वास्तव में भारत के हर गांव और हर शहर की अपनी पारंपरिक जल संचयन तकनीक थी। लेकिन आधुनिक विज्ञान ने इस तरह के पारंपरिक ज्ञान को तिरस्कार की दृष्टि से देखा और हम आज इसकी कीमत चुका रहे हैं।उच्चतम न्यायालय के मुताबिक ‘हां है’। न्यायालय ने अपने हालिया निर्देशों में बार-बार कहा है कि आर्यभट्ट और रामानुजन के देश में पानी की समस्या का समाधान करने के लिए वैज्ञानिक आगे आएं। मगर रंजन के पांडा मानते हैं कि यह विज्ञान ही है जिसने इतनी समस्याएं खडी की हैं, ऐसे में हमें जल प्रबंधन के पारंपरिक और सांस्कृतिक समाधानों को मजबूत बनाने के प्रयास भी करने चाहिए। इस साल की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने एक समिति तत्काल गठित करने की सिफारिश की जो भारत में जल संकट के वैज्ञानिक समाधान की तलाश करे।
26 अप्रैल 2009 को एक अन्य मामले में फैसला सुनाते हुए उसने सरकार पर भारी प्रहार किया और उसे इस मुद्दे पर निश्चित लक्ष्य और तय समय सीमा के साथ काम करने का निर्देश दिया। 19 फ़रवरी 2009 को अदालत ने उडीसा सरकार की एक रिट याचिका पर फैसला सुनाते हुए भी निर्देश जारी किया था, यह मामला अदालत के आदेश के बावजूद केंद्र सरकार द्वारा उडीसा और आंध्रप्रदेश के बीच वंशाधारा नदी के पानी के विवाद को सुलझाने के लिए वाटर ट्रिब्यूनल गठित नहीं करने को लेकर था। अदालत ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को छह महीने के भीतर एक ट्रिब्यूनल गठित करने का आदेश दिया। इसके अलावा अदालत ने कहा कि पानी का मुद्दा इतना गंभीर हो गया है कि इसका स्थायी समाधान ट्रिब्यूनल या अदालती फैसलों से मुमकिन नहीं।
एक अलग समवर्ती फैसले में न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू ने कहा कि लोगों को पानी उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। जस्टिस काटजू ने कहा- 'पानी पाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक जीवन की गारंटी का हिस्सा है।' हमारी समस्या पानी की नहीं है। पानी तो हर जगह है पर पीने के लिए एक बूंद नहीं। हमारे उत्तर में विशाल ग्लेशियरों का भंडार है, तीन तरफ से समुद्र का घेरा है और देश के अंदरूनी हिस्से में कई बड़ी-छोटी नदियों का जाल बिछा है। फिर भी हम भारी जलसंकट से पीडित हैं। विज्ञान इस समस्या का समाधान कर सकता है और उसे यह करना चाहिए। अदालत ने अपने सुझाव में आगे कहा कि भारत के पास विज्ञान की एक समृद्ध विरासत है। ऐसे में आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त, सुश्रुत और चरक, रामानुजन और रमन के रास्ते पर चलकर एक बार फिर हमारे वैज्ञानिक इसका हल निकाल सकते हैं। इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों की कमी नहीं है जो इस समस्या का हल निकाल सकते हैं।
मगर वे न तो संगठित हैं और न ही केंद्र और राज्य सरकारों ने उनसे इस समस्या के समाधान के के लिए आग्रह किया है।
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी ऐसी समिति गठित करने का सुझाव दिया था जो जल संकट के ‘वैज्ञानिक समाधान' के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करे। उन्होंने यह भी कहा था कि केंद्र और राज्य सरकार उस समिति को हर तरह की वित्तीय, संसाधन स्तरीय और प्रशासनिक मदद उपलब्ध कराए। अदालत ने 26 मार्च को भारत में पानी की समस्या से संबंधित एक विस्तृत आदेश पारित किया था। इस बेंच ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव