विकास की बली चढ़ते प्राकृतिक संसाधन

विकास की गति ने इस प्राकृतिक एवं परम्परागत व्यवस्था को बदल दिया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राज्य सरकार सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताकर स्वयं को उसका स्वामी मानने लगा। इस बात को स्वीकार करते हुये राज्य ‘समाज के हित’ एवं विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार एवं उपयोग के कानून बनाता है। पिछले कुछ वर्षों में राज्य की ओर से अनेक ऐसे कानून बने एवं वर्तमान में भी बनाने के प्रयास हो रहे हैं जिससे किसान, खेती की ज़मीन, वन वनवासी की जीविका और सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन प्रभावित होता है। प्राकृतिक संसाधन (धरती, जल, हवा, खनिज आदि) मानव निर्मित नहीं हैं। लेकिन मानव सहित अन्य प्राणी अपनी जीविका एवं जीवन के लिये प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करते हैं। उपयोेेेग की यह व्यवस्था आदिकाल से चली आ रही है। मनुष्य ऐसा प्राणी है जो इन संसाधनों का उपयोग केवल जीविका के लिये ही नहीं करता बल्कि इसका असीमित शोषण, दोहन अपने स्वार्थ एवं असीमित इच्छा के लिये करता है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये उस पर अधिकार व स्वामित्व स्थापित करता है।

सार रूप में कहें तो जमींदार, राजा, राज्य आदि की व्यवस्था इसी के विभिन्न रूप हैं। समाज व्यवस्था में परिर्वतन के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के ‘स्वामित्व’ के स्वरूप में भी बदलाव आता गया। इस प्रश्न को यहीं छोड़ते हुए आज की स्थिति को देखें तो हम पाते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों पर राज्य (सरकार) अपना अधिकार मानता है। परन्तु व्यवहार में इसका उपयोग करने वालों की स्थिति भिन्न है।

अपने देश में खेती की ज़मीन पर किसान खेती करता है और उस पर उसका अधिकार माना जाता है। वन क्षेत्र के निवासियों का ज़मीन एवं वन पर अधिकार रहा है और उसी का अधिकार है, ऐसी व्यवस्था रही है।

विकास की गति ने इस प्राकृतिक एवं परम्परागत व्यवस्था को बदल दिया है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राज्य (सरकार) सभी प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताकर स्वयं को उसका स्वामी मानने लगा। इस बात को स्वीकार करते हुये राज्य ‘समाज के हित’ एवं विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार एवं उपयोग के कानून बनाता है।

पिछले कुछ वर्षों में राज्य (सरकार) की ओर से अनेक ऐसे कानून बने एवं वर्तमान में भी बनाने के प्रयास हो रहे हैं जिससे किसान, खेती की ज़मीन, वन वनवासी की जीविका और सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन प्रभावित होता है।

भूमि अधिग्रहण कानून, सबसे पहले सन् 1894 में ब्रिटिश सरकार द्वारा उस समय की परिस्थिति एवं सरकार की सोच के अनुसार बने थे। पिछले वर्षों में (2013 में) पुराने कानून में दो वर्ष तक व्यापक विचार विमर्श एवं आन्दोलन को ध्यान में रखते हुए कानून में संशोधन किया गया।

इस कानून में वन क्षेत्र वन में रहने वालों को अधिकार देने के साथ-साथ जिसकी ज़मीन है उसकी स्वीकृति, अदालत में जाने की छूट, खाद्य सुरक्षा (खेती), अधिग्रहण का प्रभाव आदि मुद्दे शामिल किए गए। इस प्रकार राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने के बाद वह कानून बना था।

पिछले आम चुनाव के बाद एनडीए की नई सरकार बनी और उसने वर्ष 2013 में स्वीकृत भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करने का निर्णय लिया। सरकार ने संशोधन को इतना आवश्यक समझा कि अध्यादेश के माध्यम से संशोधन को लागू कर दिया। यह कार्य इस विश्वास से किया कि इसे उसी रूप में दोनों सदनों में स्वीकृत करा लिया जाएगा। मन्त्री एवं प्रधानमन्त्री ने इसे किसान एवं समाज हित में बताया तथा लाभकारी कहा, इस संशोधनोें के मामला भी है।

