भारत के लिये एफ्रेमोव का एक अलग ही महत्व है और वो इसलिये कि उनकी कहानियों और विचारों में भारतीय संस्कृति और दर्शन की गहरी छाप दिखती है। उनकी रचनाओं में एक भाव बारंबार उभर कर आता था कि सुदूर अतीत में तिब्बत में मानवजाति के जीवन के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे और आज भी हिमालय की गुफाओं में ऐसे सिद्ध लोग हैं जिन्हें इन लक्ष्यों का ज्ञान है। एफ्रेमोव का दृढ़ विश्वास था कि रूस की ही धरती ऐसी होगी जहाँ भारत के ज्ञान और पश्चिम के विज्ञान का मिलन होगा और जिससे पूरे विश्व को एक नई दिशा मिलेगी।
विज्ञान कथा एक ऐसी विधा है जिसमें प्रवीणता के लिये जहाँ एक ओर विज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों से अवगत होना जरूरी है वहीं उसकी लेखनी में वो साहित्यिकता भी होनी चाहिये जो पाठकों के मनोमस्तिष्क में सहजता से जगह बना सके। विज्ञान कथा लेखकों की सफलता इस बात में भी होती है कि उनकी परिकल्पना भविष्य में किस हद तक एक साकार रूप ले पाती है! सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक आइजक असीमोव ने अपनी पुस्तक आरिमोस ऑन साइंस फिक्शन में विज्ञान कथा को परिभाषित करते हुये लिखा है कि ‘‘विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में संभावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है।’’ विज्ञान कथा लेखकों से भी यह अपेक्षा रहती है कि उनकी कहानियों में वैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित सुगठित और तर्कपूर्ण लय हो। इस सदृढ़ आधार पर खड़ा विज्ञान लेखन एक ठोस वैज्ञानिक परिकल्पना के रूप में किसी-न-किसी अज्ञात सिद्धान्त को सामने लाता है जो भविष्य में किसी नए शोध की प्रेरणा का काम करता है। और निःसंदेह विज्ञान की पृष्ठभूमि से जुड़ा होना लेखक की अभिव्यक्ति को एक सुदृढ़ आधार दे सकता है।ऐसे विलक्षण विज्ञान लेखकों में एक नाम प्रसिद्ध रसियन भू-वैज्ञानिक और लेखक ईवान एफ्रेमोव का भी है जिनकी लेखनी इन सभी कसौटियों पर पूर्णतः खरी उतरती है। एक वैज्ञानिक और एक विज्ञान कथाकार के रूप में ईवान का योगदान अविस्मरणीय है। ईवान का जन्म 22 अप्रैल 1908 को विरिस्ता, सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ। उनके पिता एंटोन एफ्रेमोव एक व्यवसायी थे और उनकी माता वारवरा अलेक्जेंद्रोना एक किसान परिवार से थीं। घर में साहित्य के लिये अनुकूल माहौल था और किताबों का अच्छा संग्रह भी। इनके मध्य बचपन से ही इनकी प्रतिभा की झलक मिलने लगी थी। चार वर्ष की आयु से ही उन्होंने पढ़ना शुरू कर दिया था और छः वर्ष की आयु तक यात्रा संस्मरणों और विज्ञान तथा वैज्ञानिकों से जुड़ी रचनाओं के प्रति वो आकर्षित होने लगे थे।
