विकास का युग पुरुष

एन डी तिवारी (फोटो साभार : इंडियन एक्सप्रेस)
एन डी तिवारी (फोटो साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

एन डी तिवारी (फोटो साभार : इंडियन एक्सप्रेस) उत्तर प्रदेश से अलग होकर 09 नवम्बर, 2000 को पृथक उत्तराखण्ड बना। तभी से पलायन का मुद्दा हर राजनीतिक दल और नेता की जुबां पर है। ज्यों-ज्यों राज्य की उम्र बढ़ रही है, पलायन की यह समस्या भी बड़ी होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षों से पलायन बड़ा चुनावी मुद्दा भी सभी दलों द्वारा बनाया जा रहा है। बावजूद इसके हकीकत यह भी है कि एनडी तिवारी के बाद ऐसा कोई नेता नहीं उभरा जिसने वास्तव में पलायन व विकास चक्र को उद्यम स्थापना के जरिए रोकने का सटीक फार्मूला अपनाया हो।

आज पलायन पहाड़ से मैदान की ओर है, लेकिन एनडी तिवारी ऐसे मंझे हुए राजनेता थे जो कर दिखाने में यकीन रखते थे। अपने पैतृक जिले नैनीताल के पहाड़ी क्षेत्र भीमताल में इंडस्ट्रियल एस्टेट खड़ा करने का श्रेय उन्ही को जाता है, जहाँ 1990 के दशक में तमाम उद्योग स्थापित हुए और लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार मिला। दिसम्बर 1982 में केन्द्रीय उद्योग, इस्पात व खान मंत्री एनडी तिवारी ने एचएमटी का शिलान्यास कर सच में पहाड़ में औद्योगिक युग की शुरुआत कर दी।

15 नवम्बर,1985 को प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के जरिए उन्होंने इस फैक्ट्री का उद्घाटन भी कराया। 1060 कर्मचारियों वाली इस फैक्ट्री में 70 फीसद स्थानीय युवाओं को रोजगार मिला और 107 कश्मीरी विस्थापितों को। यह एनडी ही थे जो भाबर यानी हल्द्वानी को भी औद्योगिक दृष्टि से समृद्ध करने में कभी चूके नहीं। उनका कद ही ऐसा था कि मंत्री रहें या न रहें कोई भी पक्ष या विपक्ष के मंत्री-नेता या अधिकारी उनके बताए गए काम के लिये पूरी शिद्दत से जुट जाते थे। उनके जाने के बाद ऐसा लगता है मानों रानीबाग एचएमटी कारखाने की शैवाल लगी दीवारें भी रो रही हैं। अभी एक साल ही तो गुजरा है।

पिछले वर्ष एनडी इस फैक्ट्री में पहुँचे थे और उन्होंने बाकायदा यहाँ के कर्मचारियों की पीठ थपथपाते हुए उन्हें प्रोत्साहित किया। कुछ देर के लिये एकटक फैक्ट्री को निहारते रहे और उसके बाद अपनी कलाई पर एचएमटी की घड़ी भी बँधवाई थी।

पहाड़ से एक रूप अजातशत्रु विकास पुरुष थे तिवारी
तरुण विजय

एक ऐसा युग समाप्त हो गया जो राजनीतिक भेदाभेद से परे समाज में अपनी विनम्रता और अजातशत्रु छवि के लिये जाना जाता था। मैं उनसे तब मिला था जब वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से भाऊराव देवरस साहित्य समारोह था- उन्होंने उस कार्यक्रम में, अनके कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बावजूद आना स्वीकार किया और संघ के श्रद्धेय सर्जक- देवरस जी के बारे में बहुत अच्छा बोले, इससे उनके कांग्रेसीपन में कमी नहीं आई बल्कि उनका कद बढ़ा।

पाञ्चजन्य के सम्पादक के नाते उनसे तब कई बार मिलना हुआ जब वे कांग्रेस के शिखर नेता और प्रधानमंत्री पद के अधिकारी माने जाते थे। आगन्तुक अतिथि का सम्मान करना कोई उनसे सीखे- आजकल तो बड़े नेता होने का अर्थ है कि समय देकर भी आगन्तुक अतिथि को एक घंटा प्रतीक्षा करवाई जाए।

एक बार तो वे उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री के नाते नंगे पाव ही मुझे कार के पोर्च तक छोड़ने आए। जब देहरादून में जनजातीय विद्यालय का प्रारम्भ करना था तो वे लोकसभा के सदस्य थे और लोक लेखा समिति के अध्ययक्ष थे। इस कार्य के लिये मुझे जनरल बी सी खंडूरी जी अपने साथ उनसे मिलवाने और सहायता के लिये प्रार्थना करने संसद के सदन में गए थे। जनरल साहेब को देखते ही वे खड़े होकर बोले अरे! आपने क्यों कष्ट किया?