को चार सप्ताह के भीतर एक जवाबी हलफनामा दायर कर यह बताने को कहा था कि इस समस्या के समाधान और अदालत की सिफारिशों को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने जवाबी हलफनामा कमजोर पाया और 26 अप्रैल को केंद्र सरकार को आदेश दिया कि तत्काल एक समिति का गठन करे जो 26 मार्च, 2009 के आदेश के तहत जल समस्याओं के समाधान के लिए युद्ध स्तर पर वैज्ञानिक अनुसंधान करे। इस बार अदालत के इरादे सुस्पष्ट थे। केन्द्र सरकार को इस समिति का गठन दो माह के भीतर जल्द से जल्द करने का आदेश दिया गया था। सचिव, केन्द्रीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मंत्रालय को समिति की अध्यक्षता करनी थी। सचिव, केंद्रीय जल प्रबंधन मंत्रालय को सदस्य होना था।
समिति के अन्य सदस्यों में जल संकट के समाधान के विशेषज्ञ वैज्ञानिक होते जो अध्यक्ष द्वारा नामित किए जाते, और उनसे विदेशी वैज्ञानिकों से मदद का अनुरोध करते।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि सरकार इस मामले को हल्के में न ले अदालत ने इस समिति की प्रगति की नियमित निगरानी का प्रस्ताव भी किया था। कोर्ट ने कहा कि यह मामला हर दूसरे महीने के दूसरे मंगलवार को सूचीबद्ध किया जाएगा। जिसकी अगली तारीख 11 अगस्त, 2009 को होगी जिस दिन समिति के अध्यक्ष को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर हमारे सामने एक प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी। इसके बाद मामला 20 अक्टूबर, 2009 को और फिर आगे इसी तरह सूचीबद्ध किया जाएगा।
इस तथ्य को लेकर कोई असहमति नहीं है कि करोडों भारतीयों पानी की कमी के कारण भारी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं या अदालत के इस अवलोकन के बारे में कि पानी का अधिकार भारतीय संविधान में अंतर्निहित है। लेकिन अदालत के विज्ञान की क्षमताओं को लेकर अतिविश्वास को लेकर थोडी असुविधा जरूर है। अदालत का कहना है कि 'यह विज्ञान ही है जो इस समस्या को हल कर सकता है।' इस बात को लेकर निश्चित रूप से बहुत कम सहमति है।
अदालत का मानना है कि विज्ञान ने प्राचीन भारत को महान ऊंचाइयां दी थी। लेकिन हमारे जल संसाधनों के पतन के कारण भी विज्ञान की उपेक्षा ही है। 'हालाँकि बाद में हमने अंधविश्वास और अनुष्ठानों का अवैज्ञानिक मार्ग अपना लिया जिसके कारण तबाही मच गई।' यहां अदालत के आदेश में यह स्पष्ट नहीं है कि अंधविश्वास और रस्मों से उनका क्या तात्पर्य है कट्टर वैज्ञानिक तो नदी को मां के रूप में पूजे जाने को भी अवैज्ञानिक मानते होंगे।भारत को दोनों की जरूरत है- जल सशक्त समुदाय जो अधिकार और कर्तव्य दोनों को लेकर सजग हो और एक जिम्मेदार सरकार जो बेहतर जल विज्ञान और जल प्रबंधन की एक पारदर्शी प्रणाली संचालित कर सके। हालांकि इस पवित्र विचार ने नदी की रक्षा में ज्यादा मदद नहीं की है, लेकिन विज्ञान ने (न केवल दुर्व्यवहार) बल्कि जल की गुणवत्ता को नष्ट करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। दरअसल यह विज्ञान के अंधे विकास की होड ही है जिसने पानी की गुणवत्ता और मात्रा को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है चाहे वह प्राकृतिक जल स्रोतों को सीधे प्रदूषित करने का मामला हो या जलवायु परिवर्तन के कारण पानी पर पडने वाला प्रभाव हो, या भूजल स्रोतों के नीचे जाने और प्राकृतिक जल प्रवाह के साथ छेड़खानी की बात।
