आपदाओं का असर कम करने के राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। दुनिया के 169 देशों ने एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसे ह्यूगो फ्रेमवर्क ऑफ ऐक्शन, 2005 नाम दिया गया है। इसका उद्देश्य आपदाओं की मार का असर घटाना है। भारत भी इस पर हस्ताक्षर कर चुका है।आपदाओं के प्रभाव को काफी लम्बे अरसे से विकास प्रक्रिया में बाधक माना जाता रहा है। पिछले दो दशकों से आपदाओं ने एशिया भर में अनेक देशों को, और खासतौर से भारत को प्रभावित किया है। गत वर्षों में आपदाओं के कारण लाखों लोगों के प्राण गए और बहुमूल्य बुनियादी सुविधाएँ बर्बाद हुईं। आपदाओं का सामना करते हुए स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़कें, संचार, बिजली और सिंचाई की मूल सुविधाएँ नष्ट हुईं। आपदाओं के कारण राष्ट्रों की विकास प्रक्रिया प्रभावित होती है और आपदा बाद उन्हें फिर से वहीं से विकास कार्य शुरू करने होते हैं जहाँ से उन्होंने पहले शुरू किया था। उन्हें विकास कोष पुनर्निर्माण पर लगाने पड़ते हैं। देश को फिर से ‘पटरी पर लाने’ के उद्देश्य से अतिरिक्त सहायता राशि जुटानी पड़ती है।
आपदाओं के कारण जन-धन की ही हानि नहीं होती बल्कि औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित होता है और उपयोगी सेवाओं — परिवहन, श्रम आपूर्ति और बाजार में बाधा आती है। जीवन की हानि होता है। विकास योजनाएँ प्रभावित होती हैं और प्रगति रुक जाती है।
आपदाओं का असर कम करने के राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। दुनिया के 169 देशों ने एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसे ह्यूगो फ्रेमवर्क ऑफ ऐक्शन, 2005 नाम दिया गया है। इसका उद्देश्य आपदाओं की मार का असर घटाना है। भारत भी इस पर हस्ताक्षर कर चुका है। इसके अनुसार, आपदाओं के प्रति नजरिये में परिवर्तन आया है। अब आपदाओं के लिए राहत कार्यों के बजाय इनसे बचने के उपायों पर अधिक जोर दिया जाता है। भारत में आपदा निवारण के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। इनमें नीति निर्धारण कानून पास करना शामिल है। इनसे आपदाओं का असर कम करने में मदद मिलती है। किन्तु चुनौतियाँ अब भी बरकरार हैं कि आपदा निवारक उपायों को कैसे लागू किया जाए।
आपदा प्रबन्धन सिर्फ एक क्षेत्र में किया जाने वाला कार्य नहीं है। यह बहुक्षेत्रीय विषय है। इसीलिए आपदा प्रबन्धन के उपाय बहुउद्देश्यीय रखने होते हैं। चुनौती यह है कि उन्हें ज्यादा व्यापक कैसे बनाया जाए। प्राकृतिक आपदा का खतरा मानव विकास प्रक्रिया से जुड़ा है। आपदा विकास को खतरे में डाल देती है। साथ ही, व्यक्ति, समुदाय और देश विकास के जिन प्रारूपों को अपनाते हैं उनसे भी नयी आपदाएँ भी पैदा हो जाती हैं। मानव विकास प्रक्रिया को मूल सुविधा, औद्योगिक, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा आदि क्षेत्रों में निवेश करना होता है। ऐसा करके बेहतर विकास सूचक प्राप्त किए जा सकते हैं। गत वर्षों में ऐसा अनुभव रहा है कि मानव विकास प्रक्रिया अच्छे और बुरे विकास से जुड़ी रही है। अच्छा विकास वह है जो वांछित परिणाम देता है और उसके कारण समाज को कोई आपदा जोखिम नहीं पैदा होता। बुरा विकास उसे कहा जाएगा जिसके कारण वांछित परिणाम तो मिल जाते हैं लेकिन उससे समाज को आपदा का खतरा पैदा होता है।
