विभाजित बिहार का आर्थिक विकास चुनौतियाँ और सम्भावनाएँ

बीसवीं शताब्दी का अन्तिम वर्ष, 14-15 नवम्बर की मध्यरात्रि, जब बिहार विभाजित हो गया। बिहारवासी निराश और हताश हैं। विभाजन के फलस्वरूप लगभग 67 प्रतिशत राजस्व स्रोत झारखंड में चले गए हैं। केवल 33 प्रतिशत बिहार में रह गए हैं जबकि आबादी का 65 प्रतिशत बिहार में और मात्र 35 प्रतिशत झारखंड में गया है। अर्थात आय के स्रोत उधर और विशाल उपभोक्ता समूह इधर। चिन्ता जरूरी है। इस चिन्ता से उबरने के कुछ सुझाव लेख में प्रस्तुत हैं।

बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन का इतिहास लम्बा है। आजादी के बाद समृद्धि की दृष्टि से प्रति व्यक्ति आय के आधार पर विभिन्न राज्यों की शृंखला में बिहार पांचवें स्थान पर था, लेकिन सत्तर के दशक तक सबसे नीचे चला गया और आज विभाजन के बाद भी उसी जगह पर कायम है। विभाजन के पूर्व देश के कुल क्षेत्रफल का केवल 5 प्रतिशत बिहार के पास था, जबकि आबादी का 10 प्रतिशत। विभाजन के बाद क्षेत्रफल का करीब 3 प्रतिशत और आबादी का करीब 7-8 प्रतिशत भाग।बीसवीं शताब्दी का अन्तिम वर्ष, 14-15 नवम्बर की मध्य रात्रि, जब बिहार विभाजित हो गया। बिहारवासी निराश और हताश हैं। विभाजन करने वाले भी क्रन्दन कर रहे हैं, विचित्र विडम्बना है।

यह विभाजन तो अवश्यंभावी था, कोयलांचल अशांत था, संघर्ष दशकों से जारी था, आदिवासी उद्वेलित थे और सरकार भी कृत-संकल्प थी, चाहे पिछड़े इलाकों के विकास के नाम पर या आदिवासी कल्याण के नाम पर, चाहे छोटे राज्य की परिकल्पना के आधार पर या राजनीतिक दांव-पेंच के आधार पर।

विभाजन हुआ और विभाजन के फलस्वरूप करीब 67 प्रतिशत राजस्व स्रोत झारखंड में चले गए, 33 प्रतिशत बिहार में रह गए जबकि आबादी का 65 प्रतिशत बिहार में और मात्र 35 प्रतिशत झारखंड में गया। अर्थात आय के स्रोत उधार और उपभोक्ताओं का विशाल समूह इधर। कल-कारखाने, खनिज सम्पदा और बहुमूल्य लकड़ियों का जंगल उधर चला गया तो इधर रह गई कृषि आधारित अर्थव्यवस्था जो कहीं बाढ़ तो कहीं सूखे से तबाह रहती है। चिन्ता जरूरी है।

लेकिन इतनी हताशा की भी जरूरत नहीं है। आवश्यकता है विकास की सम्भावनाओं एवं संभाव्यताओं को ढूँढ निकालने की, आत्म-मंथन की और प्रगति के पथ पर अग्रसर होने की। शेष बिहार में भी विकास की सम्भावनाएँ हैं। अगर रत्न-गर्भा वसुंधरा झारखंड में चली गई, तो शस्य-श्यामला भूमि बिहार में है, जो विश्व की सर्वाधिक उपजाऊ भूमि में से एक है।

अगर खनिज और वन-सम्पदा उधर गई तो जल-सम्पदा इधर है और समुचित जल-प्रबंधन की नीति अपनाने पर न केवल बाढ़ का नियन्त्रण होगा, बल्कि सिंचाई के स्रोत भी विकसित होंगे, जल-विद्युत का उत्पादन बढ़ेगा और मत्स्य-पालन तथा मखाना की खेती जैसे अति लाभदायक धंधे भी विकसित होंगे।

