विकास सिर्फ एक परिवार का होता है

लोग जब तक यह महसूस नहीं करते या इसको महसूस कराने वाला कोई संगठन जब तक नहीं बनता, तब तक ग्रामीण विकास बड़े लोगों के लिये ही होता रहेगा।अल्मोड़ा जिले के मनान, नैनी व गुरना तथा चमतोला क्षेत्रों में कुछ शिक्षित व अशिक्षित युवक लगभग पाँच या छः सालों से श्रमिक वन सहकारी समितियाँ चला रहे हैं। ऐसे वन श्रमिकों, जो असंगठित रूप से रह रहे हैं, जिनको ठेकेदारों ने शायद ही आज तक पूरी मजदूरी दी होगी, की इन युवकों ने सहकारी समितियाँ बनाई, ठेकेदारी प्रथा से मुक्ति के साथ ग्रामीण विकास को आगे बढ़ाने का कार्यक्रम बनाया गया। 45 रुपया प्रति कुन्तल से भी कम मजदूरी पहले मिलती थी, वह भी कभी पूरी नहीं, वहीं 60 रुपए से भी अधिक मिलना आरम्भ हुआ, परन्तु स्थानीय दलीय नेताओं, ठेकेदारों, उच्च अधिकारियों व वन कर्मचारियों ने इसे समाप्त करने के लिये संयुक्त मोर्चा बना लिया, क्योंकि विकास कार्यों के बहाने इन सभी को मिलने वाला अतिरिक्त लाभ इससे मिलना बन्द हो गया तथा इन क्षेत्रों में चल रहे विकास कार्यों में कहीं भी गलत होता तो संगठित रूप से आवाजें उठनी आरम्भ हो जातीं, वन सहकारी समितियों के रूप में आसानी से न बहकाए जा सकने वाले जनता के प्रहरी विकासकर्ताओं पर हावी होने लगे, पर इस संयुक्त मोर्चे वाले विरोध को नहीं सह पाने के कारण ही, प्रथम चरण में ही गुरना व चमतोला वाली सहाकारी समितियाँ समाप्त होने लगीं।

गाँवों में जो अंग्रेजों के जमाने में जमींदार थे, वही आज सभापति के रूप में कार्य कर रहे हैं। इसी जमींदार परिवार के सदस्य विभिन्न राजनैतिक दलों के सदस्य होते हैं, अर्थात् एक ही परिवार का एकाधिकार अधिकांशतः राजनैतिक दलों में होता है, चुनाव पद्धति धनबल वाले परम्परावादी व प्रभावशाली लोगों को ही विजयी बनाती है, गाँव का मतलब ही जमींदार व सभापति होता है, इसी के निर्देशन में गाँव के सारे कार्य किये जाते हैं, यह व्यक्ति गाँवों में कोई भी कार्य हो उनका ठेका अपने या चेलों के लिये लेता है, गाँव का सबसे सम्पन्न व्यक्ति यही होता है, आधुनिक सज्जा से युक्त इसका ही मकान होता है, इसलिये पटवारी, पुलिस, वन आदि के सभी कर्मचारी इसी के पास रहते हैं, इसी परिवार के माध्यम से हर राजनैतिक दल नोट देता है व वोट लेता है। बड़े-बड़े सेठ, मिल मालिक इसी के माध्यम से मानवीय व प्राकृतिक स्रोतों का शोषण करते हैं, सारे कानून इसके मुट्ठी के अन्दर रहते हैं, जिसको चाहे यह जेल भिजवाए, जिसको चाहे यह छुड़ाए, वकीलों को केस देने का कार्य यही करता है। इसलिये वकील इसके सारे केस मुफ्त में लड़ते हैं, अधिकांश वकील राजनैतिक दलों से सम्बन्धित होते हैं, जिनकी पूरी मदद यही करता है। गाँव के विकास की सारी सुविधाओं का यही भोग करता है- स्कूल का मैनेजर यही, पोस्ट ऑफिस, राशन की दुकान इसी के पास, पानी का नल हो या नहर, सब इसके घर या खेत के पास, इन शक्तिशाली केन्द्रों को तोड़ना असम्भव है, इसीलिये आरम्भ में जब श्रम सहकारी समितियों का गठन किया गया तो यह सभापति सबसे बड़ा दुश्मन बना इसके दुश्मन बनने के साथ ही नेता, अधिकारी, कर्मचारी सभी दुश्मन बन गए।