मैं विजय जी को अच्छी तरह जानता हूँ आप जैसा कहेंगे मैं करूँगा- और तुरन्त उन्होंने हमारे विद्यालय का संरक्षक होना स्वीकार कर लिया।

वे वस्तुतः उत्तराखण्ड की विकास धारा के प्राण पुरुष बन गए थे, जो कांग्रेस के प्रबल विरोधी हैं वे भी नारायण दत्त तिवारी जी को पहाड़ का प्रतीक और आधुनिक निर्माता मानते हैं। गोविन्द बल्लभ पंत और हेमवती नन्दन बहुगुणा जी के बाद पहाड़ तिवारी जी की स्मृति की छाया में आगे बढ़ेगा। उनसे विनम्रता और विकास के लिये सभी विवाद और विभेद अलग रखना सीख कर ही प्रदेश का भविष्य बनाया जा सकता है।

एनडी मतलब विजन, विजय व विकास
आशुतोष सिंह

विजन, विजय और विकास। लोकतंत्र में सियासी धुरी पर घूमते-घूमते सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने वाले शख्स के लिये ये तीन ‘वि’ बहुत मायने रखते हैं। यह बात दीगर है कि विजन के बूते विजय पाकर जब विकास के ‘पर्वत’ पर चढ़ने की बारी आती है तो अंगुलियों में गिने नेता ही इसमें कामयाब हो पाते हैं। कुछ का विजन सियासी जमीन पर विजय के साथ हाँफ जाता है तो कुछ की पद लोलुपता उस विजन को ही समाप्त कर देती है।

उत्तराखण्ड की 18 साल की राजनीति इसकी गवाह है और एनडी तिवारी इस सफर के अपवाद। उन्हें पर्वत पुत्र कहा जाता है, विकास पुरुष कहा जाता है। क्यों? क्योंकि वह इस लायक थे। एनडी के बाद किसी चेहरे ने अभी तक विकास की ऐसी ‘वीर गाथा’ नही लिखी, जिससे देवभूमि की जनता विकास पुरुष द्वितीय की उपाधि से नवाजकर एनडी का उत्तराधिकारी घोषित कर सके।

पलायन सबसे बड़ा जख्म है उत्तराखण्ड के लिये। उत्तर प्रदेश से अलग होने और स्वतंत्र राज्य के रूप में आगे बढ़ने को लेकर जब जनता की आवाज 1994 से हिमालय की शृंखलाओं, पर्वतों से टकराते हुए विराट आन्दोलन के ज्वार में बदली थी तब सपने हजार थे। लोकतंत्र में सुविधाओं के सपने देखना लोक (जनता) का काम है और उन सपनों को पूरा करना तंत्र (शासन) का।

वर्ष 2000 में अलग राज्य घोषित होने के बाद 2002 में जब एनडी तिवारी पहली निर्वाचित सरकार के सीएम बने तो शुरू हुआ देवभूमि की जमीन पर विकास का असल सफर। पलायन एनडी के निशाने पर रहा और उन्होंने इसे खत्म करने के लिये सबसे पहले देवभूमि में उद्योगों के झंडे गाड़े। कुमाऊँ में सिडकुल पंतनगर उन्ही के विराट विजन की देन है। भीमताल का औद्योगिक स्वरूप उन्हीं के बूते अपनी सूरत और सीरत संवार पाया। उद्योगों को प्राथमिकता इसलिये, ताकि यहाँ के नौजवान हाथों को यहीं काम मिलता रहे। वे नौकरी की तलाश में अपना घर, अपना गाँव, अपनी माटी से विरत न होने पाएँ। उनकी यह योजना कामयाब भी रही और पहली बार तब रोजगार के द्वार खुले।

पहाड़ के जीवन को, वहाँ की संस्कृति को कैसे बचाया जाना है यह एनडी भली-भाँति जानते थे। पाँच साल तक सत्ता के शीर्ष पद (मुख्यमंत्री) पर रहते हुए उन्होंने जो किया उसे आज तक जनता भूली नहीं है और यह भी ताज्जुब की बात है कि एनडी के बाद किसी नेता ने उपलब्धियों का ताज पहना हो, यह जनता को याद नहीं है।