प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार जूल्स वर्नी की रचनाओं के प्रति तो वे कुछ ज्यादा ही प्रभावित थे। इसी दौरान धीरे-धीरे उनका सागर के रहस्यों एवं जीवाश्म विज्ञान की ओर बढ़ता गया जिसने उनके जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। 1914 में उनका परिवार बर्दियान्स्क स्थानांतरित हो गया जहाँ उनकी स्कूली शिक्षा हुई। 1917 में सोवियत क्रांति के दिनों में उनका जीवन भी काफी अव्यवस्थित हो गया। उनके परिवार को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। उनके माता-पिता का तलाक हो गया, उनकी मां ने एक सैन्य अधिकारी से दूसरा विवाह कर लिया और ईवान को अपनी बहन के पास छोड़ दिया, जिनकी कुछ अरसे बाद ही दुर्भाग्यवश मृत्यु हो गई। ईवान को अब अपने ही बूते जीवन संघर्ष करना था। 1919 में वो रेड आर्मी में शामिल हो गए। इस अवधि में अपने कार्यों के दौरान 1920 में उन्हें कुछ शारीरिक चोटें भी पहुँची जिनके कारण वो आजीवन वाणी दोष से भी पीड़ित रहे।
1921 में अपनी सेवा से मुक्त हो वो अपनी अधूरी शिक्षा पूर्ण करने के लक्ष्य के साथ पेत्रोगार्ड लौट आये। यह उनकी जिन्दगी का एक और कठिन दौर था जब उन्हें पढ़ाई और जीवन का तालमेल बिठाने के लिये सामान ढोने, ट्रक क्लीनर और ड्राइवर तक के काम करने पड़े। उनकी स्वाभाविक रूचि और नियति ने इस कठिन दौर में भी उन्हें कुछ वैज्ञानिकों से जोड़ा जिनके माध्यम से वो पुस्तकालयों आदि से जुड़े रह पाए और पढ़ने की अपनी रुचि को बनाये रख सके। 1923 में उन्होंने पेत्रोग्राड स्कूल ऑफ नेविगेशन में दाखिला लिया और यहाँ से नौचालन की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने कुछ समय विभिन्न जलयानों पर भी काम करते हुए काफी यात्राएं की। 1924 में वो लेनिनगार्ड लौटे और प्रसिद्ध शिक्षाविद पेत्रोवीच सुश्किन के संपर्क में आये। सुश्किन ने एक पिता और अभिभावक की तरह उनके जीवन को एक नई दिशा दी।
इनकी प्रेरणा से ईवान ने लेनिनगार्ड विश्वविद्यालय के जीव विज्ञान विभाग से अपनी शिक्षा पुनः आरम्भ की। इस बीच उनकी रुचि पुराजीवविज्ञान और पुरातत्वविज्ञान में बढ़ी और उन्होंने इनसे जुड़े कई शोध अभियानों में भी भाग लिया। इनके साथ ही 1935 में लेनिनगार्ड माइनिंग संस्थान से उन्होंने स्नातक की डिग्री प्राप्त की और फिर भू-विज्ञान से परास्नातक की उपाधि भी। 1941 में ईवान ने जीव विज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ली। 1940-1950 के मध्य वे कई भूविज्ञान और जीवाश्म विज्ञान से संबंधित शोध अभियानों में शामिल रहे और इस क्रम में ट्रांस कॉकेसस, मध्य एशिया, सुदूर पूर्व और साइबेरिया आदि की यात्राएं की। इस अवधि में उनकी कई प्रमुख खोजों में मंगोलिया के गोबी मरुस्थल की ‘वैली ऑफ डायनोसोर्स’ से जुड़ी खोज विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण थी। इससे और उनके अन्य शोधों और खोजों का सार रूप जीवाश्म विज्ञान की एक नई विधा ‘टैफोनॉमी’ के रूप में सामने आया।
