विकास की राख और धुआँ

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फैक्ट्रियों ने जीवन का स्रोत ही नहीं सुखाया बल्कि जमीनों की लूट भी की है। इलाके की गैरमजरूआ जमीन का 75 प्रतिशत फैक्ट्रियों और भू-माफियाओं ने कब्जाया हुआ है।

जब नवम्बर 2017 के मध्य में दिल्ली धुंध और प्रदूषण से बेहाल थी और लगभग 15 दिनों तक यह देश की सबसे बड़ी खबर थी, तब मैं गिरीडीह के चतरो इलाके में था जहाँ पिछले 20 सालों से चौबीसों घंटे धुंध और राख का अंधेरा छाया हुआ है। विकास के नाम पर सिर्फ इंसानों की जिन्दगी ही नहीं जानवरों और पेड़-पौधों की जिन्दगी भी तबाह हो रही है। लेकिन इसे विकास के सूचकांक की तरह देखा जा रहा है।

गिरिडीह शहर के एक तरफ पारसनाथ की जंगलों से भरी हुई पहाड़ियाँ हैं जिसमें धर्म-कर्म से जुड़े व्यवसाय का फैलाव तेजी से बढ़ा है। बिहार से आकर बसे चाय की दुकान चलाने वाले विनय मिश्रा बताते हैं, “पहले यहाँ जैन धर्म के तेरह पंथी, बीस पंथी जैसी धार्मिक धारा की धर्मशालायें थी और पारसनाथ शिखर जी पर मन्दिर थे। 1990 के बाद धर्मशालाओं, मन्दिरों की बाढ़ आ गई है। पहाड़ के अन्दर के गाँवों की जमीनों की बड़ी पैमाने पर खरीदारी हुई है। आदिवासी लोग मजदूर बनते गये। जंगलों की कटाई भी बढ़ गई है। व्यवसाय बढ़ा है लेकिन यहाँ के लोगों का नुकसान भी हुआ है और हो रहा है।” पिछले कुछ सालों से पारसनाथ के जंगलों में आग लगने की घटना तेजी से बढ़ी है।

जंगल विभाग इसकी जिम्मेदारी मूलतः यहाँ के निवासियों पर डालता है। लेकिन सवाल यह है कि यह आग पिछले दस सालों में इतनी तेजी से क्यों बढ़ी है? दूसरा, यह भी कि जिस जंगल पर 30 से अधिक गाँव जिन्दा हैं और उसी में रह रहे हैं, वही लोग उसमें क्यों लगाएँगे? पारसनाथ आदिवासी समुदाय का संगठन ‘मरांगबुरू सोउता सूसार बायसी’ के उपाध्यक्ष बुद्धन हेम्राम का कहना है कि “हम बहुमूल्य पेड़ों को नष्ट करने वाले दोषियों पर कार्यवाही की बात के अलावा यह भी कहना चाहते हैं कि प्रशासन और स्थानीय जनता को इस आग लगने की मसले पर गम्भीरता से विचार करना होगा।”

गिरीडीह शहर का दूसरा और मुख्य पक्ष उद्योग और खदान है। इसके पहाड़ों के नीचे कोयला, बॉक्साइट और माइका जैसे संसाधन भरे हुए हैं। झारखंड के प्राचीनतम आदिवासी समूह लोहा, कोयला जैसे संसाधनों का प्रयोग अच्छी तरह जानते थे। 1856 तक अंग्रेज यहाँ से कोयला निकालने के लिये खदान का काम शुरू कर चुके थे। 1936 में यहाँ कोयला खदान के लिये बकायदा कम्पनी स्थापित की गई और 1956 में सीसीएल यानी केन्द्रीय कोयला खदान लिमिटेड भारत सरकार के दायरे में आ गया। भारत के प्रथम दो कोयला खदानों में से एक गिरिडीह के हिस्से में आया। बॉक्साइट खदान और माइका उद्योग तेजी से फैला। इसी के साथ गिरीडीह शहर का रूप और रंग बदलता गया।