एनडी का कार्यकाल समाप्त होने के बाद सीएम, कुर्सी और भूचाल। इसी में उलझा रहा है उत्तराखण्ड। अब तक सियासत के आठ ‘महाबली’ अपनी-अपनी राजनीतिक धमा-चौकड़ी से सीएम का ओहदा सम्भाल चुके हैं, लेकिन विकास पुरुष का तमगा सिर्फ एनडी के पास है। किसी ने यह कोशिश तक नहीं की कि इस तमगे को पाकर वह एनडी के उत्तराधिकारी के रूप में ख्यातिलब्ध हो सकें। हो भी कैसे, उत्तराखण्ड इसके लिये तैयार होगा ही नहीं। क्योंकि सत्ता के घूमते चक्र और छोटे से पर्वतीय राज्य में खुद को सूरमा सबित करने की होड़ ने विजय तो दिलाई, विजन और विकास को इस राज्य की उम्र के साथ आगे बढ़ाने के बजाय स्थिर कर दिया।

पलायन अपनी जगह फिर आकर अट्टहास कर रहा है। गाँव-के-गाँव खाली हो रहे हैं तो युवा रोजगार के लिये भटक कर, थक कर आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं। सिडकुल में उत्तराखण्ड के युवाओं को 70 प्रतिशत रोजगार की सच्चाई जग जाहिर है। भीमताल की औद्योगिक बेल्ट कुरूप हो रही है।

रानीबाग का एचएमटी कारखाना अपनी आखिरी साँसें गिन रहा है और यह उपलब्धियाँ एनडी के उत्तराखण्ड की सियासत से दूर होने की हैं। सोचिए, विजन कहाँ है और विकास कहाँ है? अगर वाकई में विकास पुरुष की उपाधि को समय के साथ आगे बढाना है तो एनडी जैसी विचारोत्तेजना और विजन की स्वीकारोक्ति में भावी सियासतदां को कोई भी हर्ज नहीं होना चाहिए। फिर क्यों न इसी संकल्प के साथ उत्तराखण्ड के विकास पुरुष को अन्तिम विदाई दी जाए।

उनकी दृष्टि सदैव विकास पर टिकी रही
राजनाथ सिंह सूर्य

मैंने नारायण दत्त तिवारी को सबसे पहले 1957 में आरएसएस के शिविर के समापन में मुख्य अतिथि के रूप में देखा था। उस समय वे यूपी विधानसभा में विपक्षी दल प्रजा समाजवादी के उपनेता थे। उनके संघ के कार्यक्रम में आने पर काफी बवाल मचा था। दो बार लगातार विधानसभा चुनाव जीतने के बाद 1962 में वे चुनाव हार गए थे। कुछ दिनों के लिये अमरीका में स्वयंसेवी संगठन के कार्यकर्ता के रूप में भाग लेने के बाद वे जब पुनः स्वदेश लौटे तो कांग्रेस में शामिल हो गए।

अशोक मेहता से उनकी निकटता थी जो उस समय योजना आयोग के उपाध्यक्ष थे। वे विदेश राज्य मंत्री दिनेश सिंह के सानिध्य में युवक कांग्रेस का काम देखने लगे थे। वे 1967 का चुनाव भी नहीं जीत सके। 1969 में वे विधानसभा में आए और चन्द्रभानु गुप्त के मंत्रिमंडल में शामिल हुए। उनकी निष्ठा कांग्रेस में नेहरू गाँधी परिवार के साथ सदैव बनी रही, लेकिन न केवल अलग हुए कांग्रेस के नेताओं अपितु विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं के साथ भी सदा सौहार्द पूर्ण व्यवहार था।

कठोर-से-कठोर आलोचना के बाद भी उन्होंने कभी पलटकर हमला नहीं किया। कई बार अवसर आए जबकि विधानसभा में विपक्ष के सदस्यों के हमले का उत्तर देने में उलझने के बजाय वे चुपचाप बैठ जाते थे। उनकी दृष्टि सदैव विकास पर टिकी रहती थी। चाहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हों या विपक्ष के नेता या उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री, वे सदैव विकासोन्मुख नीतियों को आगे बढ़ाने में लगे रहे।