पिछले दिनों अनेक मूल सुविधाएँ विफल हो गईं। इनका निर्माण विकास उधेश्यों की प्राप्ति के लिए किया गया था। साथ ही, एक उद्देश्य यह भी था कि इनके कारण आपदाओं का खतरा कम होगा। इन मूल सुविधाओं के क्षरण के साथ रोजगार के अवसर कम होते हैं, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती है। इनके कारण वित्तीय, राजनीतिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी और पर्यावरणीय हानि भी होती है। इन आपदाओं के कारण गरीबी और भुखमरी दूर करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल आदि की सुविधाएँ जुटाने के प्रयासों को भी धक्का लगता है। साथ ही, रोजगार और आय बढ़ाने तथा पर्यावरण सुधार और आर्थिक प्रगति के उपाय विफल होते हैं। विकास के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पक्ष हैं। विकास के कारण खतरे कम हो सकते हैं और आपदाएँ भी आ सकती हैं। दिया गया स्पष्टीकरण देखें-
रेखाचित्र से स्पष्ट होता है कि विकास और आपदाओं, दोनों के नकारात्मक और सकारात्मक पक्ष हैं। विकास के सकारात्मक पक्ष से जाहिर होता है कि अगर विकास योजनाएँ बनाते समय आपदा दुर्बलता का ध्यान रखा जाए तो इससे मानव विकास प्रक्रिया में तेजी आती है। इस सन्दर्भ में कैलिफोर्निया, जापान आदि के उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ गुजरात से भी बड़े भूकम्प आए लेकिन जान-माल का अधिक नुकसान नहीं हुआ और 10 से भी कम लोगों की मृत्यु हुई, मूल सुविधाएँ कायम रहीं और उनका इस्तेमाल जारी रहा।
दूसरी ओर, जब भी आपदा आती है तो मूल सुविधा विकास गड़बड़ा जाता है (उड़ीसा का समुद्री तूफान, बिहार की बाढ़ 2004, 2007, 2009, गुजरात भूकम्प, म्यांमार का समुद्री तूफान 2008)। अगर आपदा के बाद पुनर्निर्माण प्रक्रिया ठीक से चले तो फिर से आपदा की विभीषिका कम होगी और विकास की रफ्तार तेज होगी। इस सन्दर्भ में गुजरात भूकम्प बाद की पुनर्निर्माण प्रक्रिया को पुनर्निर्माण का एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है।
पिछले दिनों देश की आपदा सम्भावित जगहों में जो विकास परियोजनाएँ/कार्यक्रम शुरू किए गए उनमें ऐसा जान पड़ता है कि आपदा सम्भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया। भारत के अनेक राज्य ऐसे हैं जहाँ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावना है। कई बार तो एक ही साथ वहाँ कई तरह की आपदाएँ आ जाती हैं। (राजस्थान का सूखा, बाड़मेर में बाढ़, महाराष्ट्र में सूखा और मुम्बई में बाढ़)। कभी-कभी अलग-अलग समय पर अलग प्रकार की आपदाएँ आती हैं। (गुजरात : भूकम्प, समुद्री तूफान, सूखा, आन्ध्र प्रदेश : समुद्री तूफान और सूखा)। कुल मिलाकर एक देश के रूप में भारत एक साथ ही कई तरह की आपदाओं से ग्रस्त रहता है। 2004 में सुनामी, 2005 में कश्मीर में भूकम्प, 2005 का आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक आदि में सूखा इसके उदाहरण हैं।
जैसाकि विश्व बैंक के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है, भारत हर साल अपने सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत के बराबर इस कारण नुकसान उठाता है। यह प्रत्यक्ष हानि है। एशिया के कई देशों में उनके सकल घरेलू उत्पाद के 12 प्रतिशत के बराबर भाग आपदाओं की भेंट चढ़ जाता है। इस हानि में आपदा भरपाई और अन्य अप्रत्यक्ष व्यय शामिल नहीं हैं।
इस सवाल का जवाब दिए जाने की सबसे ज्यादा जरूरत है कि देश के सन्दर्भ में आपदाओं का विवरण मालूम है तो फिर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मूल सुविधाएँ क्यों बरकरार नहीं रह पातीं? या फिर क्या हमें ये बातें पता नहीं हैं अथवा हम आपदा रोधी बुनियादी तन्त्र में निवेश करना बहुत खर्चीला पाते हैं? या फिर आज के राजनीतिक माहौल में मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटना हमें अधिक माफिक लग रहा है? और हम जान बूझ कर आपदा रोधी मूल सुविधा तन्त्र पर ध्यान नहीं देते? अगर ऐसा नहीं है तो फिर हमारा मूल सुविधा तन्त्र आपदा-सक्षम क्यों नहीं है?