कोयला खदान और माइका उद्योग के लिये ओडिशा, बंगाल, बिहार, यूपी सहित विभिन्न इलाकों से मजदूरों का धौड़ा यानी मुहल्ला बसता गया। शहर के भीतर माइका पर काम करने वाली फैक्ट्री और मजदूरों का जमाव बढ़ता गया। 1980-85 तक यह शहर मजदूर और फैक्ट्रियों से भरा हुआ था। केवल गिरीडीह शहर में उस समय लगभग दो लाख मजदूर थे।

आज भी भारत की सबसे पुराना कोयला खदान इस शहर में जिन्दा है और अनवरत कोयला निकाला जा रहा है। गिरीडीह के बाहरी इलाकों में 1990 के वैश्वीकरण के साथ ही सैकड़ों की संख्या में स्टील, स्पंज आयरन, केबल व इसी तरह की फैक्ट्रियाँ लगीं जिनसे विकास के छतरी के नीचे तबाही का मंजर अब भी अदृश्य बना हुआ है।

गिरीडीह से टुंडी रोड पर चतरो की तरफ बढ़ते ही स्पंज आयरन की कम्पनियाँ धुआँ और राख उगलती दिखाई देती हैं। दिन में अंधेरे का आलम है। 1996-2000 के बीच सबसे अधिक फैक्ट्रियाँ खुलीं। 2006 तक आते-आते यहाँ लगभग 60 फैक्ट्रियाँ खुल चुकी थीं। इस इलाके में पानी का दोहन, प्रदूषण, स्थानीय समुदाय और निवासियों को रोजगार, नदी-नालों को गन्दा करने, स्वास्थ्य और मजदूरों का शोषण-उत्पीड़न की पूरी छूट मिली हुई थी और यह आज भी जारी है।

चतरो और श्रीरामपुर के इलाके में काम कर रही फैक्ट्रियों में ज्यादातर स्पंज आयरन कम्पनियाँ हैं। कुछ सरिया और वायर फैक्ट्रियाँ हैं। पिग आयरन और हार्ड कोक बड़े पैमाने पर उत्पादन करने वाली कम्पनी लाल फेरो एल्वाय प्राइवेट लिमिटेड के इंडक्शन फर्नेश को कम्पनी के भीतर 2009 में लगाने के सन्दर्भ में एनवायरन्मेंटल इम्पैक्ट असेसमेंट और एनवायरन्मेंटल मैनेजमेंट प्लान का जनसुनवाई के आधार पर अन्तिम रिपोर्ट भारत सरकार के वन और पर्यावरण मंत्रालय और झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को 2010 में भेजी गई थी। इस रिपोर्ट ने जंगल, फसल, खेत, सामान्य जनजीवन, स्वास्थ्य, जमीनी पानी, नदी और पोखर, स्वास्थ्य और रोजगार आदि पर प्रदूषण के प्रभाव की चर्चा की है।

2013 में कम्पनी के 12,000 टन पिग आयरन, 15,000 टन हार्ड कोक और 18,000 टन इनगॉट्स के उत्पादन के सन्दर्भ में श्रीरामपुर में जनसुनवाई जिला प्रशासन के अधिकारियों की उपस्थिति में हुई। इस जनसुनवाई में मजदूर यूनियन के एक पदाधिकारी और कुलची के निवासी तुलसी तुरी ने साफ तौर पर कहा “पिछले समय में बहुत से प्रदर्शनों के बावजूद प्रदूषण पर कोई नियंत्रण नहीं किया गया।” गाँव से महज 500 मीटर की दूरी पर होने के बावजूद प्रशासन के पदाधिकारियों ने वादा किया कि धुआँ और शोर के प्रदूषण को रोक लिया जायेगा।