पुनः अगर राजस्व स्रोत झारखंड में गए हैं तो व्यय के मद भी अधिकतर उधर ही गए हैं क्योंकि प्रति व्यक्ति योजना-व्यय ज्यादा उधर ही होता रहा है। आठवी पंचवर्षीय योजना में प्रति व्यक्ति विनियोग झारखंड में 2297 रुपये था और शेष बिहार में 1506 रुपये।

नि:संदेह शेष बिहार में राजस्व स्रोत सीमित हैं, लेकिन जब साधन सीमित हों तो आवश्यकता केवल उनके उपयोग की नहीं बल्कि सदुपयोग की होती है और उसके लिये जरूरी है दृढ़ राजनैतिक इच्छाशक्ति, सुदृढ़, स्वच्छ एवं कृतसंकल्प प्रशासनिक तंत्र, विकास की सही व्यूह-रचना और दिशा-निर्देशन, केन्द्र-राज्य सहयोग, जनता में जागरुकता और उनकी सहभागिता, विकास की मानसिकता, कठोर परिश्रम, त्याग एवं सामाजिक समरसता।

कृषि आधारित अर्थव्यवस्था भी विकास पथ पर अग्रसर हो सकती है। पंजाब और हरियाणा की अर्थव्यवस्था तो कृषि आधारित अर्थव्यवस्था रही हैं, लेकिन उनके विकास में कृषि ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

वर्ष 1997-98 में पंजाब का प्रतिव्यक्ति शुद्ध घरेलू उत्पाद 19,500 रुपये था, हरियाणा का 17,626 रुपये जबकि बिहार का मात्र 4,654 रुपये। राष्ट्रीय औसत भी 14,682.3 रुपये के बराबर था। (आर्थिक सर्वेक्षण, 1999-2000)।

बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन का इतिहास लम्बा है। आजादी के बाद समृद्धि की दृष्टि से प्रति व्यक्ति आय के आधार पर विभिन्न राज्यों की शृंखला में बिहार पांचवें स्थान पर था, लेकिन सत्तर के दशक तक सबसे नीचे चला गया और आज विभाजन के बाद भी उसी जगह पर कायम है।

विभाजन के पूर्व देश के कुल क्षेत्रफल का केवल 5 प्रतिशत बिहार के पास था, जबकि आबादी का 10 प्रतिशत। विभाजन के बाद क्षेत्रफल का करीब 3 प्रतिशत और आबादी का करीब 7-8 प्रतिशत भाग। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार राज्य की आबादी का करीब 86 प्रतिशत भाग गाँवों में रहता है।

उत्तरी बिहार में यह अनुपात 93 प्रतिशत है और मध्य बिहार में 83 प्रतिशत। कार्यकारी श्रमशक्ति का करीब 87 प्रतिशत उत्तरी बिहार में और 80 प्रतिशत मध्य बिहार में कृषि पर आश्रित है। वर्ष 1998 में देश के अत्यधिक पिछड़े 100 जिलों में से 38 जिले केवल बिहार में थे, जिनमें से 19 उत्तरी बिहार में, 8 मध्य बिहार में और शेष 11 दक्षिण बिहार या आज के झारखंड में।

वर्ष 1995-96 में देश के कारखाना क्षेत्र के कुल रोजगार में बिहार का हिस्सा केवल 3.3 प्रतिशत था, कुल निवेशित पूँजी में 4.4 प्रतिशत और कुल कारखाना उत्पादन में 3.3 प्रतिशत जबकि महाराष्ट्र का इन तीनों में क्रमशः 15.1 प्रतिशत, 18.3 प्रतिशत एवं 22.2 प्रतिशत हिस्सा था। गुजरात के लिये यह हिस्सा क्रमशः 9.5, 14.6 और 12.6 प्रतिशत था।

वर्ष 1997-98 में साख जमा अनुपात का राष्ट्रीय औसत 57.3 प्रतिशत था, तमिलनाडु में 100.4 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 77.6 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 68.7 प्रतिशत और अविभाजित बिहार में 18.6 प्रतिशत। विभाजन के बाद तो स्थिति भयावह है। जो थोड़े से उद्योग-धंधे हैं, अधिकांशतः बंद पड़े हैं। रोहतास इंडस्ट्रीज का सबसे बड़ा औद्योगिक समूह, अशोक पेपर मिल आदि के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र की 18 चीनी मिलें वर्षों से बंद हैं।