यह विज्ञान उन नियमों से जुड़ा हुआ है जिनके अन्तर्गत जीवों की मृत्यु के बाद उनके जीवाश्म बनने की प्रक्रिया और इस आधार पर पृथ्वी की क्रमिक आयु निर्धारित करने के प्रयास किये जाते हैं। विज्ञान जगत में उनके इस योगदान के लिये उन्हें प्रतिष्ठित स्टालिन पुरस्कार व कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1958 में वो चीन की यात्रा पर गए और रूसी-चीनी संयुक्त जीवाश्म शोध कार्यक्रम के संस्थापक सदस्यों में एक रहे। उस दौर में साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव के बावजूद उन्होंने स्वयं को विज्ञान के प्रचार-प्रसार तक ही केंद्रित रखा।
वैज्ञानिक शोध पत्रों से विज्ञान साहित्य की ओर उनका रुझान भी संयोगवश ही हुआ। 1942 में लंबी बीमारी के दौरान उन्हें काफी समय बिस्तर पर ही गुजारना पड़ा। उनके जैसा उद्यमी और रचनात्मक प्रकृति के व्यक्ति के लिये यह सहज नहीं था। उन्होंने इस अवधि को एक अवसर के रूप में परिवर्तित कर दिया और अपनी विभिन्न साहसिक यात्राओं और अध्ययनों को कहानी के रूप में लिपिबद्ध करते गए। उनकी यह रचनायें पत्रिकाओं में ‘विचित्र कथा माला’ के रूप में छपने लगीं, जिसने उन्हें आम पाठकों में भी एक नई पहचान और लोकप्रियता दी। उनकी कहानियों का पहला संग्रह 1944 में प्रकाशित हुआ। 1946 में उनका एक अन्य कथा संग्रह ‘दि डायमंड ट्यूब’ प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने साइबेरिया के एक भाग में हीरों की खान मिलने की परिकल्पना की थी।
एक विज्ञान लेखक की दूरदर्शिता का यह एक बेहतरीन उदाहरण है कि जिस स्थल पर उन्होंने हीरों की खान होने का अनुमान व्यक्त किया था, वहीं से बाद में हीरों की खोज भी हुई। इसी प्रकार अपनी एक अन्य कहानी ‘प्रेतात्माओं की झील’ कहानी के माध्यम से उन्होंने जिस प्रान्त से पारे के भंडार की कल्पना व्यक्त की थी, वहीं से पारे का विशाल स्रोत भी प्राप्त हुआ। उनकी कहानियों में ही व्यक्त एक अन्य संभावना की तर्ज पर ही बश्कीरिया में एक गुफा से भित्ति चित्र मिले। उनकी कहानियों से और भी कई वैज्ञानिक परिकल्पनाओं की झलक मिलती है जिसने भविष्य में वास्तविक स्वरूप ग्रहण किया, जैसे कि एक छोटी सी गोली जितने सूक्ष्म चिकित्सकीय उपकरण बनेंगे जिन्हें मरीज निगल लेंगे और ये अंदर जा रोगी की स्वतः ही चिकित्सा कर सकेंगे, वस्तु को चारो ओर से दिखाए जा सकने वाले चित्र खींचे जा सकेंगे (होलोग्राफी), या तरल क्रिस्टलों के गुणों का उपयोग करते हुए सजीव चित्र दिखाये जा सकेंगे (वर्तमान में एल.सी.डी. टी.वी.) आदि।
प्रसिद्ध रूसी भौतिक वैज्ञानिक यूरी देनिस्युक ने यह स्वीकार किया था कि ‘होलोग्राफी’ की प्रेरणा उन्हें येफ्रेमोव की कहानी ‘अतीत की परछाइयों’ से ही मिली थी। इससे स्पष्ट होता है कि ये उन कालजयी विज्ञान लेखकों में से एक थे जो इस आधार पर अपनी कहानियां रचते थे कि आज उपलब्ध विज्ञान और संभावनायें कल क्या स्वरूप अख्तियार कर सकती हैं और विज्ञान के सुदृढ़ आधार पर खड़ी होने वाली जिनकी कई कल्पनाएं एक सटीक भविष्यवाणी की तरह कालांतर में साकार रूप भी ले लेती हैं।