ऐसे अंधे और विनाशकारी विज्ञान के प्रभाव की निश्चित तौर पर जांच की जानी चाहिए और जिस तरह वैज्ञानिक समितियां जल संकट को देखती हैं (ज्यादातर और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से एक इंजीनियरिंग मुद्दे के रूप में) को भी चुनौती देने की आवश्यकता है। जल को अपने अस्तित्व का पारिस्थितिक अधिकार है। लंबे समय से समाज और उनकी संस्कृति उसके इस हक का आदर करती आई है और अनुष्ठान उनके इस रिश्ते का प्रतीक हैं।
अदालत का मानना है कि अगर कुछ वैज्ञानिक गतिविधियां – खारे पानी को ताजे पानी में बदल सकें, वर्षा और बाढ़ के पानी के प्रबंधन के तरीकों, वर्षा जलसंचय और दूषित जल को पीने लायक बनाने को लेकर शोध कर सके, आदि – तो हमारी सभी समस्याएं दूर हो जाएगी। यह सच हो सकता है। लेकिन इसके लिए हमें पहले कि उन कारकों की तलाश करनी होगी जो जल और पर्यावरण की प्रत्यक्ष गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं।
अगर भारत के पास विज्ञान की समृद्ध विरासत है तो अपने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की 'परंपरा' और 'संस्कृति'भी है। वास्तव में भारत के हर गांव और हर शहर की अपनी पारंपरिक जल संचयन तकनीक थी। लेकिन आधुनिक विज्ञान ने इस तरह के पारंपरिक ज्ञान को तिरस्कार की दृष्टि से देखा और हम आज इसकी कीमत चुका रहे हैं।
अगर हम जटिल और महंगे विज्ञान केंद्रित समाधान की तलाश कर रहे हैं तो हमें इस परिस्थिति के लिए पारंपरिक तरीकों को फिर से तलाशने की भी जरूरत है। वैज्ञानिक तरीकों पर आधारित जल प्रबंधन के तरीके आमतौर पर समुदाय की जिम्मेदारी और स्वामित्व को कम कर देते हैं जबकि पारंपरिक प्रणालियां ज्यादातर समुदाय द्वारा प्रबंधित और संचालित की जाती हैं।
भारत को दोनों की जरूरत है- जल सशक्त समुदाय जो अधिकार और कर्तव्य दोनों को लेकर सजग हो और एक जिम्मेदार सरकार जो बेहतर जल विज्ञान और जल प्रबंधन की एक पारदर्शी प्रणाली संचालित कर सके।
(रंजन के पांडा उड़ीसा निवासी शोधकर्ता और लेखक हैं)
26 अप्रैल 2009 को एक अन्य मामले में फैसला सुनाते हुए उसने सरकार पर भारी प्रहार किया और उसे इस मुद्दे पर निश्चित लक्ष्य और तय समय सीमा के साथ काम करने का निर्देश दिया। 19 फ़रवरी 2009 को अदालत ने उडीसा सरकार की एक रिट याचिका पर फैसला सुनाते हुए भी निर्देश जारी किया था, यह मामला अदालत के आदेश के बावजूद केंद्र सरकार द्वारा उडीसा और आंध्रप्रदेश के बीच वंशाधारा नदी के पानी के विवाद को सुलझाने के लिए वाटर ट्रिब्यूनल गठित नहीं करने को लेकर था। अदालत ने इस याचिका को स्वीकार करते हुए केन्द्र सरकार को छह महीने के भीतर एक ट्रिब्यूनल गठित करने का आदेश दिया। इसके अलावा अदालत ने कहा कि पानी का मुद्दा इतना गंभीर हो गया है कि इसका स्थायी समाधान ट्रिब्यूनल या अदालती फैसलों से मुमकिन नहीं।
एक अलग समवर्ती फैसले में न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू ने कहा कि लोगों को पानी उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है। जस्टिस काटजू ने कहा- 'पानी पाने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक जीवन की गारंटी का हिस्सा है।' हमारी समस्या पानी की नहीं है। पानी तो हर जगह है पर पीने के लिए एक बूंद नहीं। हमारे उत्तर में विशाल ग्लेशियरों का भंडार है, तीन तरफ से समुद्र का घेरा है और देश के अंदरूनी हिस्से में कई बड़ी-छोटी नदियों का जाल बिछा है। फिर भी हम भारी जलसंकट से पीडित हैं। विज्ञान इस समस्या का समाधान कर सकता है और उसे यह करना चाहिए। अदालत ने अपने सुझाव में आगे कहा कि भारत के पास विज्ञान की एक समृद्ध विरासत है। ऐसे में आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त, सुश्रुत और चरक, रामानुजन और रमन के रास्ते पर चलकर एक बार फिर हमारे वैज्ञानिक इसका हल निकाल सकते हैं। इस क्षेत्र में वैज्ञानिकों की कमी नहीं है जो इस समस्या का हल निकाल सकते हैं।
