विकास : प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल


‘पर्यावरण के सर्वव्यापी और सर्वस्पर्शी दुष्प्रभावों से कोई भी देश या व्यक्ति अछूता नहीं रह सकता। यह एक ऐसी समस्या है, जो देश की सीमाओं को नहीं मानती है। महानगरों सहित छोटे शहरों में भी प्रदूषण का दांव मुँह बाए खड़ा है। ऐसा नहीं कि प्रदूषण की आफ़त अचानक आसमान से आ टपकी हो, बल्कि यह सालों से विकास की आड़ में नजरअन्दाज हो रहे मानवीय क्रियाकलापों के फलस्वरूप उपजी है’-संयुक्त राष्ट्र का आकलन संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक और सामाजिक परिषद के मुताबिक साल 2050 तक दुनिया की क़रीब 70 फीसद जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहने लगेगी और करीब 60 फीसद ज़मीन 2030 तक ही शहरी रूप में विकसित हो जायेगी। दरअसल, आँकड़ों पर नज़र डालें तो कुछ ऐसा ही हाल भारत का भी है।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की वर्तमान जनसंख्या की लगभग 31 फीसद आबादी शहरों में बसती है जबकि ऐसी उम्मीद है कि वर्ष 2030 तक भारत की आबादी का 40 फीसद हिस्सा शहरों में रहेगा।

तकरीबन आधी आबादी छोटे शहरों में रहेगी और हर छोटे शहर की आबादी 5 लाख से लेकर 30 लाख के बीच होगी। तेजी से हो रहे इस शहरीकरण के कारण जलापूर्ति, मल-जल और कचरे का निष्पादन, खुले भू-परिदृश्य स्थलों का अभाव, वायु एवं जल-प्रदूषण, सार्वजनिक परिवहन और अन्य समस्याएँ पहले ही गम्भीर रूप ले चुकी हैं।

पर्यावरण की ये समस्याएँ शहरों के अनियोजित विकास की वजह से पैदा हुई है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति का अत्यधिक दोहन होता है।

विभिन्न शहरी गतिविधियों के लिये भूमि उपयोग की माँग बढ़ती जा रही है, जंगलों को काटा जा रहा है, कृषि योग्य भूमि पर अतिक्रमण किया जा रहा है। हरित भूमि के लगातार कम होने से तत्काल स्वच्छ हवा और बारिश में कमी होती दिखाई दे रही है जबकि जलवायु परिवर्तन धीमे-धीमे अपना असर दिखा रहा है।

भारत के गाँव खाली हो रहे हैं, शहरों में बसने की होड़ है, मज़बूरी या नागरीय जीवन की चकाचौंध का आकर्षण लोगों को खींच रहा है। कुछ सालों तक घरों में बगीचा ,आँगन, मैदान होना बिलकुल सामान्य बात थी, लेकिन आज छोटे शहरों में भी इस प्रकार के अधिकांश घर टूट चुके हैं या तोड़े जा रहे हैं।

हरित क्षेत्र वाले इन घरों की जगह अब अपार्टमेंट और फ्लैटों के ब्लोक्स ने ले ली है। जितनी जगह में 1 परिवार रहता था वहाँ अब दस, बीस या पचास परिवार रहने लगे हैं। यानी अब दस, बीस या पचास गुना ज्यादा पानी की खपत होगी और इतना ही ज्यादा कूड़ा उत्सर्जन होगा। पास की सड़कों पर गाड़ियाँ बढ़ जाएँगी।

हवा की स्वच्छता पर भी प्रतिकूल असर होगा। यह एक घर का उदाहरण था, शहर के बाकी घरों की भी यही नियति है। अब आप भीड़, शोर और प्रदूषण की कल्पना कर सकते हैं।

भारत में आज रियल एस्टेट का कारोबार सबसे ज्यादा फल-फूल रहा है। निजी क्षेत्र में मची होड़ के बीच केन्द्र की स्मार्ट सिटी योजना के तहत 2022 तक सभी को आवास उपलब्ध कराना पर्यावरण की दृष्टि से भी चुनौतीपूर्ण कार्य है क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर निर्माण से प्रदूषण तो होगा ही।

हमारे देश में मास्टर प्लान तो खूब बनते हैं, लेकिन सुनियोजित और सुव्यवस्थित विकास योजना का घोर अभाव है। खासकर नए शहरों की बसावट में। भारत के सारे छोटे शहर या कहें तो महानगरों में बन रहे उपनगर आदि भी बिना किसी ठोस कार्ययोजना के बसते चले जा रहे हैं।

शहर में हरित क्षेत्र रखना, सीवेज की व्यवस्था, घरेलू और औद्योगिक कचरे का रिसाइकिल, पर्यावरण के अनुकूल परिवहन व ऊर्जा, जल स्रोतों का रख-रखाव, कृषि योग्य भूमि का संरक्षण जैसे कुछ अपरिहार्य मुद्दों को नजरअन्दाज कर क्षणिक विकास की ओर हमने एक अन्धी दौड़ लगा दी है।

आज प्रदूषण ने सबसे पहले हमारी ज़मीन की ऊपरी सतह को ज़हरीला बनाया, फिर नदी-नालों को, फिर भूजल को और फिर वायुमण्डल को परिवहन, उद्योग और घरेलू उपयोग में बढ़ते जीवाश्म ईंधन की खपत से सीधे वायु प्रदूषण होता है।