विश्व आपदा रिपोर्ट 2001 में कहा गया है कि आपदाओं से जुड़ी 97 प्रतिशत मौतें गरीब विकासशील देशों में होती हैं और औद्योगिक देशों में यह दर सिर्फ 2 प्रतिशत बैठती है।विश्व आपदा रिपोर्ट 2001 में कहा गया है कि आपदाओं से जुड़ी 97 प्रतिशत मौतें गरीब विकासशील देशों में होती हैं और औद्योगिक देशों में यह दर सिर्फ 2 प्रतिशत बैठती है। भारत में कम विकसित राज्य उच्च सम्भावित क्षेत्रों में आते हैं और उनकी आपदा प्रबन्धन क्षमता कम है। बिहार, असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्य, उत्तरांचल, हिमालय प्रदेश अधिक आपदा सम्भावित राज्य हैं और वहाँ बाढ़, समुद्री तूफान, भूकम्प और सूखे जैसी आपदाएँ आती रहती हैं। ये राज्य ऐसी हालत में सिर्फ एक चीज के आकांक्षी रहते हैं। वह है सहायता राशि—आपदा राहत कोष, राष्ट्रीय आपदा कोष, प्रधानमन्त्री राहत कोष, दान, अनुदान, ऋण आदि। इस सहायता राशि से मूल सुविधाओं और मकानों की आर्थिक और वित्तीय हानि की वसूली नहीं हो सकती। प्राकृतिक आपदाओं के कारण गरीबी बढ़ जाती है और मानव विकास की गति मन्द पड़ जाती है। जो राज्य गरीब लेकिन विकासशील हैं वे गरीब ही रह जाते हैं और इसी बात से यह पक्का हो जाता है कि एक ऐसा तन्त्र विकसित करने की जरूरत है जो आपदा बाद का प्रबन्ध सम्भाले और मूल सुविधाओं, वित्तीय हानि, आपदा से पहले खतरा कम करने और आपदा आ जाने पर उचित राहत उपाय करने पर ध्यान दे। इसी के लिए आपदा राहत संगठन चाहिए। हमें एक अलग कार्यनीति की जरूरत है और इसे विकास की मुख्यधारा में जगह मिलनी चाहिए।
आपदा जोखिम घटाने के कार्यक्रम को बहुक्षेत्रीय और बहुस्तरीय बनाने की जरूरत है। इसे राष्ट्रीय या स्थानीय रूप देना काफी नहीं होगा। इसके विकास गतिविधियों से समन्वित करने के सुदृढ़ प्रयासों को निर्णयकर्ताओं, नियोजकों आदि की राष्ट्रीय, राज्य, पंचायत/ स्थानीय निकाय स्तर पर सहमति की आवश्यकता है। ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन, 2005 में इसे मुख्यधारा में लाने की जरूरत पर भी जोर दिया गया है। लेकिन चुनौती यह है कि ऐसा कैसे करें?