टिकोडीह के राजेन्द्र बायन ने कहा “यहाँ के लोग खेती पर निर्भर हैं। इस कम्पनी से काफी नुकसान होगा।” गाँव के लोगों ने इसी जनसुनवाई के दौरान बताया कि पानी का तल पहले से लगभग 60 फीट नीचे चला गया है। विसवाडीह के राजीव सिन्हा ने बताया कि “प्रदूषण की वजह से लोग जमीन बेचकर यहाँ से जाने के लिये विवश हो रहे हैं। फैक्ट्रियाँ 1000 फीट नीचे से पानी खींचकर निकाल रही हैं।” पिग आयरन और हार्डकोक जैसे उत्पादन के दौरान कार्बन के विविध रूपों का गैस और कचरे का उत्सर्जन बड़े पैमाने पर होता है। इससे मुख्य हिस्सा हवा में लगातार घुलता रहता है। रिपोर्ट के मुताबिक, इससे प्रभावित होने वाले क्षेत्र का दायरा 25 किमी तक का है। लेकिन 10 किमी का दायरा सघन रूप में प्रभावित होता है।

चतरो, श्रीरामपुर के इलाके खेती योग्य हैं। इस क्षेत्र में उसरी नदी-घाटी क्षेत्र महज पाँच-छह किमी के दायरे में आ जाता है। जिस समय यहाँ फैक्ट्रियों के लिये जमीन अधिग्रहण, जनसुनवाई और सरकारी पर्यावरण विभाग से अनुमति हासिल करने की औपचारिकताएँ पूरी की जा रही थीं उस समय तक यहाँ के लोगों का प्रदूषण के खिलाफ आन्दोलन काफी तेज हो चुका था। उपरोक्त जनसुनवाई में किसी ने भी फैक्ट्री लगाने के प्रति पक्षधर रवैया अख्तियार नहीं किया था।

आयरन, स्टील, माइका फैक्ट्रियों, कोल खदानों से भरे गिरीडीह में कोई प्रदूषण बोर्ड नहीं है। क्षेत्र में क्रोनिक ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, न्यूमोनिया, केन्जेक्टिवाइटिस, टीबी, स्क्लेरोसिस जैसी घातक बीमारियों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई है। 2008 में वन विभाग और पर्यावरण विभाग से जुड़े अखिलेश शर्मा के नेतृत्व में सर्वेक्षण के दौरान स्वाति स्पंज और आदर्श फ्यूल कम्पनियाँ प्रदूषण मानक पर खरी नहीं उतरीं।

गिरीडीह वह जगह है जिसकी खूबसूरती से रवीन्द्रनाथ टैगोर अभीभूत थे और उन्होंने इसे दूसरा घर बना लिया था। आज भी उनका घर द्वाशिका भवन बचा हुआ है। लेकिन ‘विकास’ की परिभाषा में यह सब मुद्दा नहीं होता। दो महीने तक लगातार चले ग्रामीणों और जन संगठनों के संगठित विरोध के चलते जुलाई 2009 में चतरो, श्रीरामपुर, मोहनपुर व अन्य इलाकों में चार प्रशासनिक अधिकारियों की टीम ने दौरा किया।

टीम में शामिल उप अधीक्षक वंदना डादेल ने बताया कि “हमने तीन कम्पनियों- अतिबीर, वेंकेटेश्वर और बालमुकुंद प्राइवेट लिमिटेड का दौरा किया। स्थानीय निवासियों ने लगातार शिकायतें रखी हैं कि मोहनपुर में स्पंज आयरन प्लांट्स मानकों का उल्लंघन कर रहे हैं। हमने पाया कि इन प्लांटों में से सात यूनिट में ईएसपी नहीं हैं। हमने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दिया था कि प्रत्येक ईएसपी को एक-दूसरे से जुड़ी व्यवस्था में रखा जाये। लेकिन अतिबीर की दो यूनिटों में ही ईएसपी लगा हुआ था (द टेलीग्राफ, 14 जुलाई 2009)।” जून 2009 में धनबाद स्थित एनजीओ ग्रीन एंड लेवर वेलफेयर की चार सदस्यीय टीम ने चतरो और आस-पास के गाँव का दौरा किया।

