पूरे देश में रोजगार गारंटी की चर्चाएँ जोरों पर हैं। इस गाँव में भी लोगों के जॉब कार्ड तो हैं लेकिन वे पिछले तीन सालों से कोरे पड़े व्यवस्था को और ‘काम के अधिकार’ को चिढ़ा रहे हैं। यहाँ पर आज भी बिजली नहीं है, लोग इस बात से आस बँधा रहे हैं कि खम्भे तो आ गए हैं । पिछले 25 वर्षों में दूसरों को बिजली देने के कारण डूबे इन गाँवों में आज भी अन्धेरा है। यहाँ पर आजीविका का कोई साधन नहीं है, लोग पलायन पर जा रहे हैं। यदि मजदूरी पर जाना भी है तो लोगों को 20 रुपए पहले अपने खर्च करने पड़ते हैं, महिलाओं के पास तो पिछले 25 वर्षाें से घर काम के अलावा कोई काम ही नहीं हैं और यही कारण है कि नवयुवकों ने यहाँ से बाहर निकलने के लिये कलेक्टर को पत्र लिखा है। लोग इतने हताश हैं कि रछछू कहते हैं कि सरकार ने हमें डुबा तो दिया है, बस अब एक परमाणु बम और छोड़ दे तो हमारी यहीं समाधि बन जाये। तभी तो है यह विकास के विनाश का टापू।
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बढ़ैयाखेड़ा इसलिये विशिष्ट हो जाता है क्योंकि इसके तीन ओर से रानी अवंती बाई परियोजना के अन्तर्गत बरगी बाँध का पानी भरा है और एक ओर है जंगल। यानी यह एक टापू है । एक ऐसा टापू जिससे जीवन की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी कम-से-कम 10 किलोमीटर जाना होगा और वह भी नाव से। कोई सड़क नहीं। पानी जो भरा है वहाँ पर। अगर किसी को दिल को दौरा भी पड़ जाये और यदि उसे जीना है तो उसे अपने दिल को कम-से-कम तीन घंटे तो धड़काना ही होगा, तब कहीं जाकर उसे बरगीनगर में न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधा नसीब हो पाएगी। और वो भी तत्काल किश्ती मिलने पर। सोसाइटी (राशन दुकान) से राशन लाना है तो भी किश्ती और हाट-बाजार करना है तो भी किश्ती। यानी किश्ती के सहारे चल रहा है जीवन इनका। कहीं भी जाओ, एक तरफ का 10 रुपया।
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ज्ञात हो कि रानी अवंतीबाई परियोजना अन्तर्गत नर्मदा नदी पर बने सबसे पहले विशाल बाँध बरगी से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर जिले के 162 गाँव प्रभावित हुए हैं और जिनमें से 82 गाँव पूर्णतः डूबे हुए हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक लगभग 7000 विस्थापित परिवार हैं, इनमें से 43 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य हैं। जबकि बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ की मानें तो 10 से 12 हजार परिवार विस्थापित हैं। दशरु का बढ़ैयाखेड़ा भी जबलपुर जिले का पूर्ण डूब का गाँव है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार यहाँ पर 25 परिवार हैं परन्तु अब यहाँ पर 42 परिवार हैं।
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सरकारी रिपोर्ट की ही मानें तो विस्थापन के बाद से परिवारों का मुख्य व्यवसाय कृषि के स्थान पर मजदूरी रह गया है।
1 कृषि, बाँस के सामान, किराना, लुहारगिरी जैसे व्यवसायों में गिरावट आई है जबकि मजदूरी, मत्स्याखेट, सब्जीभाजी, पशुपालन आदि में लोग संलग्न हैं। मजदूरी में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। इसका असर इस गाँव में भी देखने को मिलता है। इस गाँव के 80 प्रतिशत लोग पलायन पर गए हैं। कोई जबलपुर में निर्माण मजदूरी कर रहा है तो कोई नरसिंहपुर में खेती की मजूरी करने गया है। इस गाँव के नवयुवक अभी बाणसागर, खुडिया डैम में मछली मारने गए हैं। तीन से चार महीने मारेंगे। इस गाँव में क्यों नहीं मारते हैं मछली? तो रछछू बरऊआ बीच में ही बात काटते हुए कहते हैं कि यहां रहेंगे तो भूखे मर जाएँगे? एक तो मछली कम है और दूसरा ठेकेदार रेट भी नहीं दे रहा है। 18 रुपया किलो बिकती है जबकि शहर में यह दस गुना ज्यादा बिकती है। यानी हमें तो छैहर (मछली के ऊपर का छिलका) तक के पैसे नहीं मिल रहे हैं। जबकि मेहनत पूरी हमारी।
इसी गाँव के सुनील की उम्र 30 हो रही है लेकिन उसकी शादी नहीं हो रही है। लड़की वाले कहते हैं कि हम अपनी लड़की को यहाँ मरने के लिये क्यों छोड़ें? और फिर हमारे पास है ही क्या? एक-दो साल कोशिश और कर लेते हैं, कुछ हो गया तो ठीक।
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Post By: Editorial Team