कुछेक उपक्रमों को छोड़ राज्य के सभी सार्वजनिक उपक्रम रुग्णता के शिकार हैं। निजी क्षेत्र में भी उद्यमशीलता का अभाव है। विद्युत क्षमता का करीब 80 प्रतिशत भाग झारखंड में चला गया। कृषि की स्थिति भी दयनीय है। भूमि सुधार दूर का सपना है, ‘जमीन जो जोते उसकी’ राजनीति के भंवर जाल में फंस गई है, सिंचाई की सुविधाएँ सीमित हैं और विपणन की व्यवस्था अत्यधिक त्रुटिपूर्ण।

किसानों के लागत व्यय में वृद्धि होती जा रही है क्योंकि उत्पादन के साधन उन्हें संगठित बाजार से मिलते हैं जहाँ मूल्य पर इनका कोई नियन्त्रण नहीं। दूसरी ओर कृषि-उत्पादों को असंगठित बाजार में बेचना पड़ता है जहाँ उनकी विवशता उन्हें उचित मूल्य नहीं लेने देती।

सिंचाई सुविधाओं का स्तर राज्य में (करीब 51 प्रतिशत) राष्ट्रीय-स्तर से ऊपर है लेकिन कुल उपजाए गए क्षेत्र के ऊपर सिंचाई कवरेज के रूप में देखा जाए तो पंजाब में यह स्तर 95 प्रतिशत, हरियाणा में 78 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश, में 58 प्रतिशत और बिहार में मात्र 43 प्रतिशत है। जोती गई भूमि का क्षेत्रफल भी सिमटता जा रहा है। वर्ष 1990 में 9,437.7 हजार हेक्टेयर भूमि पर खेती की गई जबकि 1997-98 में केवल 8,834.6 हजार हेक्टेयर भूमि पर।

आज हम पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। केन्द्र और राज्य सरकारें एक-दूसरे पर दोषारोपण कर रही हैं, लेकिन भविष्य की योजनाओं का निर्माण और संचालन अत्यन्त मंथर गति से हो रहा है। केन्द्र सम्पोषित परियोजनाओं के लिये जमीन भी उपलब्ध नहीं कराई जा रही है। न तो कार्य-संस्कृति का विकास हो रहा है और न ही हीन-भावना का निवारण।

विकास की मनोवृत्ति के बिना विकास की कल्पना निरर्थक है, लेकिन उस मनोवृत्ति के लिये भी आवश्यक है विकास का माहौल, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिवेश, जिसका राज्य के अन्तर्गत घनघोर अभाव है। राज्य में एक ओर आर्थिक एवं सामाजिक अधोसंरचनात्मक सुविधाओं का अभाव है तो दूसरी ओर व्याप्त तनाव, अपहरण, रंगदारी, कमीशनखोरी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार, जो उद्यमशीलता को कुंठित कर रहे हैं।

योजना आयोग के एक अध्ययन के अनुसार बिहार में 1992-96 के दौरान बाह्य वित्त सम्पोषित 14,151.59 करोड़ रुपये की विमुक्त राशि में से केवल 162.92 करोड़ रुपये का उपयोग हुआ जो कि कुल विमुक्त राशि का बहुत छोटा भाग है, जबकि इसी अवधि में पाँच विकसित राज्यों ने 70 प्रतिशत राशि का उपयोग किया। ऐसी अक्षमता की पुनरावृत्ति शेष बिहार के लिये आत्मघाती होगी। उसी तरह पंचायत चुनावों के अभाव में ग्रामीण विकास के लिये अधिकृत करीब 175 करोड़ रुपये का वार्षिक उपयोग नहीं हो पा रहा है।निम्न साख-जमा अनुपात के लिये हम वित्तीय-संस्थाओं को कोसते हैं लेकिन हमारे उद्यमियों की मानसिकता ने इन संस्थाओं के समक्ष ऋण वापसी की विकट समस्या उत्पन्न कर दी है। बाहरी उद्यमी बिहार में निवेश को बर्बादी मानते हैं और जब तक उन्हें समुचित सुरक्षा और निवेश की गारंटी नहीं मिलती वे बिहार की धरती पर ज्यादा निवेश नहीं कर सकते।