मुख्यधारा में लाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आपदा जोखिम के निहितार्थों का मूल्यांकन किया जाता है कि वे नीति से कार्यक्रम कार्यान्वयन स्तर तक किस प्रकार हर स्तर पर प्रभावित करेंगे। इस प्रक्रिया से जोखिम घटाने के उपायों को कार्यान्वयन मॉनीटरिंग एवं मूल्यांकन में एक अभिन्न आयाम के रूप में शामिल किया जाता है। यदि आपदा जोखिम के कारणों का विकास के दौरान ध्यान नहीं रखा जाता, तो इस सम्बन्ध में किया जाने वाला कोई भी निवेश जोखिम को बढ़ावा देने वाले कार्यों में निवेश करने के समान होगा और इसके जरिये मानव विकास की गति जारी नहीं रह पाएगी।
आपदा जोखिम घटाने वाली परियोजनाएँ आपदा-पूर्व, आपदा समय की, आपदा-बाद की अथवा विकास वर्ग की हो सकती हैं। इन सबको आपदा जोखिम घटाने की योजना में शामिल करना चाहिए। आपदा जोखिम घटाने की मुख्यधारा वाली परियोजनाएँ एक प्रकार से विकास एवं आपदा के समय वाली परियोजनाओं की गुणता सुधार प्रक्रिया का ही एक रूप है।
राज्य और राष्ट्रीय स्तर के समर्थन से आपदा जोखिम घटाने की परियोजनाएँ कार्यान्वित की जा सकती हैं। इस काम में ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर आने का रवैया अपनाया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर विनिर्दिष्ट नीति, कानून एवं संस्थाएँ बनाई जानी चाहिए और आपदा जोखिम घटाने के उद्देश्य से उन्हें सुहढ़ बनाया जाना चाहिए। विनिर्दिष्ट क्षेत्र की परियोजनाओं पर खासतौर से ध्यान दिया जाए।
आपदा जोखिम में कमी से अन्य सरकारी विभागों और हितधारकों को नीति सम्बन्धी भरोसा दिलाया जा सकता है। दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से आपदा जोखिम घटाने के कार्यक्रम को लागू किया जा सकता है। इस कार्यक्रम को पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और विकास का एक अंग माना जाना चाहिए। जोखिम विश्लेषण आपदाओं के सन्दर्भ में किए जाने चाहिए, साथ ही, जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाली भयंकर आपदाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। तदनुसार, शमन एवं आत्मार्पण कार्यक्रम भी विकसित किए जाने चाहिए। शमन कार्यक्रम में ढाँचागत और गैर ढाँचागत मुद्दों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वित्तीय और मुद्रा सम्बन्धी साधनों को आपदा-पूर्व और आपदा-बाद की परियोजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए। अगर ऐसी परियोजनाओं को मुख्यधारा में लाया जा सका तो सतत विकास का लक्ष्य पूरा होगा और लोगों की तकलीफ कम की जा सकेगी।
राष्ट्रीय स्तर पर आपदा जोखिम कमी कार्यक्रम को विकास नीति के साथ मुख्यधारा में लाना एक बड़ी चुनौती है। यह सर्वमान्य है कि आपदा बाद बड़े पैमाने पर राहत की जरूरत होती है। अब चुनौती यह है कि चल रही विकास नीति में आपदा जोखिम घटाने को मुख्य मुद्दा माना जाए। इसके बारे में सरकारी एजेंसियों के सहयोग से ज्यादा समन्वित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। इसके लिए भू-उपयोग, विकास नियोजन, कृषि, पर्यावरण नियोजन और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाओं और हितधारकों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। इस दृष्टिकोण में ऐसी आपदा जोखिम प्रबन्धन कार्यनीतियों को शामिल किया जाना चाहिए जिनमें समता और