वैज्ञानिक वन-प्रबंध की विडम्बना

व्यापारिक प्रयोजन के लिए जैव विविधता की क्षति
व्यापारिक प्रयोजन के लिए जैव विविधता की क्षति

भारत में प्राकृतिक वनों के विनाश के लिए पिछले सवा सौ वर्षों का वैज्ञानिक वन-प्रबन्ध उत्तरदायी है, जो अंग्रेजों की देन है। अपनी व्यापारिक दृष्टि के साथ जब भारत का राज ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों में आया, तो उन्होंने खोज-खोजकर व्यापारिक प्रयोजन में आने वाली वृक्ष प्रजातियों पर प्रहार किया। सबसे पहला प्रहार मालाबार के सागीन वनों पर सन् 1800 के आस-पास जहाज बनाने के लिए हुआ। उसके बाद रेलवे स्लीपरों की पूर्ति के लिए साल के वनों की बारी आयी। जब ठेठ हिमालय की तराई तक के साल वन नष्ट हो गये, तो उनकी दृष्टि हिमालय के शंकुधारी देवदार और चीड़ के वनों की ओर गयी। वहां पर यातायात के साधन नहीं थे। इसलिए सन् 1850 के आसपास विल्सन नाम के अंग्रेज शिकारी ने भागीरथी की घाटी में चीड़ और देवदार के विशाल वृक्षों के ल‌ट्टे बनाकर खड़खड़ी हरिद्वार तक बहाये। कुछ ही वर्षों में विल्सन ने सघन वनों से आच्छादित भागीरथी घाटी को खल्वाट कर पर्वतीय वनों के विनाश का रास्ता खोल दिया।

वनों से निरन्तर व्यापारिक लाभ उठाने के लिए सरकार ने उनका प्रबन्ध अपने हाथों में लिया। वनों पर आश्रित वनवासियों को अपने ही घर में वीराना बना दिया। इस नीति का उन्होंने सर्वत्र विरोध किया, परन्तु इस प्रकार के आन्दोलन (रांची, बिहार में बीरसा मुंडा की बगावत तथा उत्तर काशी में तिलाड़ी आन्दोलन आदि) फौजों द्वारा कुचल दिये गये। सन् 1894 में भारत की पहली वन-नीति बनी। यद्यपि इस नीति में वन-प्रबन्ध का उद्देश्य जल और मृदा संरक्षण बताया गया, परन्तु वास्तव में इसका क्रियान्वयन वन-सम्पदा से अधिकाधिक धन कमाने के लिए हुआ। पहले और दूसरे महायुद्धों की आवश्यकताओं की पूर्ति में वन-सम्पदा की अपूर्णीय क्षति हुई जिसके घाव अभी तक नहीं भरे हैं।

सन् 1952 में वन नीति पर पुनर्विचार हुआ। घटते हुए वन-क्षेत्र पर चिन्ता व्यक्त करते हुए देश के 24 प्रतिशत वन-क्षेत्र को बढ़ाकर 33 प्रतिशत करने का संकल्प किया गया। इसके अनुसार पर्वतीय क्षेत्रों में कम से कम 60 प्रतिशत और मैदानी क्षेत्रों में 20 प्रतिशत वन क्षेत्र करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। पर्वतीय वनों, मुख्यतः नदियों के पर्वतीय जलागम क्षेत्र के वनों, नदियों और समुद्र तट के वनों का संरक्षण वन के रूप में प्रबन्ध करने का प्रावधान किया गया, लेकिन यह प्रस्ताव एक पवित्र वस्तु की तरह मन्त्रिमण्डल की कार्यवाई पंजिका में लिखा रह गया। उसके बाद लगभग 42 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र और कम हो गया। अब केवल 22 प्रतिशत वन-क्षेत्र हैं, जिसमें चट्टानें, हिमानियां, रेगिस्तान, नदियां और वे सब वनस्पति-विहीन क्षेत्र शामिल हैं; जो भारतीय वन कानून लागू किए जाने मात्र से वन क्षेत्र बन गये थे। साढ़े छ: करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र में से साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र वनस्पतिविहीन है।

स्रोत-आल इण्डिया पिंगलवाड़ा चैरीटेबल सोसाइटी

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