अगर श्रमशक्ति को देखा जाए जो लाखों की तादाद में हमारी श्रमशक्ति पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात या कई अन्य राज्यों की अर्थव्यवस्था को सुधारने में लगी है, लेकिन बिहार में हम उनके परिश्रम का समुचित लाभ नहीं ले पाते। न तो उन्हें रोजगार का समुचित अवसर दे पा रहे हैं और न आय के समुचित और सुनियोजित स्रोत।

भूमि-सुधार कार्यक्रम सफल नहीं हो पाए, बड़े किसानों में सामंती मनोवृत्ति अभी भी मौजूद है और मजदूरों को मिल रहा है जातिवाद और उग्रवाद का प्रशिक्षण, खोखले नारे और झूठे वायदे।

विभाजन के पूर्व राज्य के केवल 0.45 प्रतिशत बड़े किसानों के हाथों में 7.70 प्रतिशत भूमि का स्वामित्व सिमटा है जबकि 76.65 प्रतिशत सीमांत किसानों के पास मात्र 30.30 प्रतिशत भू-भाग का स्वामित्व है। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार राज्य की कुल श्रमशक्ति 256.19 लाख थी जिसमें 111.64 लाख किसान और 95.11 लाख कृषि मजदूर थे। अधिकांश कृषि मजदूरों का अब दूसरे राज्यों की ओर पलायन हो रहा है।

विकास के लिये हमें जो वित्तीय साधन मिल रहे हैं, उनका उपयोग करने में भी हम काफी पीछे हैं। राज्य की नौवीं पंचवर्षीय योजना में 16,680.01 करोड़ रुपये की स्वीकृति दी गई, लेकिन प्रथम तीन वर्षों में कुल खर्च केवल 6,118.18 करोड़ रुपये के बराबर है जोकि कुल स्वीकृत राशि की केवल 37 प्रतिशत राशि के बराबर है।

योजना आयोग के एक अध्ययन के अनुसार बिहार में 1992-96 के दौरान बाह्य वित्त सम्पोषित 14,151.59 करोड़ रुपये की विमुक्त राशि में से केवल 162.92 करोड़ रुपये का उपयोग हुआ जो कि कुल विमुक्त राशि का बहुत छोटा भाग है, जबकि इसी अवधि में पाँच विकसित राज्यों ने 70 प्रतिशत राशि का उपयोग किया।

ऐसी अक्षमता की पुनरावृत्ति शेष बिहार के लिये आत्मघाती होगी। उसी तरह पंचायत चुनावों के अभाव में ग्रामीण विकास के लिये अधिकृत करीब 175 करोड़ रुपये का वार्षिक उपयोग नहीं हो पा रहा है। ग्यारहवें वित्त आयोग ने भी संसाधनों के आवंटन में राज्य के प्रति उदारता दिखलाई है किन्तु आवश्यकता साधनों के सदुपयोग की है।

राज्य की आय के आंतरिक स्रोत सीमित हैं। कर राजस्व ही आय का सबसे बड़ा स्रोत है, लेकिन एक ओर इसके आधार सीमित हैं तो दूसरी ओर कर-वंचना की प्रबल प्रवृत्ति। बिक्री कर और खनिज सम्पदा से मिलने वाली रॉयल्टी राज्य के राजस्व के मुख्य स्रोत थे, लेकिन उनका बहुत बड़ा भाग झारखंड में चला गया।

फिर भी शेष बिहार में बिक्री कर, राज्य उत्पाद शुल्क, रजिस्ट्रेशन शुल्क, परिवहन शुल्क, व्यवसाय कर, भू-राजस्व, सिंचाई शुल्क आदि जो राजस्व स्रोत हैं, उनकी अगर सही वसूली की जाए तो एक बड़े राजस्व की प्राप्ति हो सकती है। लेकिन कर वसूली के क्षेत्र में भयंकर प्रशासनिक भ्रष्टाचार और कर-वंचना की समस्या है।

सरकार को इस दिशा में तत्पर होना होगा अन्यथा राजस्व के स्रोत सूखे रहेंगे, विकास अवरुद्ध रहेगा और स्थापना-व्यय के लिये भी साधन नहीं जुट पाएँगे। ग्यारहवें वित्त आयोग ने राज्य सरकारों को कृषि आय पर भी करारोपण की सलाह दी है। साधन जुटाने के प्रयासों के साथ-साथ साधनों के अपव्यय को रोकने का भी यथासम्भव प्रयास होना चाहिए।

