वेल्गंगा-सीता का स्नान-स्थान

वेरूलग्राम का हरा कुंड देखकर लौटते समय रास्ते में वेलगंगा का झरना देखा था। झरना इतना छोटा था कि उसे नाला भी नहीं कह सकते। किन्तु उसे ‘वेलगंगा’ का प्रतिष्ठित नाम प्राप्त हुआ है। नदी का नाम सुनने पर उसका उद्गम कहां है, इसकी खोज किये बिना क्या रहा जा सकता है? किन्तु हम तो गुफाओं की अद्भुत कारीगरी में मस्त होकर विचर रहे थे; इसलिए हमें वेलगंगा का स्मरण तक नहीं हुआ। ‘अपौरुषेय’ कारीगरीवाली कैलाश की गुफा को देखकर हम जैन तीर्थकरों की इन्द्रसभा की ओर बढ़ रहे थे। इतने में श्री अच्युत देशपांडे ने कहा, ‘वेलगंगा का उद्गम यहीं है।’ नाम सुनते ही वेलगंगा दिमाग पर सवार हुई।

इन्द्र सभा से लौटते समय हम 29वीं गुफा में जा पहुंचे। अनेक गुफाओं में घुमने के कारण काफी थकावट मालूम हो रही थी। सारे बदन की हड्डियों में दर्द होने लगा था। ठीक उसी समय बंबई के निकट स्थित धारापुरी की एलिफंटा गुफा का स्मरण कराने वाली यहां की 29वीं गुफा ने भव्यता का कमाल कर दिखाया। यह कहना मुश्किल था कि घूम-घूमकर हमारे पैर ज्यादा थके थे या देख-देखकर हमारी आंखें ज्यादा थकी थीं। हम निश्चय कर ही रहे थे कि अब नाश्ते के साथ थकावट उतारने के बाद ही आगे जायेंगे, इतने में सीता के स्नान-स्थान का स्मरण हुआ।

अयोध्या से जनस्थान तक की यात्रा सीता ने पैदल की थी। वहां से रावण उसे उठाकर लंका ले गया था। दुःखा वेग में में सीता ने दक्षिण का यह प्रदेश शायद देखा भी न होगा। किन्तु राम ने रावण का वध करके उसी के पुष्पक विमान में बैठकर जब लंका से अयोध्या तक की हवाई यात्रा की, तब सीता माता को नीचे की प्राकृतिक शोभा देखकर कितना आनंद हुआ होगा। रामायण में वाल्मिकी ने प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति सीता के पक्षपात का वर्णन जहां-तहां किया है। सृष्टि-सौंदर्य देखकर सीता को कितना अलौकिक आनंद होता था, इसका वर्णन भवभूति ने भी किया है। सीता ने यदि भारत के ललित और भव्य, सुन्दर और पवित्र स्थानों का वर्णन स्वयं लिखा होता, तो मैं समझता हूं कि उसके बाद संस्कृत के किसी भी कवि ने सृष्टि वर्णन की एक पंक्ति भी लिखने का साहस न किया होता।

सीता माता पहाड़ों को देखकर आनंदित होती, नदियों को अपने आनंदाश्रुओं से नहलाती, हाथी के बच्चों को पुचकारती, सारस-युगलों को आशीर्वाद देती, सुगंधित फूलों के सौरभ से उन्मत्त होती और प्रत्येक स्थान पर सारे आनंद को राममय बनाकर अपने-आपकों भूल भी जाती। लंका में राम-विरह से झूरनेवाली सीता भी वहां की एक नदी से एक रूप हुए बिना न रह सकी। आज भी लंका में ‘सीतावाका’ वर्षाऋतु में अपने दोनों किनारों पर से बह निकलती है और जितने खेतों को डुबाती है उन सबको सुवर्णमय बना देती है। सीता का जन्म ही जमीन से हुआ था। भारत भूमि की भक्ति के रूप में आज भी वह हमें दर्शन देती है।

सीता को लगा होगा कि गोदावरी के विशाल प्रदेश में चल-चलकर अब हम थक गये हैं। लक्ष्मण को वनफल लाने के लिए भेज देंगे। और राम तो धनुष लेकर पहरा देते ही रहेंगे। तब इस चंद्राकार कगार के नीचे वेलगंगा का आतिथ्य स्वीकार करके थोड़ा-सा जलविहार क्यों न कर लिया जाय?

