जलवायु परिवर्तन के खिलाफ विश्व के तमाम देशों का जमावड़ा एक बार फिर से पेरिस में हुआ है। इस सम्मेलन में 150 देशों के प्रतिनिधि भाग ले रहे हैं, जिनका मुख्य धेय जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के रास्ते तलाशना है। इस दौरान एक बड़ी सफलता मिली है और करीब 122 देशों के साथ अन्तरराष्ट्रीय सौर गठबंधन बना है। यह एक अन्तरराष्ट्रीय मंच होगा, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक सबको किफायती ऊर्जा प्रदान करना होगा। इस बार भारत ने जलवायु परिवर्तन पर अपनी प्रतिबद्धता जताई है और विश्व के अन्य देश भी इस दिशा में बेहतर प्रयास कर रहे हैं।
हालाँकि इस बार का यह सम्मेलन ऐसे दौर में हो रहा है, जब जलवायु परिवर्तन की यह वैश्विक समस्या अलार्मिंग स्थिति में है, क्योंकि लगातार अनियन्त्रित मानवीय हस्तक्षेप ने पर्यावरण को संकट की स्थिति में पहुँचा दिया है। प्रकृति का विनाश कर हम लगातार अपनी सफलता का उत्सव मनाते जा रहे हैं। हम यह बिल्कुल नहीं सोच रहे कि पर्यावरण का संकट खुद मानव के अस्तित्व के लिये संकट है। पर्यावरण की समस्या एक वैश्विक समस्या बन चुकी है। परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसके प्रति खोखले सम्मेलनों व वार्ताओं के अलावा कोई सार्थक पहल नहीं दिखती है। इसमें कोई शक नहीं कि विकास के नशे में चूर मानव अपने अस्तित्व पर संकट पैदा कर चुका है।
विकास से निकले अपशिष्ट को ग्रहण करते-करते पर्यावरण विनाश के अन्तिम सिरे पर पहुँच गया है। यह केवल मानव स्वास्थ्य के लिये ही क्षतिकारक नहीं है, बल्कि वर्तमान में आर्थिक आधार पर भी यह वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिये संकट बनता जा रहा है। कुछ ही दिन पहले एशियाई विकास बैंक की ‘असेसिंग द कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट चेंज एंड एडाप्टेशन इन साउथ एशिया’ की रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से पैदा होते आर्थिक संकट को उजागर किया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि यदि मौजूदा जलवायु परिवर्तन के खतरे के बावजूद वैश्विक व्यवहार में परिवर्तन नहीं आता है तो भारत समेत उसके पड़ोसी देशों की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा।
रिपोर्ट में अनुमान व्यक्त किया गया कि इसकी वजह से 2050 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद को वार्षिक रूप से औसतन 1.8 फीसदी की आर्थिक क्षति होगी। अन्य पड़ोसी देशों को भी लगभग इतनी ही आर्थिक हानि उठानी पड़ेगी। साथ ही यदि वर्ष 2100 तक हम वार्षिक तापमान वृद्धि में 2 प्रतिशत की कमी कर लेते हैं तो यह क्षति दर दो प्रतिशत से कम हो सकेगी। रिपोर्ट में आगे बताया गया था कि यदि विश्व के विकास की रफ्तार मौजूदा स्तर पर रही तो जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिये दक्षिण एशिया में अभी से लेकर वर्ष 2100 तक प्रतिवर्ष करीब 73 अरब डॉलर यानी औसतन सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.86 प्रतिशत राशि व्यय करनी होगी।
इसके अतिरिक्त यदि हम अपने सचेत प्रयासों के कारण वैश्विक ताप वृद्धि में ढाई डिग्री सेल्सियस की कमी कर लें तो इसके प्रभाव से बचाव के लिए खर्च करने वाली राशि कम होकर 40.6 अरब डॉलर तक ही होगी जो कि सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.48 प्रतिशत होगा। रिपोर्ट के आर्थिक आयामों के साथ यदि हम सम्पूर्ण मानवीय क्रियाकलापों पर नजर डालें तो आज पर्यावरण संकट की जो सबसे गम्भीर चुनौती है, वह है वैश्विक जलवायु परिवर्तन। आज वैश्विक तापमान में प्रति दशक लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है।
19वीं शताब्दी से अब तक इस तापमान में काफी वृद्धि दर्ज की जा चुकी है। मानव बिना सोचे समझे जिस प्रकार पर्यावरण को प्रदूषित करता जा रहा है, इसका दुष्परिणाम हमें कई रूपों में देखने को मिला है। इस प्रकार की मानवीय प्रवृत्ति यदि लगातार बनी रहती है तो हमें सूखा पड़ने, वनों के सूखने, धरती में दरारें पड़ने, वन्य प्राणियों के नष्ट होने, ध्रुवीय बर्फ के पिघलने, समुद्री जल स्तर बढ़ने आदि की गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ सकता है। समुद्र के जल स्तर में बढ़ोत्तरी से कई देश तो जलसमाधि तक ले सकते हैं। अभी हम खाद्य संकट की स्थिति से जूझ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन का असर हमें फसलों की उत्पादकता पर भी देखने को मिल रहा है और आगे इससे भी अधिक देखने को मिलेगा।