एनजीओ के कार्यकारी अध्यक्ष कुमार अर्जुन सिंह के अनुसार “चतरो, महतोडीह, गंगापुर, कलामाझो जामबाद, उदानबाद और अन्य बहुत से गाँव स्पंज आयरन की यूनिटों के वजह से चिन्ताजनक हालात में हैं। इन इलाकों की फैक्ट्रियाँ सारे नियम कानूनों को तोड़ रही हैं। प्रशासन, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और उद्योग विभाग कार्यवाही करने में असफल रहा है।” उसी समय बना एक और संगठन पूर्वांचल पर्यावरण संघर्ष समिति की 11 सदस्यीय टीम ने माँग की कि फैक्ट्रियों में इलेक्ट्रो-स्टेटिक प्रिसिपीटेटर यानी ईएसपी जो राख और धुएँ को साफ करता है को अनिवार्य किया जाये और बिना पंजीकरण के गाँव की जमीनों पर इन कम्पनियों ने जो कब्जा किया है उसे वापस किया जाये। इस टीम ने मोहनपुर में प्रस्तावित लाल फेरो एल्वॉय कम्पनी की पिग, इग्नोट और कोक कम्पनी स्थापित करने का भी विरोध किया। लेकिन हालात में थोड़े समय के लिये कुछ असर दिखा फिर स्थिति बद से बदतर होती गई।

गिरीडीह में एक फसल की खेती मुख्य है और यह लगभग पूरी खेती की जमीन का लगभग 60 प्रतिशत है। मात्र 1.5 प्रतिशत खेती योग्य जमीन पर दो फसल होती है। पिछले कुछ सालों से सब्जी का उत्पादन पर जोर बढ़ा है। पिछले बीस सालों में तीन बार सुखाड़ की स्थिति पैदा हुई। फैक्ट्रियों की वजह से पोखरों के पानी का जल्द सूख जाना, छोटे-छोटे नालों में कचरा बहाने की वजह से पानी का पारम्परिक स्रोत कम होते गये हैं।

महुआ टांड़ के गाँव के लोगों ने बताया कि चतरो और श्रीरामपुर में जब फैक्ट्रियाँ खुल रही थीं तब मालिकों और प्रशासन ने जमीन पर काबिज होते हुए वादा किया था कि यहाँ के गाँव के लोगों को नौकरी दी जायेगी, स्कूल और अस्पताल खुलेंगे और उचित मुआवजा दिया जायेगा। चतरों में ‘मजदूर संगठन समिति’ का कार्यालय है। इस संगठन के कन्हाई पाण्डे बताते हैं कि “ये सिर्फ खोखले वादे थे। यहाँ किसी भी फैक्ट्री में स्थायी मजदूर के रूप में नियुक्ति नहीं की गई। ट्रांसपोर्ट, ढुलाई, लदाई, कचरा छँटाई जैसे काम ही स्थानीय लोगों को दिया जाता है। यह सब कैजुअल मजदूरी है। मजदूर संगठन समिति के आन्दोलनों से ही मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी मिलनी शुरू हुई।”

आज भी फैक्ट्रियों में 70 प्रतिशत मजदूर बाहर के हैं और 30 प्रतिशत स्थानीय हैं। आज चतरो और श्रीरामपुर में कोई अस्पताल नहीं है। गिरीडीह में एक सरकारी अस्पताल है। इन दोनों इलाकों में सर्वाधिक फैक्ट्रियाँ हैं।

चतरो से सटा हुआ एक गाँव महुआ टांड़ के रहने वाले एक मजदूर चंदन टुडु बताते हैं “फैक्ट्री का कचरा एक ट्रक भरने में, लगभग 50-55 टन के एवज में कुल 600 रुपए मिलते हैं और इसमें कुल चार मजदूरों को लगना होता है। यानी लगभग 150 रुपये प्रति मजदूर। यह काम भी अधिक नहीं मिलता।” कन्हाई पांडे बताते हैं “पहले दुर्घटना होने पर फैक्ट्री मालिक घायल या मृत मजदूर को सड़क पर या जंगलों में फेंक आते थे।” मजदूर बताते हैं कि इस तरह की आपराधिक कृत्य के सहयोग में पुलिस भी शामिल रही है।

