वैकल्पिक न हो, अमृतरूपी वर्षाजल शेष रहने के लिए पात्र एवं पात्रता की आवश्यकता

वर्षा जल संरक्षण, फोटो क्रेडिट:- IWP Flicker
वर्षा जल संरक्षण, फोटो क्रेडिट:- IWP Flicker

इस वर्ष बिपरजोय तूफान के कारण देश में मानसून के आगमन में विलंब भले ही हुआ, लेकिन अच्छी बात यह है कि धीरे-धीरे मानसूनी बारिश ने देश के सभी हिस्सों को सराबोर करना आरंभ कर दिया है। हालांकि बारिश के कारण असम, गुजरात एवं राजस्थान समेत देश के कई क्षेत्रों में जलभराव और बाढ़ की स्थिति दिखने लगी है, लेकिन इसका दोष हम प्रकृति पर नहीं मढ़ सकते। बल्कि इस दशा के लिए हमें अपनी उन गलतियों को सुधारना होगा जिसके कारण आसमान से बरसने वाले अमृत को हम सहेज नहीं पाते। अपने ही अनुचित कृत्यों के कारण हम प्रकृति के वर्षाजल को सहेजने के पात्र यानी हमारे जलस्रोतों की दशा बिगाड़ चुके हैं। यह विडम्बना ही है कि एक ओर वर्ष के आठ महीनों, विशेषकर गर्मियों में देश के अनेक हिस्से बूंद-बूंद पानी को तरसते हैं, दूसरी तरफ करोड़ों लीटर पानी, जो प्रकृति हर वर्ष इस देश को देती है, हम यूं ही अपने सामने व्यर्थ बह जाने देते हैं। ऐसे में आवश्यक है कि हमें इस वर्षा रूपी अमृत को सहेजने की पात्रता पुनः अर्जित करनी होगी। ऐसे करने हेतु अनेक मृतप्राय नदियों एवं ताल पोखरों का पुनर्जीवन करना होगा। वर्ष 1650 की तुलना में 24 लाख तालाबों में से पांच लाख ही बचे हैं। इतना ही नहीं, एक-एक करके सभी वर्षाजनित नदियां अपना पानी या तो पूरी तरह से खो चुकी हैं या फिर खोने की कगार पर खड़ी हैं। इन नदियों से पानी का एक और महत्व जुड़ा है। ये अपनी यात्रा में जलभिदों को सींचकर भूमिगत पानी बढ़ा देती हैं।

इनमें पानी की कमी ने कुंओं को भी संकट में डाला है। इस काम में सरकारी स्तर पर दिए गए 'कैच द रेन' जैसे जल बचाने वाले नारे हमें वर्षा जल संरक्षण के लिए प्रेरित कर सकते हैं। ऐसे समय में पानी हर देश व हर घर का संकट बन रहा हो तो पानी की सारी आस व मेहनत आसमान पर ही टिकानी होगी। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा वर्षा जल संरक्षण के लिए 'कैच द रेन' का नारा वर्तमान परिस्थितियों में देश व दुनिया की पहली आवश्यकता है। वर्षा की हर बूंद को समेट लेने में ही हमारा भविष्य निर्भर करता है और वह इसलिए कि पानी का दूसरा और कोई विकल्प हमारे पास नहीं है। अब भगवान इंद्र की कृपा का सही मतलब समझने का भी समय आ चुका है, जिसको हमने कभी गंभीरता से नहीं लिया। खासतौर से तब, जब प्रकृति द्वारा दिए जा रहे पानी को जुटाने के रास्ते भी हमने अपनी नासमझी से खो दिए हों।