सभापति के ऊपर ब्लॉक प्रमुख का पद होता है, अल्मोड़ा जिले में 14 ब्लॉक प्रमुख हैं, जिनमें से 12 ब्लॉक प्रमुख लीसा, लकड़ी, सड़क, नहर आदि सभी की ठेकेदारी लिये हुए हैं और विभिन्न राजनैतिक दलों से सम्बन्धित हैं, इन्हीं में से या उनके सहयोग से उत्तराखण्ड में लोग संसद सदस्य या विधायक बनते हैं, उत्तराखण्ड में ग्रामीण क्षेत्रों में नहर, पानी के नल, डिग्गी, सड़क आदि कोई भी दो या तीन साल से अधिक नहीं चलती। क्योंकि अधिकांश योजनाओं में सीमेंट की जगह बजरी और बजरी की जगह मिट्टी मिली हुई मिलेगी। रानीखेत के पास नैनादेवी की लगभग एक करोड़ रुपए की पानी की योजना असफल हो गई। पानी के नल गाँव वालों के कपड़े सुखाने के काम आ रहे हैं। पिथौरागढ़ पेयजल का भी वही हाल है। परन्तु ठेकेदारों, अभियन्ताओं व नेताओं के बड़े-बड़े भवन अवश्य बन गए हैं, इतने बड़े संगठित कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त डाकुओं को एक नादान ग्रामीण कैसे समाप्त कर सकता है?

जिस ढंग से साम्राज्यवादी देश अविकसित या विकसित देशों में अधिकांशतः इस तरह से सहायता देते हैं, जिससे आर्थिक रूप में कच्चा माल मिलता रहे व पके माल के लिये बाजार बढ़ता रहे, उसी प्रकार का विकास उत्तराखण्ड में भी हुआ है।

उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछता जा रहा है, आज हर नेता के दिमाग में यह बात डाल दी गई है कि विकास का मतलब सड़क, एक ही योजना विकसित क्षेत्र के लिये सकारात्मक हो सकती है, अविकसित क्षेत्र के लिये नकारात्मक, जैसे अगर एक छोटे बच्चे को एक हृष्ट-पुष्ट आदमी के बराबर भोजन जबरन खिला दिया जाय तो अवश्य उस बच्चे के लिये खतरा है, उत्तराखण्ड में भी सड़कों ने यही किया है।

सड़क आने से वनों का अन्धाधुन्ध कटान हुआ है। ठेकेदारों व मिल मालिकों को सस्ते दाम पर कच्चा माल उपलब्ध हुआ है, पहले 200 घोड़े वाले समान ढोते थे, वहाँ एक ट्रक वाला सारा कार्य कर सबके हिस्से का लाभ कमा रहा है, यह सही है कि सस्ता व शीघ्र सामान आ जाता है पर विकास में समानता कहाँ रही? 200 घोड़े वाले गाँवों की दुकानों में अपनी आय खर्च करते थे, परन्तु ट्रक वाला तो एक चाय भी नहीं पीता गाँव की दुकानों में, दुकानें भी समाप्त, गाँव में बने कुटीर उद्योगों के मुकाबले मिल से आये सामान ने स्थान ले लिया है, कुटीर उद्योग भी समाप्त होते चले गए, प्रवासी बनकर लोगों ने मैदानों की ओर जाना शुरू किया है। गाँव जहाँ आत्मावलम्बी थे, वहीं अब परावलम्बी बनते जा रहे हैं, उत्तराखण्ड के गाँवों को अगर हम बच्चों, महिलाओं और बूढ़ों का गाँव कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। शायद ही कोई गाँव मिले, जहाँ युवक हों, युवकों के अभाव में जनचेतना का कार्य अत्यधिक कठिन है। अधिकांश युवक फौज में या घरेलू नौकर के रूप में मैदानी क्षेत्रों में चले जाते हैं।

लोग जब तक यह महसूस नहीं करते या इसको महसूस कराने वाला कोई संगठन जब तक नहीं बनता, तब तक ग्रामीण विकास बड़े लोगों के लिये ही होता रहेगा।

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