बाद के समय में लोगों ने एकताबद्ध होकर मालिकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। मजदूरों ने बताया कि 2009 में एक फैक्ट्री में मजदूर की मौत हो गई। पुलिस के सहयोग से उसका अन्तिम दाह संस्कार की तैयारी भी कर ली गई थी। लेकिन मजदूरों ने उन्हें पकड़ लिया और न्याय की लड़ाई में परिवार के लिये कुछ मुआवजा दिला सका। आज इस इलाके में फैक्ट्रियों का उत्पादन बढ़ा है। नई तकनीक आई है लेकिन धुआँ और राख उगलती इन फैक्ट्रियों में सालों पुरानी तकनीक का ही प्रयोग हो रहा है। नई तकनीक अपनाई जाये तो गाँवों और पहाड़ों को राहत मिल सकती है।

25 सालों में इन फैक्ट्रियों ने इस कदर पानी को खींच निकाला है कि आस-पास के 20 किमी के दायरे में पानी हासिल करना मुश्किल होता जा रहा है। फुलची गाँव के तुलसी तुरी बताते हैं कि “तालाब गर्मी के आने के पहले ही सूख जाते हैं। चापाकल के लिये बहुत गहरे 100 फीट पाइप डालना होता है। जबकि पहले 20 से 25 फीट गहरे पानी मिल जाता था। अब कपड़ा धोने, नहाने के लिये कई किमी दूर उसरी नदी पर जाना होता है। पीने के पानी के लिये काफी दूर जाना होता है।”

फैक्ट्रियों ने यहाँ सिर्फ जीवन का स्रोत ही नहीं सुखाया है बल्कि जमीनों की लूट भी की है। लालपुर नदी काले बहते नाले में बदल गई है। झिरिया गाँव के राजेन्द्र कॉल बताते हैं “इस इलाके की गैरमजरूआ जमीन का 75 प्रतिशत फैक्ट्रियों और भू माफियाओं ने कब्जाया हुआ है।” गंगापुर गाँव के कालीचरन सोरेन बताते हैं “1994-95 की बात है, दलालों के माध्यम से जमीनों की लूट हुई। 15,000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से जमीन ली गई और वादा किया गया कि स्कूल और अस्पताल खुलेंगे, रोजगार मिलेगा लेकिन कुछ नहीं हुआ।”

यहाँ के गाँव बीमारियों की जद में आ चुके हैं। महुआ टांड़ गाँव में दो ऐसे बच्चों का जन्म हुआ है जिसमें से एक की आँख विकृत और दूसरे की जीभ नहीं है। गंगापुर गाँव में एक बच्चे का जन्म से एक हाथ नहीं है जबकि दूसरे बच्चे का पैर टेढ़ा-मेढ़ा है। महुआ टांड गाँव के लोगों ने प्रदूषण को रोकने के लिये 2009 में हुए विधानसभा चुनाव का बहिष्कार किया लेकिन किसी ने भी कार्रवाई नहीं की।

आज जब दिल्ली का प्रदूषण राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बन चुका है। कुल मौतों का 30 प्रतिशत कारण प्रदूषण है और सर्वोच्च न्यायालय 2008 के पर्यावरण के मानकों पर पुनर्विचार करने के लिये नई कमेटी गठित करने का आदेश दे चुका है, तब निश्चय ही यह जिम्मेदारी बनती है गिरीडीह और ऐसे ही शहर, गाँव के लोगों को जिन्दा रहने के अधिकार पर बात हो। साथ ही मौत का साया बन चुकी धुंध, धूल, धुआँ और कचरा फेंक रही फैक्ट्रियों पर अंकुश लगाया जाये।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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