तेजी से बढ़ रहे शहरों के सर्वेक्षण बताते हैं कि यहाँ 60 फीसद लोग अब भी बसों से ही आते जाते हैं, जबकि ये बसें सड़क पर सात फीसद जगह ही घेरती हैं। कारें 75 फीसद जगह घेरती हैं, लेकिन सिर्फ 20 फीसद लोग ही इनका इस्तेमाल करते हैं। आधुनिक तकनीक वाली सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था यहाँ ज्यादा जरूरी है।

ठोस कचरा उत्सर्जन, संग्रह और निष्पादन एक प्रमुख चुनौती है क्योंकि छोटे शहरों में बाहरी सड़कों के किनारे, नदियों के किनारे और तालाबों में हजारों टन ठोस कूड़ा-कचरा गलने के लिये छोड़ दिया जाता है, जो जल और वायु दोनों तरह की प्रदूषण का प्रमुख स्रोत बनता है।

कचरों के वैसे ढेर भी आप देख सकते हैं, जो शहर के बीचों-बीच पहाड़ की तरह सब कुछ निगलने को खड़ा है और उसमें लगी आग से निकला विषैला धुआँ सब कुछ अपने में समा लेना चाहता है।

दूसरी सबसे बड़ी समस्या जल प्रदूषण की है। कारख़ानों और घरों की नालियाँ बड़े नालों से होती हुई नदी और तालाबों में नि:संकोच छोड़ दिया जाता है। छोटे-से-छोटे शहर में भी नदियाँ मर रही हैं।

आज जमीन पर हमने कंक्रीट के जंगल बना लिये हैं। पानी की ज़रूरतों को वाटर प्यूरीफायर्स और सॉफ्टनर्स के ज़रिए पूरा कर लिया। अब समस्या वायु पर आ खड़ी हुई है तो इन दिनों में एयर प्यूरीफायर्स का चलन बढ़ रहा है। लेकिन हम अपनी जीवनशैली में बदलाव नहीं करना चाहते।

पालीथीन की थैलियों, यूज एंड थ्रो वाले प्लास्टिक और पोलिमर उत्पादों, बेवजह हार्न बजाना, सड़कों पर सर्वत्र व्याप्त अतिक्रमण, बात-बात पर पटाखे जलाना, शोर-मचाते डीजे और लाउडस्पीकर का उपयोग हम खुद नहीं रोकना चाहते। यदि सरकार या कोर्ट रोक भी लगाए तो हम पालन नहीं करते और असहयोग और लापरवाही की यह मानसिकता छोटे शहरों में महानगरों के मुकाबले थोड़ी अधिक है।

हम भले आने वाले खतरे से मुँह छुपाए फिरें किन्तु प्रदूषण के दुष्प्रभावों से किसी न किसी रूप में हमें रोज रूबरू होना पड़ता है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने संसद को दी जानकारी में बताया है कि देश में पिछले 3 वर्षो में साँस की बीमारी के कारण 10 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हुई है।

साल 2012 में 3.17 करोड़ लोगों में साँस सम्बन्धी गम्भीर बीमारी के केस सामने आये, जिनमें से 4,155 लोगों की मौत हो गई। 2013 में 3.17 करोड़ मामले सामने आये थे, जिनमें से 3,278 लोगों ने अपनी जान गँवाई जबकि 2014 में 3.48 करोड़ केस सामने आये जिनमें से 2,932 लोगों की मौत हो गई।

इतना ही नहीं, सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड द्वारा जारी नेशनल एयर क्वालिटी इंडेक्स के मुताबिक देश के 17 में से 15 शहरों की हवा तय गुणवत्ता के मानक से काफी कम थी। लखनऊ, अहमदाबाद, जयपुर, पटना और फ़रीदाबाद जैसे शहर भी सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों की सूची में हैं।

जुलाई से नवम्बर के दौरान जयपुर में हवा की गुणवत्ता तय मानक से 100 फीसद कम थी, दिल्ली में यह 93 फीसद, फरीदाबाद में 69 और पटना में 98 फीसद से कम थी। इससे पता चलता है कि महानगर ही नहीं बल्कि छोटे शहरों में भी प्रदूषण का जहर हवा में घुल रहा है।

जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी 91 देशों के कुल 1600 शहरों में प्रदूषण को लेकर किये गए अपने सर्वेक्षण में दिल्ली, पटना, ग्वालियर, रायपुर, अहमदाबाद, लखनऊ, फिरोजाबाद, कानपुर, अमृतसर, लुधियाना, इलाहाबाद, आगरा, खन्ना कुल 13 भारतीय शहरों में शीर्ष 20 की सूची में रखा है।

बहरहाल, प्रदूषण की भयावहता के बीच कुछ अच्छे प्रयासों से विश्वास जग उठता है। ऐसे ही प्रयासों का नजीर बन गया है, ‘भगवान का बगीचा’ नाम से प्रसिद्ध मेघालय में बसा मावल्यान्नांग गाँव। स्थानीय प्रशासन और ग्रामीणों द्वारा प्रदूषण रहित साफ-सुथरा बनाए गए इस गाँव को एशिया का सबसे स्वच्छ और सुन्दर गाँव होने का सम्मान मिला है।

ऐसे उदाहरणों को सामने रखकर हमें समग्र रूप में विकास को प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल बनाकर चलना होगा। अपने शहरों के लिये हमें ऐसे विकास मॉडल को अपनाना होगा, जिसमें ग्रीन तकनीक का इस्तेमाल कर बढ़ते शहरीकरण को टिकाऊ और पर्यावरण अनुकूल बनाया जा सके। विकसित देशों की नकल में हम न्यूयार्क या शंघाई बनाने के बजाय स्वस्थ, सुरक्षित और स्वच्छ पटना,लखनऊ या दिल्ली बनाएँ।

लेखक पर्यावरण मामलों के जानकार हैं।

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