सम्पूर्णता वाले दृष्टिकोण से काम होता हो जिससे समुदायों का सशक्तीकरण सम्भव हो और स्थानीय भागीदारी के लिए दरवाजे खुले हों। कानून बना कर कार्रवाई के मानक और सीमाएँ तय की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, निर्माण संहिता परिभाषित की जाए, प्रशिक्षण आवश्यकताएँ स्पष्ट की जाएँ और जोखिम प्रबन्धन के प्रमुख कर्ता-धर्ताओं की जिम्मेदारी तय कर दी जाए। लेकिन मात्र कानून बनाकर ही लोगों को इनका पालन करने के लिए समझाया नहीं जा सकेगा। इसके लिए प्रगति पर नजर रखने और परिपालन कराने की जरूरत पड़ेगी।
(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान में नीति नियोजन एवं सामुदायिक मुद्दों के प्रोफेसर हैं)
ई-मेल : profsantosh@gmail.com
आपदाओं के कारण जन-धन की ही हानि नहीं होती बल्कि औद्योगिक उत्पादन भी प्रभावित होता है और उपयोगी सेवाओं — परिवहन, श्रम आपूर्ति और बाजार में बाधा आती है। जीवन की हानि होता है। विकास योजनाएँ प्रभावित होती हैं और प्रगति रुक जाती है।
आपदाओं का असर कम करने के राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। दुनिया के 169 देशों ने एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं जिसे ह्यूगो फ्रेमवर्क ऑफ ऐक्शन, 2005 नाम दिया गया है। इसका उद्देश्य आपदाओं की मार का असर घटाना है। भारत भी इस पर हस्ताक्षर कर चुका है। इसके अनुसार, आपदाओं के प्रति नजरिये में परिवर्तन आया है। अब आपदाओं के लिए राहत कार्यों के बजाय इनसे बचने के उपायों पर अधिक जोर दिया जाता है। भारत में आपदा निवारण के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं। इनमें नीति निर्धारण कानून पास करना शामिल है। इनसे आपदाओं का असर कम करने में मदद मिलती है। किन्तु चुनौतियाँ अब भी बरकरार हैं कि आपदा निवारक उपायों को कैसे लागू किया जाए।
विकास और आपदा जोखिम
आपदा प्रबन्धन सिर्फ एक क्षेत्र में किया जाने वाला कार्य नहीं है। यह बहुक्षेत्रीय विषय है। इसीलिए आपदा प्रबन्धन के उपाय बहुउद्देश्यीय रखने होते हैं। चुनौती यह है कि उन्हें ज्यादा व्यापक कैसे बनाया जाए। प्राकृतिक आपदा का खतरा मानव विकास प्रक्रिया से जुड़ा है। आपदा विकास को खतरे में डाल देती है। साथ ही, व्यक्ति, समुदाय और देश विकास के जिन प्रारूपों को अपनाते हैं उनसे भी नयी आपदाएँ भी पैदा हो जाती हैं। मानव विकास प्रक्रिया को मूल सुविधा, औद्योगिक, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा और सेवा आदि क्षेत्रों में निवेश करना होता है। ऐसा करके बेहतर विकास सूचक प्राप्त किए जा सकते हैं। गत वर्षों में ऐसा अनुभव रहा है कि मानव विकास प्रक्रिया अच्छे और बुरे विकास से जुड़ी रही है। अच्छा विकास वह है जो वांछित परिणाम देता है और उसके कारण समाज को कोई आपदा जोखिम नहीं पैदा होता। बुरा विकास उसे कहा जाएगा जिसके कारण वांछित परिणाम तो मिल जाते हैं लेकिन उससे समाज को आपदा का खतरा पैदा होता है।