भारत के लिये एफ्रेमोव का एक अलग ही महत्व है और वो इसलिये कि उनकी कहानियों और विचारों में भारतीय संस्कृति और दर्शन की गहरी छाप दिखती है। उनकी रचनाओं में एक भाव बारंबार उभर कर आता था कि सुदूर अतीत में तिब्बत में मानवजाति के जीवन के लक्ष्य निर्धारित किये गये थे और आज भी हिमालय की गुफाओं में ऐसे सिद्ध लोग हैं जिन्हें इन लक्ष्यों का ज्ञान है। एफ्रेमोव का दृढ़ विश्वास था कि रूस की ही धरती ऐसी होगी जहाँ भारत के ज्ञान और पश्चिम के विज्ञान का मिलन होगा और जिससे पूरे विश्व को एक नई दिशा मिलेगी। अपने एक लघु उपन्यास ‘सर्प हृदय‘ (दि हार्ट ऑफ सर्पेंट) में उन्होंने यह परिकल्पना की कि संस्कृत ही पहले कम्प्यूटर की भाषा बनती है और फिर सारी मानव-जाति की साझी भाषा का रूप ले लेती है। इस प्रकार एक अर्थ में यह संकेत भी मिलता है कि वो भविष्य के विश्व को भारत और रूस के सुदृढ़ सहसंबंधों के आधार पर आगे बढ़ता हुआ ही देख रहे थे।
उनकी एक अन्य रचना ‘उस्तरे की धार’ (रेजर्स एज) से उनके दार्शनिक विचारों की भी झलक मिलती है, जिसका सार यह है कि संसार में जो कुछ भी सुन्दर है, ग्राह्य है वह दो चरम ऊँचाईयों- दो चरम गर्तों के मध्य ही स्थित है-उस्तरे की धार की तरह उनके इस विचार में प्रकारांतर से गौतम बुद्ध के ‘मध्यम मार्ग’ की झलक मिलती है। उनकी भविष्यदृष्टता उनकी इस भावना से भी झलकती है कि वो चाहते थे कि समूची मानव-जाति एक-दूसरे के ही नहीं प्रकृति के साथ भी सह संबंध कायम कर एक साथ आगे बढ़ना सीख ले। वो मानते थे कि इसी से मानव प्रजाति का दीर्घ काल तक अस्तित्व सम्भव है वर्ना स्वयं और प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर वह अपने विनाश की राह ही तैयार कर रहा है। उनकी प्रसिद्ध कृति ‘दि एन्ड्रोमेड नेबुला’ उनके विचारों की सबसे प्रभावी अभिव्यक्ति मानी जाती है जिसमें उन्होंने भविष्य के समाज की परिकल्पना की थी।
विज्ञान और सामाजिक स्तर पर अत्यधिक विकसित इस समाज में असमानता और गैरबराबरी का नामोनिशान नहीं है, सभी मनुष्य एक समान हैं- किसी भी बंधन से रहित, ब्रह्माण्ड की सभी गैलेक्सियाँ एक दूसरे से एक इंटरगैलेक्सियल संचार माध्यम से जुड़ी हुई हैं-गैलेक्सियों के एक परिसंघ की तरह। एक ऐसे भविष्य की कल्पना जिसमें स्पेस ट्रेवल की भी रोमांचक परिकल्पना शामिल थी को पाठकों ने काफी सराहा। 5 अक्टूबर 1972 को इस महान वैज्ञानिक और विज्ञान साहित्यकार की मृत्यु हो गई। आशा है कि भविष्य दृष्टा वैज्ञानिक के अन्य साकार स्वप्नों की तरह मानवता के भविष्य के प्रति उनकी यह परिकल्पना भी कभी साकार रूप ले सके। भेदभाव, असमानता, परस्पर घृणा से रहित विज्ञान आधारित एक बेहतर समाज बनाने की दिशा में हमारे सकारात्मक प्रयास ही इस महान वैज्ञानिक चिन्तक को सच्ची श्रद्धांजलि होंगे।
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अभिषेक मिश्र
शिरीष, यशवन्त नगर, माखम कालेज के निकट, झारखण्ड
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