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आर्थिक उदारीकरण का युग आने के बाद से खासतौर पर दिल्ली-मुम्बई के बड़े अंग्रेजी अखबार बड़े शर्मीले-से हो चले हैं! बहुत ज्यादा परदा करने लगे हैं। जब देखो, तब ये विज्ञापन के परदे में पूरे छिपे रहते हैं। कभी-कभी संयोगवश या मजबूरी में माथे तक परदा करके भी उन्हें काम चलाना पड़ जाता है।

आर्थिक उदारीकरण का युग आने के बाद से खासतौर पर दिल्ली-मुम्बई के बड़े अंग्रेजी अखबार बड़े शर्मीले-सेहो चले हैं! बहुत ज्यादा परदा करने लगे हैं। जब देखो, तब ये विज्ञापन के परदे में पूरे छिपे रहते हैं। कभी-कभीसंयोगवश या मजबूरी में माथे तक परदा करके भी उन्हें काम चलाना पड़ जाता है। आजकल नवरात्रि, दशहरेऔर दिवाली के इस मौसम में तो परदे पर भी परदे चढ़े हैं। एक, दो या तीन नहीं, कभी-कभी तो चार-चार परदे तक होते हैं। यहाँ तक कि उनके रोज छपने वाले परिशिष्ट भी परदादारी करते हैं।

मैं तो चूँकि शुरू से ही प्रगतिशील रहा हूँ, इसलिए किसी भी किस्म का परदा मुझे पसंद नहीं आता और वहभी जब हम इक्कीसवीं सदी में आ चुके हों। तो मैं सुबह अखबार आते ही उसके सारे परदे उतार देता हूँ औरबेपर्दे अखबार को पढ़ता हूँ। दशहरे से एक दिन पहले भी मैंने यही किया था और अखबार पढ़ने बैठ गया था। पढ़ना शुरू करते ही खयाल आया कि यार विष्णु नागर, यह अखबार तेरे लिये है और विज्ञापन का यह परदा भी तो तेरे लिये है! तूने अखबार का परदाफाश कर दिया, मगर कम से कम आज के दिन एक बार देख तो ले कि यह परदा क्या कहता है। तो फट चुके उन परदों को मैंने जमीन से उठाया। बाद में उनके भीतर हर दो-तीन पेज के बाद जो परदे टंगे हुए थे, उन्हें भी हटाया।

ऐसा किया तो मुझे बड़े-बड़े रत्न मिले। ‘जिन खोजा तिन पाइयां’ वाला मामला हो गया, हालाँकि मैं गहरे पानीमें पैठ नहीं रहा था! फिर भी चमत्कार कि रत्न मिल गए। कलयुग है न! रत्नों ने भी सोचा होगा कि बेचारा साठ पार का यह आदमी आखिर कितने गहरे पानी में जा पाएगा, सो इसे ऊपर ही ऊपर रत्न दे दो। तो बड़ा रत्न यहमिला कि आपलोग जब बाजार खरीददारी करने जाओगे (और जाओगे जरूर, क्योंकि दिवाली आ रही है।) तोआप खरीदने नहीं खरचने नहीं, बल्कि बचत करने जाओगे! खरीददारी तो मात्र संयोग है। साल भर आप बाजार से जो भी खरीदते हो, उसमें बचत नहीं होती। बचत तो अब होगी, क्योंकि यह दशहरे-दीपावली का शुभ अवसर है! इस अवसर पर हम आपकी जेब खाली नहीं करवा रहे हैं, बल्कि भरवा रहे हैं!

एक विज्ञापन बताता है कि हमारे यहाँ से पाँच हजार की चीजें लो और पाँच सौ की छूट हाथों-हाथ पाओ। दूसरा कहता है कि बहनजी, उधर नहीं, इधर आओ, बचत का असली मंत्र इधर है! यहाँ ढाई हजार की चीज पर साढ़े सात सौ की रियायत मिलेगी। एक कहता है कि अब ठंड आ रही है तो ठंड के कपड़े खरीद लो और अगर वह अभी नहीं खरीदना चाहते हो तो फैशन-ज्वेलरी, बैग, जूते वगैरह जो भी चाहो खरीद लो और सिर्फ तीन हजाररुपए खर्च करें एक हजार रुपए का माल मुफ्त ले जाओ। एक कहता है कि क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड हमसे लेलो और अपनी पसंद का तोहफा मुफ्त में साथ ले जाओ। एक साहब हमारी साठ फीसद तक बचत करवाना चाहते हैं तो दूसरे कहते हैं कि साठ फीसद के साथ जो ‘तक’ जुड़ा है, वह खतरनाक है। उसके चक्कर में मत पड़ो। आप तो हमसे हर माल पर पचास प्रतिशत की छूट ले जाओ। मोबाइल खरीदने पर एक तरफ का ‘रिटर्न टिकट’ मुफ्त है और लैपटाॅप खरीदने पर दोनों तरफ का टिकट।

एक जमाने में विज्ञापन होता था, लूट ही लूट, हमें लूट के ले जाओ! मगर अब ये इतने ‘विनम्र’ हो चुके हैंकि अपने को ‘लुटवा कर’ भी यह नहीं करते कि हमें लूट ले जाओ। बल्कि हम आपकी बचत करवाने की समाजसेवा कर रहे हैं, आपको तोहफे दे रहे हैं, आपको एक तरफ का मुफ्त हवाई टिकट दे रहे हैं! ले जाओ! ऐसी उदारता, ऐसा बड़प्पन तो मैंने बड़े-बड़े लोगों, यहाँ तक कि महान लोगों में भी नहीं देखा। लाखों रुपए के एक-दो-तीन-चार पेज के विज्ञापन ये किसलिए दे रहे हैं?

सिर्फ इसलिए कि आप बचत कर सकें, आपको मुफ्त तोहफा मिल जाए, जाने का टिकट खुद खरीद लो तो वापसी का हवाई टिकट आपको मुफ्त मिल जाए! कितने ज्यादा हितैषी हैं ये हम ग्राहकों के! ऐसे हितचिंतक आज की दुनिया में दिल्ली-मुम्बई आदि की धरती पर और कहाँ मिलेंगे। उधर अखबार वाले कह रहे हैं कि क्या बंधु-बहना, इन दिनों आप अखबार पढ़ने के चक्कर में क्यों पड़े हो! त्यौहार के इस मौसम में पढ़ने के लिये हमने इतने विज्ञापन दिए हैं, उन्हें पढ़ो तो आपका त्यौहार सुधर जाएगा। अखबार तो तुम सालभर पढ़ते ही रहते हो, अभी विज्ञापन पढ़ लो, काफी है! तुम्हारी भी कमाई और हमारा भी लाभ।

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