बिहार कृषि-प्रधान राज्य होते हुए भी कृषि के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। उत्तरी बिहार अगर बाढ़ और जल-जमाव से ग्रस्त है तो मध्य बिहार का निचला भाग भी इससे अछूता नहीं है। कुछ इलाके उग्रवाद और आतंकवाद से प्रभावित हैं। जमीन परती है, खेती प्रतिबंधित है। फिर भी किसानों को अगर यथासमय समुचित साख, प्रमाणित बीज, खाद, सिंचाई, कृषि उत्पादों के समुचित भंडारण और उचित मूल्य तथा विक्रय की व्यवस्था निश्चित की जाए तो नि:संदेह कृषि का तीव्र विकास होगा।

बिहार के किसान प्रगतिशल हैं लेकिन सिंचाई सुविधाओं के अभाव में पंगु हैं। सिंचाई की जो संभाव्यताएँ हैं, उनका उपयोग करने में हम काफी पीछे हैं। ये सिंचाई सम्भाव्यताएँ वृहद एवं मध्यम परियोजनाओं के माध्यम से 66 लाख हेक्टेयर, जमीन-तल पर उपलब्ध लघु सिंचाई परियोजनाओं के माध्यम से 19 लाख हेक्टेयर और जमीन तल के नीचे उपलब्ध जल-भंडार से 72 लाख हेक्टेयर तक हैं, लेकिन वर्तमान उपयोग केवल क्रमशः 27.66 लाख हेक्टेयर, 13.77 लाख हेक्टेयर और 39.17 लाख हेक्टेयर है।

बिहार में कृषि में निम्न उत्पादकता के साथ दो अन्य मुख्य विशेषताएँ हैं: (क) खाद्य फसलों की अत्यधिक प्रधानता, और (ख) लघु एवं सीमांत किसानों की अत्यधिक संख्या, जिनके पास पूँजीगत साधनों का अभाव है।

खाद्य फसलों की प्रधानता कृषि का पूर्ण वाणिज्यीकरण नहीं होने दे रही है, कृषि मात्र निर्वाह क्षेत्र बनी हुई है और दूसरी ओर इनकी माँग की सीमित लोचशीलता किसानों को निम्न आय स्वीकार करने पर विवश बनाए हुए है। अतः आवश्यकता है कृषि उत्पादों के विविधीकरण की जो निर्यात संवर्द्धन का भी स्रोत बन सकते हैं।

सब्जी, फलों, फूलों, मशरूम, मखाना, औषधि और रासायनिक उत्पादों से सम्बन्धित कृषि-वस्तुओं द्वारा किसानों के बीच आसानी से सम्पन्नता लाई जा सकती है और बिहार भी आसानी से समृद्धि की ओर अग्रसर हो सकता है, लेकिन इस सब के लिये सरकारी प्रोत्साहन और संरक्षण की भी जरूरत है।

इन उत्पादों के लिये न केवल देश में बल्कि विदेश में भी व्यापक बाजार उपलब्ध है। सब्जी उत्पादन में बिहार देश में दूसरे स्थान पर और फलोत्पादन में चौथे स्थान पर है। विदेशों में भी इसकी काफी खपत है, लेकिन जरूरत है इनकी गुणवत्ता नियन्त्रण, उचित प्रसंस्करण, समुचित पैकिंग और यथोचित ट्रांसपोर्टेशन और विपणन- सुविधाओं की। सरकार के लिये जरूरी है कि इस दिशा में सही प्रशिक्षण, साख सुविधा और विपणन में सहायता करे।

अनेक कृषि उत्पाद कृषि-आधारित उद्योगों जैसे चीनी उद्योग, जूट उद्योग, वनस्पति उद्योग, चावल उद्योग तथा इनके सह उद्योगों के विकास में भी काफी सहायक हो सकते हैं। लेकिन वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक युग में लागत-नियन्त्रण और गुणवत्ता सुधार के लिये सतत प्रयत्नशील रहना पड़ेगा।