मगर वे न तो संगठित हैं और न ही केंद्र और राज्य सरकारों ने उनसे इस समस्या के समाधान के के लिए आग्रह किया है।
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी ऐसी समिति गठित करने का सुझाव दिया था जो जल संकट के ‘वैज्ञानिक समाधान' के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करे। उन्होंने यह भी कहा था कि केंद्र और राज्य सरकार उस समिति को हर तरह की वित्तीय, संसाधन स्तरीय और प्रशासनिक मदद उपलब्ध कराए। अदालत ने 26 मार्च को भारत में पानी की समस्या से संबंधित एक विस्तृत आदेश पारित किया था। इस बेंच ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव को चार सप्ताह के भीतर एक जवाबी हलफनामा दायर कर यह बताने को कहा था कि इस समस्या के समाधान और अदालत की सिफारिशों को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने जवाबी हलफनामा कमजोर पाया और 26 अप्रैल को केंद्र सरकार को आदेश दिया कि तत्काल एक समिति का गठन करे जो 26 मार्च, 2009 के आदेश के तहत जल समस्याओं के समाधान के लिए युद्ध स्तर पर वैज्ञानिक अनुसंधान करे। इस बार अदालत के इरादे सुस्पष्ट थे। केन्द्र सरकार को इस समिति का गठन दो माह के भीतर जल्द से जल्द करने का आदेश दिया गया था। सचिव, केन्द्रीय विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी मंत्रालय को समिति की अध्यक्षता करनी थी। सचिव, केंद्रीय जल प्रबंधन मंत्रालय को सदस्य होना था।
समिति के अन्य सदस्यों में जल संकट के समाधान के विशेषज्ञ वैज्ञानिक होते जो अध्यक्ष द्वारा नामित किए जाते, और उनसे विदेशी वैज्ञानिकों से मदद का अनुरोध करते।
यह सुनिश्चित करने के लिए कि सरकार इस मामले को हल्के में न ले अदालत ने इस समिति की प्रगति की नियमित निगरानी का प्रस्ताव भी किया था। कोर्ट ने कहा कि यह मामला हर दूसरे महीने के दूसरे मंगलवार को सूचीबद्ध किया जाएगा। जिसकी अगली तारीख 11 अगस्त, 2009 को होगी जिस दिन समिति के अध्यक्ष को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होकर हमारे सामने एक प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी। इसके बाद मामला 20 अक्टूबर, 2009 को और फिर आगे इसी तरह सूचीबद्ध किया जाएगा।
सिर्फ विज्ञान के भरोसे जल संकट का हल नहीं निकलेगा
इस तथ्य को लेकर कोई असहमति नहीं है कि करोडों भारतीयों पानी की कमी के कारण भारी कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं या अदालत के इस अवलोकन के बारे में कि पानी का अधिकार भारतीय संविधान में अंतर्निहित है। लेकिन अदालत के विज्ञान की क्षमताओं को लेकर अतिविश्वास को लेकर थोडी असुविधा जरूर है। अदालत का कहना है कि 'यह विज्ञान ही है जो इस समस्या को हल कर सकता है।' इस बात को लेकर निश्चित रूप से बहुत कम सहमति है।