पिछले दिनों अनेक मूल सुविधाएँ विफल हो गईं। इनका निर्माण विकास उधेश्यों की प्राप्ति के लिए किया गया था। साथ ही, एक उद्देश्य यह भी था कि इनके कारण आपदाओं का खतरा कम होगा। इन मूल सुविधाओं के क्षरण के साथ रोजगार के अवसर कम होते हैं, बेरोजगारी और गरीबी बढ़ती है। इनके कारण वित्तीय, राजनीतिक, स्वास्थ्य सम्बन्धी और पर्यावरणीय हानि भी होती है। इन आपदाओं के कारण गरीबी और भुखमरी दूर करने, शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पेयजल आदि की सुविधाएँ जुटाने के प्रयासों को भी धक्का लगता है। साथ ही, रोजगार और आय बढ़ाने तथा पर्यावरण सुधार और आर्थिक प्रगति के उपाय विफल होते हैं। विकास के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पक्ष हैं। विकास के कारण खतरे कम हो सकते हैं और आपदाएँ भी आ सकती हैं। दिया गया स्पष्टीकरण देखें-
रेखाचित्र से स्पष्ट होता है कि विकास और आपदाओं, दोनों के नकारात्मक और सकारात्मक पक्ष हैं। विकास के सकारात्मक पक्ष से जाहिर होता है कि अगर विकास योजनाएँ बनाते समय आपदा दुर्बलता का ध्यान रखा जाए तो इससे मानव विकास प्रक्रिया में तेजी आती है। इस सन्दर्भ में कैलिफोर्निया, जापान आदि के उदाहरण दिए जा सकते हैं जहाँ गुजरात से भी बड़े भूकम्प आए लेकिन जान-माल का अधिक नुकसान नहीं हुआ और 10 से भी कम लोगों की मृत्यु हुई, मूल सुविधाएँ कायम रहीं और उनका इस्तेमाल जारी रहा।
दूसरी ओर, जब भी आपदा आती है तो मूल सुविधा विकास गड़बड़ा जाता है (उड़ीसा का समुद्री तूफान, बिहार की बाढ़ 2004, 2007, 2009, गुजरात भूकम्प, म्यांमार का समुद्री तूफान 2008)। अगर आपदा के बाद पुनर्निर्माण प्रक्रिया ठीक से चले तो फिर से आपदा की विभीषिका कम होगी और विकास की रफ्तार तेज होगी। इस सन्दर्भ में गुजरात भूकम्प बाद की पुनर्निर्माण प्रक्रिया को पुनर्निर्माण का एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है।
पिछले दिनों देश की आपदा सम्भावित जगहों में जो विकास परियोजनाएँ/कार्यक्रम शुरू किए गए उनमें ऐसा जान पड़ता है कि आपदा सम्भावनाओं का ध्यान नहीं रखा गया। भारत के अनेक राज्य ऐसे हैं जहाँ कई प्रकार की प्राकृतिक आपदाओं की सम्भावना है। कई बार तो एक ही साथ वहाँ कई तरह की आपदाएँ आ जाती हैं। (राजस्थान का सूखा, बाड़मेर में बाढ़, महाराष्ट्र में सूखा और मुम्बई में बाढ़)। कभी-कभी अलग-अलग समय पर अलग प्रकार की आपदाएँ आती हैं। (गुजरात : भूकम्प, समुद्री तूफान, सूखा, आन्ध्र प्रदेश : समुद्री तूफान और सूखा)। कुल मिलाकर एक देश के रूप में भारत एक साथ ही कई तरह की आपदाओं से ग्रस्त रहता है। 2004 में सुनामी, 2005 में कश्मीर में भूकम्प, 2005 का आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक आदि में सूखा इसके उदाहरण हैं।
जैसाकि विश्व बैंक के एक अध्ययन में अनुमान लगाया गया है, भारत हर साल अपने सकल घरेलू उत्पाद के 2 प्रतिशत के बराबर इस कारण नुकसान उठाता है। यह प्रत्यक्ष हानि है। एशिया के कई देशों में उनके सकल घरेलू उत्पाद के 12 प्रतिशत के बराबर भाग आपदाओं की भेंट चढ़ जाता है। इस हानि में आपदा भरपाई और अन्य अप्रत्यक्ष व्यय शामिल नहीं हैं।
इस सवाल का जवाब दिए जाने की सबसे ज्यादा जरूरत है कि देश के सन्दर्भ में आपदाओं का विवरण मालूम है तो फिर आपदा सम्भावित क्षेत्रों में मूल सुविधाएँ क्यों बरकरार नहीं रह पातीं? या फिर क्या हमें ये बातें पता नहीं हैं अथवा हम आपदा रोधी बुनियादी तन्त्र में निवेश करना बहुत खर्चीला पाते हैं? या फिर आज के राजनीतिक माहौल में मुफ्त की रेवड़ियाँ बाँटना हमें अधिक माफिक लग रहा है? और हम जान बूझ कर आपदा रोधी मूल सुविधा तन्त्र पर ध्यान नहीं देते? अगर ऐसा नहीं है तो फिर हमारा मूल सुविधा तन्त्र आपदा-सक्षम क्यों नहीं है?