जहाँ तक शेष बिहार के औद्योगीकरण का प्रश्न है, दो तरीके अनिवार्य हैं- (क) पुराने एवं बंद पड़े उद्योगों में अगर सम्भावना हो तो उन्हें पुनर्जीवित करना, और, (ख) बिहार की धरती के लिये उपयुक्त उद्योगों को स्थापित करना। जहाँ तक पुराने उद्योगों के पुनर्जीवन का प्रश्न है, सरकार अधोसंरचनात्मक सुविधाएँ अवश्य उपलब्ध कराए लेकिन स्वामित्व का भार न उठाए। सरकारी क्षेत्र के भी जो बंद या मृतप्राय उपक्रम हैं, उन्हें निजी क्षेत्र को सौंप देने की प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिये।

सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ खास उपक्रम जिनकी उपयुक्तता संदिग्ध है और प्राण फूँकने की सम्भावना नहीं है, उन्हें पूर्णतः बंद कर देने की ही आवश्यकता है। सार्वजनिक क्षेत्र की बंद पड़ी चीनी मिलों के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। शेष बिहार में केन्द्र सरकार के भी कुछ उपक्रम जैसे एशिया प्रसिद्ध अमझोर का सुपर फॉस्फेट प्लांट, बंद होने के कगार पर है और इनके पुनर्जीवन के लिए केन्द्र सरकार पर दबाव बनाने की आवश्यकता है।

राज्य के सबसे बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठान डालमिया नगर के रोहतास उद्योग समूह को फिर से खुलवाने में सरकार को पूर्ण बाह्य सहयोग और दबाव की नीति अपनानी चाहिए। लेकिन निजी क्षेत्र को भी आगे बढ़ाने के लिये अनुकूल वातावरण का निर्माण होना चाहिए। प्रशासनिक सहयोग और तत्परता के साथ-साथ एक शांत, प्रेरक और तनावमुक्त माहौल में ही निजी उद्यमी आगे बढ़ सकते हैं।

नए उद्योगों की स्थापना में कृषि-आधारित उपक्रमों को प्रधानता दी जानी चाहिए। इनके विकास के लिये आवश्यक साधन शेष बिहार में आसानी से उपलब्ध हैं और देश-विदेश में इनका बाजार भी व्यापक है। भूमंडलीकरण की वर्तमान प्रक्रिया में विदेशी मुद्रा अर्जित करने में भी ये सहायक होंगे।

बिहार कृषि-प्रधान राज्य होते हुए भी कृषि के क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। उत्तरी बिहार अगर बाढ़ और जल-जमाव से ग्रस्त है तो मध्य बिहार का निचला भाग भी इससे अछूता नहीं है। कुछ इलाके उग्रवाद और आतंकवाद से प्रभावित हैं। जमीन परती है, खेती प्रतिबंधित है। फिर भी किसानों को अगर यथासमय समुचित साख, प्रमाणित बीज, खाद, सिंचाई, कृषि उत्पादों के समुचित भंडारण और उचित मूल्य तथा विक्रय की व्यवस्था निश्चित की जाए तो नि:संदेह कृषि का तीव्र विकास होगा।बिहार चीनी का एक बहुत बड़ा उत्पादक राज्य आसानी से बन सकता है। चावल और चीनी उद्योगों के अवशिष्टों से वनस्पति उद्योग, स्प्रीट और अल्कोहल उद्योग, कागज उद्योग आदि आसानी से विकतिस हो सकते हैं। फलों पर आधारित उद्योगों के विकास की यहाँ व्यापक सम्भावनाएँ हैं। अन्य कृषि उत्पादों से भी औद्योगिक विकास की सम्भावनाएँ हैं।

निजी क्षेत्र के उद्यमी अगर उचित माहौल मिले तो इन क्षेत्रों में आसानी से आगे बढ़ने के लिये तत्पर हैं। औद्योगिक विकास बैंक, औद्योगिक वित्त निगम, औद्योगिक साख और विनियोग निगम आदि संस्थाओं के लिये बिहार आकर्षण का केन्द्र नहीं रहा है, लेकिन इन्हें आकर्षित करने के लिये समुचित माहौल का निर्माण करना राज्य सरकार का दायित्व है।