दुनिया में वर्षा का पानी ही सभी तरह के पानी का स्रोत है। जहां भी पानी है वो कहीं न कहीं वर्षा जल से ही जुड़ा है। चाहे मैदानी तालाब, कुंए हों या फिर पहाड़ी धारे या हिमखंड, सबकी जड़ें मानसून से सिंचती हैं। वर्षा जल ही जलस्रोतों को सींचकर नदियां बनाता है या उन्हें नवजीवन प्रदान करता है। इस प्रक्रिया में वनों की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। वन व वर्षा का अटूट रिश्ता होता है जिसके टूटने से जल संग्रहण क्षेत्र भूमिगत जलस्रोतों को सींच नहीं पाते और गर्मियों में सूखा व मानसून में बाढ़ जैसी परिस्थितियां पैदा कर देते हैं।

एक तरफ बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ वर्षा के पानी को न जोड़ पाना हमें भारी पड़ा है। इन सबके अलावा जलवायु परिवर्तन जैसे संकट के कारण वर्षा का पैटर्न बहुत बदल गया है। देखा गया है कि पहले जहां वर्षा धीमी गति से परंतु अधिक समय तक होती थी जिससे बारिश का पानी रिस-रिस कर भूजल स्तर को बढ़ाता था। लेकिन अब कम समय में भारी वर्षा होती है जिससे नागरिक जीवन अस्त-व्यस्त होने के साथ ही सारा पानी बहकर यूं ही व्यर्थ चला जाता है।

जल एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसके बारे में विशेषज्ञों द्वारा लगातार चेतावनी दी जा रही  हैं कि आने वाले सालों में जल की कमी, एक बड़ा संकट बन जाएगी। इसलिए मानव उपयोग के लिए जल प्रबंधन के स्थायी तरीकों पर बात करना बेहद जरूरी है। इनमें से सर्वाधिक आवश्यक तरीका है वर्षा का जल संचयन। मानव उपयोग के लिए वर्षा जल संग्रहण और भंडारण एक प्रक्रिया है और स्थायी जल प्रबंधन की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम भी। जल संसाधन सीमित और दुर्लभ हैं। जलवायु परिवर्तन के असर, उच्च जनसंख्या वृद्धि और वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि का असर इन स्रोतों पर पड़ रहा है। साथ ही तेजी से हो रहे औद्योगिकीकरण की वजह से निकलने वाले रासायनिक अपशिष्टों का बहाव भी इन जल निकायों को प्रदूषित कर रहा है। यह स्थिति हमारी भावी पीढ़ियों के अस्तित्व के लिए एक प्रत्यक्ष खतरा है। 

ऐसे में हमें प्राथमिकता पर बारिश की हर बूंद सहेजने के लिए कमर कसनी होगी। लोक भारती के तत्वावधान में प्राकृतिक कृषि, जलस्रोत संरक्षण एवं हरियाली अभियान के माध्यम से लगातार प्रयास हो रहे हैं कि वर्षा जल संरक्षण हेतु अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया जाए। लोक भारती परिवार से जुड़े राजस्थान के राजा लक्ष्मण सिंह ने 'चौका मॉडल' एवं बांदा के उमा शंकर पाण्डेय के 'खेत पर मेड़, मेड़ पर पेड' मॉडल के माध्यम से वर्षा जल संचयन की दिशा में नई राह दिखाते हुए साबित किया है कि यदि भाव और इच्छाशक्ति हो तो बिना बड़े संसाधनों के भी जल संरक्षण की दिशा में असरकारी परिवर्तन किए जा सकते हैं। भारत सरकार ने भी राजा लक्ष्मण सिंह एवं उमा शंकर पाण्डेय के इन प्रयासों को प्रोत्साहित करते हुए पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया है।

वर्षा जल संचयन के टिकाऊ प्रबंधन के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। संचयन के सबसे अच्छे उदाहरण लोगों के बीच साझा किए जाने चाहिए। इसका प्रचार एक जन आंदोलन की तरह होना चाहिए। इस दिशा में सामाजिक संगठन एवं मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके साथ ही इस काम के लिए समाज के सभी वर्गों को आगे आना होगा। क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति या क्षेत्र नहीं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है।


सोर्स - लोक सम्मान 

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Post By: Shivendra
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