल जाएंगे, बाढ़-तूफान और समुद्र का जल स्तर बढ़ जाएगा। द्वीप देशों के अस्तित्व का खतरा बना हुआ है क्योंकि जलस्तर बढ़ने से उनके तट डूबते जा रहे हैं। ऐसे में धरती को जलवायु परिवर्तन की मार से बचाने के लिए दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर में जो हर साल सम्मेलन होता है, वहीं से पृथ्वी के जलवायु को बचाने की मुहिम की दिशा-दशा तय होनी है। यहीं यह भी तय होना है कि जलवायु पर दुनिया का अब तक का सबसे प्रभावी समझौता- क्योटो समझौते का क्या होगा। इस साल अगर उसके दूसरे दौर को जिंदा रखने के लिए सहमति न बनी तो वह मर जाएगा। वर्ष 2005 से अमल में आया क्योटो समझौता, जिस पर अमेरिका ने अभी तक हस्ताक्षर नहीं किए, क्या डरबन में जलसमाधि ले लेगा?संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सम्मेलन का नतीजा इस पर तय होगा कि दो साल पहले बने बेसिक देशों के समूह, जिसमें भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और चीन तथा यूरोपीय यूनियन के नेतृत्व में चल रहे विकसित देशों के समूह, जिसमें अमेरिका, रूस, जापान, आस्ट्रेलिया आदि शामिल हैं, की शक्ति का, कूटनीति का क्या समीकरण बनता है। जलवायु परिवर्तन पर पिछले दो अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सम्मेलनों (कोपनहेगन और कानकुन) में यह बात खुलकर आ गई थी कि यह मंच अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का हिस्सा है और वहां पर विकसित देशों की ही चलती है। हालांकि विकासशील देश लगातार एक समूह बनाकर अपने हितों की रक्षा करने की कोशिश जरूर कर रहे हैं पर हितों का टकराव बहुत बड़ा है और अमेरिका तथा यूरोप में आर्थिक मंदी के चलते इस बात की उम्मीद कम ही है कि वे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए तथा कानकुन सम्मेलन में बनाए गए ग्रीन क्लाइमेट फंड के लिए धन आवंटित करेंगे। इस फंड के जरिए विकासशील तथा गरीब देशों को साफ तकनीक इस्तेमाल करने के लिए वित्तीय मदद देने की बात थी। यह विकसित देशों के हित में है कि वे हर बार की तरह इस बार भी एक नूरा-कुश्ती करें और अपनी जगह से टस से मस न हों। अमेरिका इसका जीता-जागता उदाहरण है, उसने क्योटो समाझौते को स्वीकार नहीं किया यानी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन यानी धरती को नुकसान पहुंचाने की कोई कीमत नहीं चुकाई।
वहीं अमेरिका का कहना है कि अब उसका उत्सर्जन उतना अधिक नहीं है, चीन और भारत ज्यादा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहे हैं, लिहाजा उन्हें अपने विकास की रफ्तार कम करते हुए रोकथाम के उपायों को लागू करना चाहिए। यह सच है कि मौजूदा समय में चीन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन ज्यादा कर रहा है, लेकिन भारत तो अभी बहुत पीछे है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के मामले में एक अमेरिकी एक साल में 17 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करता है, जबकि एक भारतीय मात्र 1.5 टन ही करता है। इस तरह 1 अमेरिकी 12 भारतीय के बराबर ग्रीन हाउस गैसों को छोड़ने का जिम्मेदार है। सवाल यह है कि जलवायु परिवर्तन पर सारी बहस जहां जाकर फंस रही है, उससे सबसे ज्यादा नुकसान हमारी पृथ्वी को हो रहा है। पहले ही हम जितना उत्सर्जन कर चुके हैं, उसे संभालना मुश्किल क्या, असंभव सा प्रतीत होता है। ऐसे में और उत्सर्जन का बढ़ना हम सबके लिए घातक होगा। लेकिन सवाल तो यह है कि रास्ता कैसे निकलेगा?
डरबन के सामने सवाल यह है कि भारत सहित बाकी विकासशील देश क्या करें? क्या वे विकसित देशों के एजेंडे को मान लें? क्या वे अपने आर्थिक विकास को विकसित देशों के हितों के आगे गिरवी रख दें? ऐसा किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता क्योंकि यह न्याय के मूलभूत सिद्धांत के ही खिलाफ है। भारत और चीन सहित बाकी विकासशील देशों का कहना है कि तमाम देशों के लिए एक ही कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता उनके हित में नहीं है क्योंकि उन्हें अपने विकास पर रोक लगानी पड़ेगी और ज्यादा प्रदूषण फैलाने वाले देश अपनी जिम्मेदारी से बच जाएंगे। डरबन में इस बात की आशंका है कि ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते पर तैयार हो जाएं, बशर्ते बदले में धन मिले। यानी बेसिक समूह की एकता टूट सकती है। चूंकि यह सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका में हो रहा है इसलिए उस पर दबाव है कि वह ठोस कदम उठाए और सम्मेलन को सफल बनाए। दक्षिण अफ्रीका की संसद ने सम्मेलन शुरू होने से पहले ही ऐसे एक आशय का प्रस्ताव पारित किया था जिसमें बाध्यकारी कानूनी समझौते की जरूरत पर बल दिया था।
दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील दोनों पर यह दबाव नया नहीं है। वर्ष 2009 में ऐसा ही दबाव भारत-चीन पर भी आया था, जिसके चलते भारत और चीन ने 2020 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन सघनता को क्रमशः 40-24 फीसदी और 20-25 फीसदी करने पर एकतरफा घोषणा की थी। उस समय भारतीय पक्ष ने एक मजबूत तर्क यह दिया था कि हमने एकतरफा कदम दोनों पक्षों के बीच विश्वास पैदा करने के लिए शुरू की लेकिन इसके बदले में विकसित देशों ने कोई कदम नहीं उठाया। विकासशील देशों पर तो दबाव बन रहा है लेकिन विकसित देशों ने वैसी कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है, जबकि हकीकत यह है कि विकसित देश दुनिया के 27 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के जिम्मेदार हैं। ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि जैसे-जैसे धरती पर संकट गहरा रहा है, वैसे-वैसे बड़े देशों की दिलचस्पी उसे बचाने के लिए ठोस कदम उठाने में घटती जा रही है।
डरबन में 28 नवंबर से शुरू हुआ यह सम्मेलन 9 दिसंबर तक चलेगा और इस दौरान अफ्रीका और बाकी छोटे देशों के राष्ट्राध्यक्षों के ही आने की खबर है। यानी दुनिया के राजनीतिक एजेंडे से जलवायु परिवर्तन गायब हो रहा है। शायद इसीलिए ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट की तर्ज पर डरबन में भी ऑक्यूपाई द कॉप आंदोलन पहुंच गया है। पूरी तरह से युवाओं की कमान वाले इस आंदोलन का कहना है कि धरती संकट में है लेकिन उसे बचाने के लिए गंभीर कोशिश इसलिए नहीं हो रही कि कॉरपोरेट घराने और उनके हितों की रक्षा करने वाली सरकारें ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को नहीं रोकना चाहतीं। इससे तमाम देशों पर दबाव बना है और ऐसी उम्मीद बंधती है कि भारत-चीन और बाकी विकासशील देश कुछ ठोस कदम उठाने में सफल होंगे। भारत ने अभी जिस तरह बराबरी, तकनीकी हस्तांतरण और एकतरफा व्यापार के सवाल को बहस तक पहुंचाया है, उससे आरंभिक उम्मीद बंधती है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि विकासशील देश अपने रुख पर कायम रहें।
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