विद्युत आपूर्ति के क्षेत्र में यद्यपि अधिकांश स्रोत झारखंड में चले गए हैं, फिर भी बरौनी और कांटी थर्मल प्रोजेक्ट के रख-रखाव में सुधार लाकर, कोशी जल विद्युत परियोजना का विस्तार कर, मिनी पावर प्लांटों (विशेषकर जल विद्युत के क्षेत्र में) की स्थापना कर एवं राष्ट्रीय थर्मल पावर कारपोरेशन तथा चूखा विद्युत आपूर्ति केन्द्र के साथ सहयोग बढ़ाकर आसानी से बढ़ाई जा सकती है।

दीर्घकालीन योजना के रूप में जल विद्युत पर विशेष जोर की जरूरत है। बिहार सरकार और बिहार के सभी सांसद राजनैतिक भेदभाव भूलकर केन्द्र सरकार से आग्रह और दबाव की नीति अपनाएँ तो नेपाल के साथ मिलकर उधर से आने वाली नदियों के ऊपर बाँध बनाकर बाढ़ की विभीषिका को नियन्त्रित किया जा सकता है और विद्युत उत्पादन तथा सिंचाई सुविधाओं का विस्तार सम्भव है।

सिंचाई और बिजली के अलावा विकास के लिये अन्य महत्त्वपूर्ण अधोसंरचनात्मक सुविधाएँ हैं सड़क और शिक्षा। बिहार की सड़कों की स्थिति जर्जर है, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में।

बिहार के सभी सांसद और विधायक अपने कोटे की राशि, जो उन्हें अपने विवेक से खर्च करने के लिये दी जाती है, अगर अगले दो-तीन वर्षों तक केवल इसी मद पर ईमानदारी के साथ और अपनी समुचित देख-रेख में खर्च करें तो ग्रामीण इलाकों में सड़कों का जाल फैलाया जा सकता है। कृषकों को भी आधारभूत सुविधा मिलेगी और बाजार का भी विस्तार होगा।

मानव संसाधन विकास का सबसे बड़ा स्रोत हैं शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएँ। बिहार की शिक्षा प्रणाली गुणवत्ताहीन होती जा रही है। तकनीकी शिक्षा की अपेक्षा सामान्य शिक्षा पर विशेष जोर है और सामान्य शिक्षा भी बदहाली के दौर से गुजर रही है। स्वास्थ्य सुविधाएँ अधिकतर (करीब 80 प्रतिशत) शहरी इलाकों में केन्द्रित हैं और वहाँ भी आम नागरिकों के लिये सही ढंग से उपलब्ध नहीं हैं।

ग्रामीण इलाकों के गरीब नागरिक तो प्रायः इन सुविधाओं से पूर्णतः वंचित हैं। सरकारी डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस, अस्पतालों की दुर्दशा एवं व्यवस्था का अभाव और गरीबों के प्रति उदासीनता सामान्य जन-जीवन को स्वस्थ और सुखद बनाने से कोसों दूर हैं। अतः इन सामाजिक सेवाओं का सामाजिक-नियंत्रण जरूरी है।

एक ओर ग्रामीण क्षेत्रों में इनका विस्तार जरूरी है तो दूसरी ओर सशक्त ग्रामसभाओं या जन समितियों तथा ग्राम-पंचायतों के द्वारा इनका नियन्त्रण। लेकिन साथ ही इन समितियों या पंचायतों का चुनाव भी निष्पक्ष होना चाहिए।

अततः भावी विकास के लिये यह भी जरूरी है कि विकास से सम्बन्धित संस्थाओं एवं प्रशासनिक तन्त्र का विकेन्द्रीकरण हो, दायित्व का निर्धारण हो और कठोरता के साथ उसका निर्वहन हो। योजनाएँ निचले स्तर से भी तैयार हों, उनमें समुचित समन्वय और उनके क्रियान्वयन में आम जनता या उनके प्रतिनिधियों की सहभागिता हो। सरकार फिजूलखर्ची रोकने की हर सम्भव कोशिश करे जिससे सीमित साधनों का सदुपयोग हो और बिहार विकास की ओर अग्रसर हो।

(लेखक मगध विश्वविद्यालय, बोधगया के अर्थशास्त्र विभाग में प्रचार्य हैं।)

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