विश्व आपदा रिपोर्ट 2001 में कहा गया है कि आपदाओं से जुड़ी 97 प्रतिशत मौतें गरीब विकासशील देशों में होती हैं और औद्योगिक देशों में यह दर सिर्फ 2 प्रतिशत बैठती है।विश्व आपदा रिपोर्ट 2001 में कहा गया है कि आपदाओं से जुड़ी 97 प्रतिशत मौतें गरीब विकासशील देशों में होती हैं और औद्योगिक देशों में यह दर सिर्फ 2 प्रतिशत बैठती है। भारत में कम विकसित राज्य उच्च सम्भावित क्षेत्रों में आते हैं और उनकी आपदा प्रबन्धन क्षमता कम है। बिहार, असम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्य, उत्तरांचल, हिमालय प्रदेश अधिक आपदा सम्भावित राज्य हैं और वहाँ बाढ़, समुद्री तूफान, भूकम्प और सूखे जैसी आपदाएँ आती रहती हैं। ये राज्य ऐसी हालत में सिर्फ एक चीज के आकांक्षी रहते हैं। वह है सहायता राशि—आपदा राहत कोष, राष्ट्रीय आपदा कोष, प्रधानमन्त्री राहत कोष, दान, अनुदान, ऋण आदि। इस सहायता राशि से मूल सुविधाओं और मकानों की आर्थिक और वित्तीय हानि की वसूली नहीं हो सकती। प्राकृतिक आपदाओं के कारण गरीबी बढ़ जाती है और मानव विकास की गति मन्द पड़ जाती है। जो राज्य गरीब लेकिन विकासशील हैं वे गरीब ही रह जाते हैं और इसी बात से यह पक्का हो जाता है कि एक ऐसा तन्त्र विकसित करने की जरूरत है जो आपदा बाद का प्रबन्ध सम्भाले और मूल सुविधाओं, वित्तीय हानि, आपदा से पहले खतरा कम करने और आपदा आ जाने पर उचित राहत उपाय करने पर ध्यान दे। इसी के लिए आपदा राहत संगठन चाहिए। हमें एक अलग कार्यनीति की जरूरत है और इसे विकास की मुख्यधारा में जगह मिलनी चाहिए।
विकास नियोजन और आपदा राहत
आपदा जोखिम घटाने के कार्यक्रम को बहुक्षेत्रीय और बहुस्तरीय बनाने की जरूरत है। इसे राष्ट्रीय या स्थानीय रूप देना काफी नहीं होगा। इसके विकास गतिविधियों से समन्वित करने के सुदृढ़ प्रयासों को निर्णयकर्ताओं, नियोजकों आदि की राष्ट्रीय, राज्य, पंचायत/ स्थानीय निकाय स्तर पर सहमति की आवश्यकता है। ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर ऐक्शन, 2005 में इसे मुख्यधारा में लाने की जरूरत पर भी जोर दिया गया है। लेकिन चुनौती यह है कि ऐसा कैसे करें?
