पूरे देश में रोजगार गारंटी की चर्चाएँ जोरों पर हैं। इस गाँव में भी लोगों के जॉब कार्ड तो हैं लेकिन वे पिछले तीन सालों से कोरे पड़े व्यवस्था को और ‘काम के अधिकार’ को चिढ़ा रहे हैं। यहाँ पर आज भी बिजली नहीं है, लोग इस बात से आस बँधा रहे हैं कि खम्भे तो आ गए हैं । पिछले 25 वर्षों में दूसरों को बिजली देने के कारण डूबे इन गाँवों में आज भी अन्धेरा है। यहाँ पर आजीविका का कोई साधन नहीं है, लोग पलायन पर जा रहे हैं। यदि मजदूरी पर जाना भी है तो लोगों को 20 रुपए पहले अपने खर्च करने पड़ते हैं, महिलाओं के पास तो पिछले 25 वर्षाें से घर काम के अलावा कोई काम ही नहीं हैं और यही कारण है कि नवयुवकों ने यहाँ से बाहर निकलने के लिये कलेक्टर को पत्र लिखा है। लोग इतने हताश हैं कि रछछू कहते हैं कि सरकार ने हमें डुबा तो दिया है, बस अब एक परमाणु बम और छोड़ दे तो हमारी यहीं समाधि बन जाये। तभी तो है यह विकास के विनाश का टापू।
साहब, इन्दिरा गाँधी के कहने पर बसे थे जहाँ पर!! अब आप ही बताओ कि देश का प्रधानमंत्री आपसे कहे कि ऊँची जगह पर बस जाओ, तो बताओ कि आप मानते कि नहीं!!! हमने हाँ में जवाब दिया जो उन्होंने कहा कि हमने भी तो यही किया। उनकी बात मान ली तो आज यहाँ पड़े हैं। इन्दिरा जी बरगीनगर आईं थीं और उन्होंने खुद आमसभा में कहा था। श्रीमति गाँधी ने यह भी कहा था कि सभी परिवारों को पाँच-पाँच एकड़ जमीन और एक-एक जन को नौकरी भी देंगे। अब वे तो गईं ऊपरे और उनकी फोटो लटकी है, अब समझ में नहीं आये कि कौन से सवाल करेें? का उनसे, का उनकी फोटो से, का जा सरकार से?? सरकार भी सरकार है, वोट लेवे की दान (बारी) तो भैया, दादा करती है और बाद में सब भूल जाते हैं। फिर थोड़ा रुक-कर कहते हैं पंजा और फूल, सबई तो गए भूल।। यह व्यथा है जबलपुर जिले की मगरधा पंचायत के बढ़ैयाखेड़ा गाँव के दशरु/मिठ्ठू आदिवासी की।
बढ़ैयाखेड़ा इसलिये विशिष्ट हो जाता है क्योंकि इसके तीन ओर से रानी अवंती बाई परियोजना के अन्तर्गत बरगी बाँध का पानी भरा है और एक ओर है जंगल। यानी यह एक टापू है । एक ऐसा टापू जिससे जीवन की न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिये भी कम-से-कम 10 किलोमीटर जाना होगा और वह भी नाव से। कोई सड़क नहीं। पानी जो भरा है वहाँ पर। अगर किसी को दिल को दौरा भी पड़ जाये और यदि उसे जीना है तो उसे अपने दिल को कम-से-कम तीन घंटे तो धड़काना ही होगा, तब कहीं जाकर उसे बरगीनगर में न्यूनतम स्वास्थ्य सुविधा नसीब हो पाएगी। और वो भी तत्काल किश्ती मिलने पर। सोसाइटी (राशन दुकान) से राशन लाना है तो भी किश्ती और हाट-बाजार करना है तो भी किश्ती। यानी किश्ती के सहारे चल रहा है जीवन इनका। कहीं भी जाओ, एक तरफ का 10 रुपया।
दशरु कहते हैं पहले अपनी खेती थी तो ठाठ से रहते थे। क्या नहीं था हमारे पास। मेरी 10 एकड़ जमीन थी, मकान था, महुए के 15 पेड़, आम के 2 पेड़, सागौन के 5 पेड़, 18 मवेशी थे। दो फसल लेते थे। जुवार, बाजरा, मक्का, तिली, कोदो, कुटकी, धान, समा, उड़द, मूँग, राहर, अलसी, गेहूँ, चना, सरसों, बटरा और सब्जी भाजी जैसी कई चीजें। नमक ओर गुड़ के अलावा कभी कुछ नहीं लिया बाजार से हमने। तेल तक अपना पिरवा लेते थे हम। अब इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि शिवरात्रि पर भोले को चढ़ने वाली गेहूँ की बाली भी दूसरे गाँव से लाते हैं! पहले चना महुआ का तो भोजन था साहब! पर आज तो सोसाइटी से 20 किलो लात हैं और आधो-दूधो (आधे पेट) खात हैं। उसमें भी आने-जाने के किश्ती से 20 रुपए लगते हैं और कहीं उस दिन दुकान नहीं खुली तो राम-राम।