अदालत का मानना है कि विज्ञान ने प्राचीन भारत को महान ऊंचाइयां दी थी। लेकिन हमारे जल संसाधनों के पतन के कारण भी विज्ञान की उपेक्षा ही है। 'हालाँकि बाद में हमने अंधविश्वास और अनुष्ठानों का अवैज्ञानिक मार्ग अपना लिया जिसके कारण तबाही मच गई।' यहां अदालत के आदेश में यह स्पष्ट नहीं है कि अंधविश्वास और रस्मों से उनका क्या तात्पर्य है कट्टर वैज्ञानिक तो नदी को मां के रूप में पूजे जाने को भी अवैज्ञानिक मानते होंगे।भारत को दोनों की जरूरत है- जल सशक्त समुदाय जो अधिकार और कर्तव्य दोनों को लेकर सजग हो और एक जिम्मेदार सरकार जो बेहतर जल विज्ञान और जल प्रबंधन की एक पारदर्शी प्रणाली संचालित कर सके। हालांकि इस पवित्र विचार ने नदी की रक्षा में ज्यादा मदद नहीं की है, लेकिन विज्ञान ने (न केवल दुर्व्यवहार) बल्कि जल की गुणवत्ता को नष्ट करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। दरअसल यह विज्ञान के अंधे विकास की होड ही है जिसने पानी की गुणवत्ता और मात्रा को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है चाहे वह प्राकृतिक जल स्रोतों को सीधे प्रदूषित करने का मामला हो या जलवायु परिवर्तन के कारण पानी पर पडने वाला प्रभाव हो, या भूजल स्रोतों के नीचे जाने और प्राकृतिक जल प्रवाह के साथ छेड़खानी की बात।
ऐसे अंधे और विनाशकारी विज्ञान के प्रभाव की निश्चित तौर पर जांच की जानी चाहिए और जिस तरह वैज्ञानिक समितियां जल संकट को देखती हैं (ज्यादातर और दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से एक इंजीनियरिंग मुद्दे के रूप में) को भी चुनौती देने की आवश्यकता है। जल को अपने अस्तित्व का पारिस्थितिक अधिकार है। लंबे समय से समाज और उनकी संस्कृति उसके इस हक का आदर करती आई है और अनुष्ठान उनके इस रिश्ते का प्रतीक हैं।
परंपराओं में भी जवाब है
विज्ञान कई बार चमत्कार कर सकता है। लेकिन यह निश्चित रूप से जादू नहीं है, कम से कम अभी नहीं। विज्ञान अकेले हमारी जल संबंधी समस्याओं का समाधान तय समय सीमा के भीतर नहीं कर सकता, जैसा अदालत चाहती है।अदालत का मानना है कि अगर कुछ वैज्ञानिक गतिविधियां – खारे पानी को ताजे पानी में बदल सकें, वर्षा और बाढ़ के पानी के प्रबंधन के तरीकों, वर्षा जलसंचय और दूषित जल को पीने लायक बनाने को लेकर शोध कर सके, आदि – तो हमारी सभी समस्याएं दूर हो जाएगी। यह सच हो सकता है। लेकिन इसके लिए हमें पहले कि उन कारकों की तलाश करनी होगी जो जल और पर्यावरण की प्रत्यक्ष गिरावट के लिए जिम्मेदार हैं।
अगर भारत के पास विज्ञान की समृद्ध विरासत है तो अपने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की 'परंपरा' और 'संस्कृति'भी है। वास्तव में भारत के हर गांव और हर शहर की अपनी पारंपरिक जल संचयन तकनीक थी। लेकिन आधुनिक विज्ञान ने इस तरह के पारंपरिक ज्ञान को तिरस्कार की दृष्टि से देखा और हम आज इसकी कीमत चुका रहे हैं।
अगर हम जटिल और महंगे विज्ञान केंद्रित समाधान की तलाश कर रहे हैं तो हमें इस परिस्थिति के लिए पारंपरिक तरीकों को फिर से तलाशने की भी जरूरत है। वैज्ञानिक तरीकों पर आधारित जल प्रबंधन के तरीके आमतौर पर समुदाय की जिम्मेदारी और स्वामित्व को कम कर देते हैं जबकि पारंपरिक प्रणालियां ज्यादातर समुदाय द्वारा प्रबंधित और संचालित की जाती हैं।
भारत को दोनों की जरूरत है- जल सशक्त समुदाय जो अधिकार और कर्तव्य दोनों को लेकर सजग हो और एक जिम्मेदार सरकार जो बेहतर जल विज्ञान और जल प्रबंधन की एक पारदर्शी प्रणाली संचालित कर सके।
(रंजन के पांडा उड़ीसा निवासी शोधकर्ता और लेखक हैं)
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