मुख्यधारा में लाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आपदा जोखिम के निहितार्थों का मूल्यांकन किया जाता है कि वे नीति से कार्यक्रम कार्यान्वयन स्तर तक किस प्रकार हर स्तर पर प्रभावित करेंगे। इस प्रक्रिया से जोखिम घटाने के उपायों को कार्यान्वयन मॉनीटरिंग एवं मूल्यांकन में एक अभिन्न आयाम के रूप में शामिल किया जाता है। यदि आपदा जोखिम के कारणों का विकास के दौरान ध्यान नहीं रखा जाता, तो इस सम्बन्ध में किया जाने वाला कोई भी निवेश जोखिम को बढ़ावा देने वाले कार्यों में निवेश करने के समान होगा और इसके जरिये मानव विकास की गति जारी नहीं रह पाएगी।
आपदा जोखिम घटाने वाली परियोजनाएँ आपदा-पूर्व, आपदा समय की, आपदा-बाद की अथवा विकास वर्ग की हो सकती हैं। इन सबको आपदा जोखिम घटाने की योजना में शामिल करना चाहिए। आपदा जोखिम घटाने की मुख्यधारा वाली परियोजनाएँ एक प्रकार से विकास एवं आपदा के समय वाली परियोजनाओं की गुणता सुधार प्रक्रिया का ही एक रूप है।
राज्य और राष्ट्रीय स्तर के समर्थन से आपदा जोखिम घटाने की परियोजनाएँ कार्यान्वित की जा सकती हैं। इस काम में ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर आने का रवैया अपनाया जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर और राज्य स्तर पर विनिर्दिष्ट नीति, कानून एवं संस्थाएँ बनाई जानी चाहिए और आपदा जोखिम घटाने के उद्देश्य से उन्हें सुहढ़ बनाया जाना चाहिए। विनिर्दिष्ट क्षेत्र की परियोजनाओं पर खासतौर से ध्यान दिया जाए।
आपदा जोखिम में कमी से अन्य सरकारी विभागों और हितधारकों को नीति सम्बन्धी भरोसा दिलाया जा सकता है। दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति से आपदा जोखिम घटाने के कार्यक्रम को लागू किया जा सकता है। इस कार्यक्रम को पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और विकास का एक अंग माना जाना चाहिए। जोखिम विश्लेषण आपदाओं के सन्दर्भ में किए जाने चाहिए, साथ ही, जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाली भयंकर आपदाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। तदनुसार, शमन एवं आत्मार्पण कार्यक्रम भी विकसित किए जाने चाहिए। शमन कार्यक्रम में ढाँचागत और गैर ढाँचागत मुद्दों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वित्तीय और मुद्रा सम्बन्धी साधनों को आपदा-पूर्व और आपदा-बाद की परियोजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए। अगर ऐसी परियोजनाओं को मुख्यधारा में लाया जा सका तो सतत विकास का लक्ष्य पूरा होगा और लोगों की तकलीफ कम की जा सकेगी।
निष्कर्ष
राष्ट्रीय स्तर पर आपदा जोखिम कमी कार्यक्रम को विकास नीति के साथ मुख्यधारा में लाना एक बड़ी चुनौती है। यह सर्वमान्य है कि आपदा बाद बड़े पैमाने पर राहत की जरूरत होती है। अब चुनौती यह है कि चल रही विकास नीति में आपदा जोखिम घटाने को मुख्य मुद्दा माना जाए। इसके बारे में सरकारी एजेंसियों के सहयोग से ज्यादा समन्वित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। इसके लिए भू-उपयोग, विकास नियोजन, कृषि, पर्यावरण नियोजन और शिक्षा से जुड़ी सरकारी संस्थाओं और हितधारकों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए। इस दृष्टिकोण में ऐसी आपदा जोखिम प्रबन्धन कार्यनीतियों को शामिल किया जाना चाहिए जिनमें समता और सम्पूर्णता वाले दृष्टिकोण से काम होता हो जिससे समुदायों का सशक्तीकरण सम्भव हो और स्थानीय भागीदारी के लिए दरवाजे खुले हों। कानून बना कर कार्रवाई के मानक और सीमाएँ तय की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए, निर्माण संहिता परिभाषित की जाए, प्रशिक्षण आवश्यकताएँ स्पष्ट की जाएँ और जोखिम प्रबन्धन के प्रमुख कर्ता-धर्ताओं की जिम्मेदारी तय कर दी जाए। लेकिन मात्र कानून बनाकर ही लोगों को इनका पालन करने के लिए समझाया नहीं जा सकेगा। इसके लिए प्रगति पर नजर रखने और परिपालन कराने की जरूरत पड़ेगी।
(लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान में नीति नियोजन एवं सामुदायिक मुद्दों के प्रोफेसर हैं)
ई-मेल : profsantosh@gmail.com
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