पृथ्वी पर प्रयोग किए जा रहे विनाशकारी रसायनों और कई तरह से उत्सर्जित गैसों से ओजोन परत का भी निरन्तर क्षय होता जा रहा है। ओजोन परत सूर्य से आने वाली पराबैगनी किरणों को रोकने का काम करती है, जिससे पृथ्वी इसके विनाशकारी प्रभाव से बच जाती है। पृथ्वी के ऊपर विशेष कर मध्य व उच्च अक्षांशों में 25 किलोमीटर से कम ऊँचाई पर स्थित ओजोन परत की मोटाई लगभग 10 प्रतिशत प्रति दशक की दर से घटती जा रही है। समझा जाता है कि ओजोन परत में एक प्रतिशत के हृास से त्वचा कैंसर के मरीजों की संख्या एक से तीन प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इस तरह से पिछले एक दशक में यह संख्या बढ़ कर 50 प्रतिशत तक पहुँच गई है। जलवायु का गर्म होना ही केवल अकेले पर्यावरण की समस्या नहीं है।
पृथ्वी और हमारा पर्यावरण तभी तक बचा रह सकता है, जब तक कि इस पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन और पारिस्थितिकी तंत्र अपने मूल स्वरूप में सुचारू रूप से बने रहेंगे। वर्तमान में हमारा पर्यावरण वायु, ध्वनि, जल, मृदा आदि कई तरह के प्रदूषण से संकट की स्थिति में पहुँच चुका है। जल संकट की स्थिति के साथ-साथ जल प्रदूषण की स्थिति से भी समस्या और जटिल हो चुकी है। पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का केवल 0.8 प्रतिशत जल ही मानव के पीने योग्य है, वह भी प्रदूषित होता जा रहा है। जंगलों की संख्या में तीव्र हृास होने से भी पर्यावरणीय संकट पैदा हुए हैं। इसके अलावा मृदा प्रदूषण की स्थिति भी विकराल रूप लेती जा रही है। इन स्थितियों के बीच हम यह कैसे कह सकते हैं कि पर्यावरण और मानव अस्तित्व सुरक्षित है।
ध्यान देने योग्य है कि विश्व की कई सभ्यताएँ पर्यावरण में असन्तुलित मानवीय हस्तक्षेप से समाप्त तक हो चुकी हैं। इतिहास में ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत की प्राचीन सभ्यता हड़प्पा सभ्यता इसी तरह की समस्या से समाप्त तक हो गई। पृथ्वी पर बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तनों के कुप्रभाव से बचने के उपायों पर विचार करने के लिये 1997 में जापान के क्योटो में विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिक एकत्र हुए। उन्होंने पृथ्वी पर बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया। इस बैठक को क्योटो प्रोटोकॉल नाम दिया गया, जोकि एक अन्तरराष्ट्रीय समझौता का रूप धारण कर लिया। इसके तहत यह निर्धारित किया गया कि सभी औद्योगीकृत देश अपने यहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा में कटौती करेंगे। यूनाईटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज ने भी जलवायु संकट को रोकने हेतु व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
भारत के सन्दर्भ में देखें तो यहाँ पर्यावरण संकट के लिये कई तरह से व्यापक उपाय व योजनाएँ लागू की गई हैं। 12वीं पंचवर्षीय योजना के तहत इसके प्रति एक अलग अध्याय ही जोड़ दिया गया था। 4 जून, 2011 को भारत सरकार ने हरित मिशन योजना की शुरुआत की थी। इस योजना के तहत 4.60 खरब रुपए का बजटीय प्रावधान किया गया था। इसके अलावा पर्यावरण के प्रति आम जनता में जागरूकता हेतु वर्ष 2008 को पृथ्वी गृह का अन्तरराष्ट्रीय वर्ष घोषित किया गया था, जिसके दौरान कई तरह की गतिविधियाँ आयोजित की गईं। इसके अलावा भी देशभर में वृहद स्तर पर मनरेगा के तहत वृक्षारोपण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।
पर्यावरणीय चिन्ताएँ अकेले किसी देश की समस्या नहीं हैं और न ही कोई अकेला देश इस समस्या से निपटने हेतु उपाय कर सकता है। वैश्विक समुदाय को पर्यावरण संकट के लिये जिम्मेदार माना जाता है और यह वैश्विक समुदाय की ही नैतिक जिम्मेदारी है कि वे मिलजुलकर इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशें और योजनाओं को क्रियान्वित करें। दुर्भाग्य से पर्यावरण सुरक्षा पर आयोजित किसी भी वैश्विक सम्मेलन और वार्ताओं के दौरान इसके लिये ईमानदार प्रयत्न नहीं दिखा है। वर्तमान में अपने विकास की दुहाई देकर पर्यावरण का जिस प्रकार शोषण किया गया है, इसका दूरगामी दुष्परिणाम भी विकास पर ही देखने को मिलेगा।
वास्तविकता यह है कि विकास के लिये पर्यावरण के साथ बेहतर तालमेल होना बेहद जरूरी है। आरम्भ में विकास और पर्यावरण को दो अलग-अलग अवधारणा के रूप में देखा जाता था, लेकिन बाद में यह महसूस किया गया कि विकास व पर्यावरण को दो अलग-अलग तत्व नहीं माना जा सकता। वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 1992 के डेवलपमेंट एंड द एनवायरमेंट में यह तर्क दिया गया है कि आर्थिक विकास और ठोस पर्यावरणीय प्रबंधन दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। पर्याप्त पर्यावरणीय सुरक्षा के बिना विकास का कोई महत्व नहीं है और बिना विकास के पर्यावरण निरर्थक होगा। पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग की रिपोर्ट में स्थाई विकास की परिभाषित संकल्पना ‘आवर कॉमन फ्यूचर’ 1987 में स्पष्ट रूप से विकास के लक्ष्यों को पर्यावरणीय सुरक्षा से जोड़ने व समन्यवयन पर जोर दिया गया है।
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