राजनीतिक विरोधियों के प्रति सौहार्द पूर्ण भावना रखने का एक उदाहरण मैं उस समय का दे सकता हूँ। जब वे आपातकालीन स्थिति में मुख्यमंत्री थे। उन्होंने मुझे बुलाकर चन्द्रशेखर जो जेल में थे, उनके भाई कृपा शंकर जो मेरे आवास पर ठहरे थे को आर्थिक सहायता की पेशकश की थी। ये बात अलग है कि कृपा शंकर ने उसे अस्वीकार कर दिया था। इसी प्रकार से अन्य अनेक पीड़ित लोगों के परिवारों की सहायता किया करते थे। उनके लम्बे राजनीतिक जीवनकाल में एक अवसर ऐसा भी आया था जब नैनीताल लोकसभा से चुनाव लड़ने के लिये नामांकन दाखिल करने के घंटे भर पूर्व राजीव गाँधी ने उन्हें रोक दिया था। फिर भी वे कांग्रेस में बने रहे थे।

नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में वे एक बार अर्जुन सिंह के साथ अलग होकर तिवारी कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, लेकिन सोनिया गाँधी के नेतृत्व सम्भालने पर कांग्रेस में लौट गए। विरोधाभासी चर्चाओं के बीच सर्वग्राही और सर्वस्पर्शी स्वभाव उनकी सबसे बड़ी विशेषता रही। घोर विरोध करने वाला व्यक्ति भी कभी उनका कटु आलोचक नहीं बन पाया। वे विकास पुरुष के रूप में स्मरण किये जाते रहेंगे।

जा नारायण भली पढ़े
रामकृष्ण द्विवेदी

नारायण दत्त तिवारी जी को मैंने अनेक रूपों में देखा है। मुख्यमंत्री, नेता विरोधी दल, सांसद, केन्द्रीय मंत्री आदि तमाम पदों पर भी और उत्तरार्द्ध के दिनों में भी। वह स्वभाव से निर्मल थे। अपनी यह निर्मलता उन्होंने कभी नहीं छोड़ी। अपने जीवन के गरीबी में बीते शुरुआती दिनों के बारे में बताने में भी संकोच नहीं करते थे। उपलब्धियों का श्रेय माता-पिता के आशीर्वाद को देते थे। तिवारी जी अक्सर पिता के उस वाक्य को दोहराते थे, जो उन्होंने घर छोड़ते समय बोला था- ‘जा नारायण, भली पढ़े..’ पिता का बोला वाक्य तिवारी जी के लिये गुरुमंत्र जैसा था।

नारायण दत्त तिवारी जैसी शख्सियत का दोबारा होना मुमकिन है। राजनीतिक जीवन में शिखर पर रहते हुए भी उन्हें अहंकार छू नहीं पाया। अपने नजदीकियों की मदद के अलावा विरोधियों की सहायता करने का मौका भी वह कभी नहीं गँवाते थे। इसलिये विरोधी पार्टियों के नेता कभी उनके आलोचक नहीं रहे। तिवारी जी जब मुख्यमंत्री थे तो मुरादाबाद के पूर्व विधायक रियासत हुसैन ने सकुचाते हुए उनको आम की दावत दी। संघर्ष के दिनों में सहयोगी रहे हुसैन को डर था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद तिवारी बदल न गए हों। तिवारी जी ने दावतनामा कुबूल करते हुए कहा कि वह पहले मित्र हैं, मुख्यमंत्री पद के तहत तो वह केवल काम करते हैं।

प्रदेश के विकास की आधारशिला रखने वाले तिवारी जी को अपने कार्यों का श्रेय लेने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। उनके कार्यों को गिना पाना आसान नहीं। अब इसका उलट है। नेताओं में अपने कामों का ही नहीं दूसरों द्वारा कराये कार्यों का श्रेय भी लेने की होड़ है। तिवारी जी के तेवर जुझारू थे। गोविन्द बल्लभ पंत के विरोध के बावजूद वह वर्ष 1952 में चुनाव लड़े और कांग्रेस उम्मीदवार को हराया। आजकल मंत्री व मुख्यमंत्री खुद को विकास पुरुष जताने के लिये लाखों रुपए खर्च करते हैं परन्तु नारायण दत्त तिवारी सच्चे अर्थों में विकास पुरुष थे। उनके जमाने का विकास आज भी खुद बोलता है।

ये उद्योग एनडी के खाते में

1. सेंचुरी पेपर मिल, लालकुआँ
2. एचएमटी फैक्ट्री, रानीबाग
3. औद्योगिक घाटी, भीमताल
4. सुशीला तिवारी हॉस्पिटल
5. जलपैक फैक्ट्री, हल्दूचौड़
6. सोयाबीन फैक्ट्री, हल्दूचौड़
7. पीपुल्स कॉलेज, हल्द्वानी
8. एमआइटीआइ, हल्द्वानी
9. नैनीताल में रोपवे निर्माण
10. अन्तरराष्ट्रीय स्टेडियम
11. सिडकुल पंतनगर

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