धारा 309 को हटाने के बारे में 22 राज्यों और चार केन्द्र शासित प्रदेशों ने अपनी सहमति जताई है। भारतीय विधि आयोग ने सन् 1971 में अपनी 42वीं रिपोर्ट में भी सरकार को इसे खत्म करने की सिफारिश की थी। सन् 1978 में राज्यसभा ने इसे पारित भी कर दिया था। लेकिन इससे पहले कि लोकसभा इसे स्वीकार कर पाती लोकसभा ही भंग हो गई। बाद में सन् 1997 में आयोग ने अपनी 158वीं रिपोर्ट में भी ऐसा किए जाने की सिफारिश की।

कुछ लाभ भी गिनाए। परन्तु पूरे देश में नए कानून का विरोध चल रहा है। सामाजिक संस्थाएँ, किसान संगठन, जागरूक नागरिक एवं राजनैतिक दल अपने-अपने स्तर पर इसका विरोध कर रहे हैं।

परिणामस्वरूप अभी तक नया कानून लोकसभा में पारित हो जाने के बावजूद राज्यसभा में प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। सत्ता पक्ष इसके लाभों के बारे में योजनाबद्ध तरीके से जानकारी दे रहा हैं।

इस सम्बन्ध में ‘जनसत्ता’ के 6 अप्रैल 2015 सम्पादकीय को याद करना उचित होगा। सम्पादक का कहना है कि ‘भूमि अधिग्रहण कानून 2013’ को बदलने की माँग किसानों की तरफ से नहीं आई थी। यह माँग कम्पनियों की तरफ से आई थी।

प्रधानमन्त्री मोदी ने कहा था कि किसानों की राय ली जाएगी। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। इस प्रकार सामाजिक प्रभाव आकलन पर भी विचार नहीं किया गया। अन्ना हजारे इस बिल को किसानों को भ्रमित करने वाला मानते हैं। सामाजिक संस्थाएँ एवं व्यक्ति भी नए कानून में व्यापक संशोधन आवश्यक मानते हैं। उपरोक्त सन्दर्भ का ध्यान में रखते हुुए कुछ विचारणीय मुद्दे सामने आते हैं जिनका उल्लेख समाचार पत्रों में भी पढ़ने में आए हैं। उनमें से कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं।

1. जिसकी ज़मीन का अधिग्रहण किया जाता है उससे स्वीकृति लेने का प्रावधान नहीं है।
2. अधिग्रहण की गई ज़मीन के विरुद्ध न्यायालय में नहीं जाया जा सकता है।
3. सरकार समाजहित में ज़मीन का अधिग्रहण कर सकती है। परन्तु कौन सा काम ‘समाजहित’ में है इसका विवरण नहीं दिया गया है।
4. कृषि भूमि का भी अधिग्रहण किया जाएगा। इससे उत्पादन प्रभावित होगा।
5. कॉरिडोर परियोजना में सड़क के दोनों ओर 1-1 कि.मी. ज़मीन औद्योगिक उपयोग के लिये अधिग्रहित की जा सकेगी। इससे खेती की ज़मीन एवं गाँव का बसावट प्रभावित होगी। पैदावार घटेगी और विस्थापन बढ़ेगा।
6. अधिग्रहण के सामाजिक प्रभाव का आकलन महत्वपूर्ण है, कानून में इस प्रावधान को नहीं रखा गया है।
‘सामाजिक प्रभाव आकलन’ नहीं होने, कृषि भूमि का अधिग्रहण करने आदि कारणों से युवा बेरोज़गारी बढ़ेगी। औद्योगिक क्षेत्र में ग्रामीण युवक कम पढ़े युवकों की अपेक्षा पूरी नहीं होने की स्थिति बनने की सम्भावना है। विस्थापन की समस्या बढ़ने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसका व्यावहारिक परिणाम बड़ी कम्पनियों का हित (लाभ) एवं ग्रामीणों, छोटे एवं गृह उद्योगों का अहित होगा जिससे आज भी ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार एवं आय प्राप्त होती है।

लेखक : डॉ. अवध प्रसाद कुमारप्पा ग्रामस्वराज संस्थान, जयपुर के निदेशक हैं।

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