ज्ञात हो कि रानी अवंतीबाई परियोजना अन्तर्गत नर्मदा नदी पर बने सबसे पहले विशाल बाँध बरगी से मंडला, सिवनी एवं जबलपुर जिले के 162 गाँव प्रभावित हुए हैं और जिनमें से 82 गाँव पूर्णतः डूबे हुए हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक लगभग 7000 विस्थापित परिवार हैं, इनमें से 43 प्रतिशत आदिवासी, 12 प्रतिशत दलित, 38 प्रतिशत पिछड़ी जाति एवं 7 प्रतिशत अन्य हैं। जबकि बरगी बाँध विस्थापित एवं प्रभावित संघ की मानें तो 10 से 12 हजार परिवार विस्थापित हैं। दशरु का बढ़ैयाखेड़ा भी जबलपुर जिले का पूर्ण डूब का गाँव है। सरकारी आँकड़ों के अनुसार यहाँ पर 25 परिवार हैं परन्तु अब यहाँ पर 42 परिवार हैं।
माहू ढीमर, जो अपने आपको गाँव का कोटवार मानते हैं, बताते हैं कि हमारे गाँव का खेती की जमीन का रकबा 1600 एकड़ का था और अब तो चारों तरफ मैया-ही-मैया है यानी पानी-ही-पानी है। हमारे जंगल कहाँ गए? पानी की ओर इशारा करते हैं और कहते हैं कि यहीं नीचे ही हैं। हम तो वो दवाई भी भूल ही गए जो जंगल से मिलती थी। अपना इलाज खुद करना जानते हैं। पहले नीचे पाँचवीं तक का स्कूल था। हम 1986 में यहाँ आये और उसके बाद 10 साल यहाँ कोई स्कूल नहीं था । 1997 से यहाँ पर स्कूल बना, लेकिन इस 10 साल में तो हमारी एक पीढ़ी का भविष्य दाँव पर लग गया? आँगनबाड़ी भी बहुत बाद में बनी और वह भी ना के बराबर ही है। कभी खुलती है तो कभी नहीं। आवागमन के साधन के अभाव में जननी सुरक्षा योजना से लाभ मिलने का प्रश्न गैर वाजिब ही था लेकिन लोगों से पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारे यहाँ सभी प्रसव घरों में ही होते हैं ओर दाई के ना होने के कारण स्थानीय महिलाएँ ही कराती हैं। ऐसे में राष्ट्रीय मातृत्व सहायता योजना का नाम आता है तो इससे लाभ लेने का प्रतिशत भी शून्य ही है।
सरकारी रिपोर्ट की ही मानें तो विस्थापन के बाद से परिवारों का मुख्य व्यवसाय कृषि के स्थान पर मजदूरी रह गया है।
1 कृषि, बाँस के सामान, किराना, लुहारगिरी जैसे व्यवसायों में गिरावट आई है जबकि मजदूरी, मत्स्याखेट, सब्जीभाजी, पशुपालन आदि में लोग संलग्न हैं। मजदूरी में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी हुई है। इसका असर इस गाँव में भी देखने को मिलता है। इस गाँव के 80 प्रतिशत लोग पलायन पर गए हैं। कोई जबलपुर में निर्माण मजदूरी कर रहा है तो कोई नरसिंहपुर में खेती की मजूरी करने गया है। इस गाँव के नवयुवक अभी बाणसागर, खुडिया डैम में मछली मारने गए हैं। तीन से चार महीने मारेंगे। इस गाँव में क्यों नहीं मारते हैं मछली? तो रछछू बरऊआ बीच में ही बात काटते हुए कहते हैं कि यहां रहेंगे तो भूखे मर जाएँगे? एक तो मछली कम है और दूसरा ठेकेदार रेट भी नहीं दे रहा है। 18 रुपया किलो बिकती है जबकि शहर में यह दस गुना ज्यादा बिकती है। यानी हमें तो छैहर (मछली के ऊपर का छिलका) तक के पैसे नहीं मिल रहे हैं। जबकि मेहनत पूरी हमारी।
इसी गाँव के सुनील की उम्र 30 हो रही है लेकिन उसकी शादी नहीं हो रही है। लड़की वाले कहते हैं कि हम अपनी लड़की को यहाँ मरने के लिये क्यों छोड़ें? और फिर हमारे पास है ही क्या? एक-दो साल कोशिश और कर लेते हैं, कुछ हो गया तो ठीक।
सरकार की तरफ से कोई परिवहन की व्यवस्था नहीं की गई क्या? या सरकार से आप लोगों ने माँग नहीं की क्या? इस पर वे कहते हैं कि हमें तो अलग-अलग लोगों ने लूटा। पिछली साल कलेक्टर राव आये थे और उन्होंने कहा था कि तीन किश्ती लाई जाएँगी जो तीन गाँवों के लिये होंगी। समिति के माध्यम से वह चलाई जाएँगी। फिर सभी हँसते हैं और कहते हैं कि समिति तो बन गई थी पर राव साहब ही चले गए। और आज तक नहीं आई किश्ती। यदि हम कलेक्टर की बातों में आ जाते और हमारे गाँव की किश्ती नहीं हो तो हम तो यहीं मर जाते!
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Post By: Editorial Team