पहले तो हमारी वृत्ति किसी अनुकूल जगह से वेलगंगा के सुन्दर प्रपात का सिर्फ दर्शन करने की ही थी। इसिलए 29 नंबर की गुफा में, उसकी बाई ओर और हमारी दाहिनी ओर, जो झरोखा दिखाई देता था वहां हम गये। मन में यह चोरी तो अवश्य थी कि यदि नीचे जाया जा सकेगा, तो वहां का आनंद लूटने में हम चूकेंगे नहीं।

झरोखे से देखा तो एक पतला-सा प्रपात पवन के साथ खेलता हुआ नीचे उतर रहा है और अपनी अंगुलियां हिलाकर हमें चुपचाप न्योता दे रहा है। मैं विचार करने लगा कि नीचे उतरा जा सकेगा या नहीं? इतना समय खर्च करना उचित होगा या नहीं? साथियों को मेरी यह स्वच्छंदता रुचेगी या नहीं? मुझकों इस प्रकार उलझन में पड़ा हुआ देखकर घाटी में दौड़-धाम करने वाले नन्हें-नन्हें पक्षी तिरस्कार से हंस पड़ेः “देखो तो, कितना अरसिक मनुष्य है! प्रपात इतने प्रेम से न्योता दे रहा है और यह विचार में डुबा हुआ है! इन मानवों में काव्य लिखने वाले कई हैं, किन्तु काव्य का अनुभव करने वाले बिरले ही होते हैं। और यह सामने वाला आदमी अपने-आपकों प्रकृति का बालक कहलवाता है। आंखे फाड़-फाड़कर प्रपात की ओर देख रहा है। नीचे का स्फटिक जैसा निर्मल पानी देखकर इसका हृदय भी उमड़ पड़ता है। किन्तु यह संकल्प नहीं कर पाता। इसके पैर नहीं उठते। इसे किसी ने शाप तो दिया नहीं कि ‘तू पत्थर बनकर पड़ा रहेगा।’ फिर भी वह पत्थर- से चिपका हुआ ही है।”

पक्षियों की यह निर्भर्त्सना सुनकर मैं लज्जित हुआ, और होश में आने के पहले ही मेरे पैर सीढ़ियां उतरने लगे। मैं सोच रहा था कि दाहिनी ओर वाले गड्ढे को लांघकर उस पार से प्रपात के पास जाया जाय, या बाईं ओर से कगार के पीछे से होकर 28 नंबर की छोटी-सी गुफा तक पहुंचा जाय और वहां से प्रपात के जल कणों का आनन्द लिया जाय? दाहिनी ओर का रास्ता लम्बा और सुरक्षित था; जब की बाईं ओर वाले रास्ते में काव्य था। नहाने की तैयारी करके ही मैं उतरा था, इसलिए भीगने का तो सवाल ही नहीं था।

28 नंबर की छोटी-सी गुफा में एक-दो मूर्तियां हैं; किन्तु उस गुफा के अंदर विशेष काव्य नहीं है। काव्य तो बाहर ही बिखरा हुआ है। इस गुफा में बैठकर यदि कोई बाहर देखें, तो पानी के पतले पर्दे में से उसे अपने सामने की सृष्टि का जीवनमय विस्तार दिखाई देगा। प्रपात तो वहां गिरता है, किन्तु वह इतना घना नहीं है कि आर-पार कुछ दिखाई ही न दे। यह गुफा पानी के पर्दे के पीछे ढंकी हुई रहने पर भी बिलकुल भीगती नहीं, क्योंकि खिलाड़ी पवन भी पानी के तुषारों को गुफा के अंदर नहीं ले जा सकता। गुफा के जरा बाहर आयें तो फिर यह शिकायत मत कीजिए कि पवन ने आपको गीला क्यों कर दिया।

हम इस गुफा से नीचे उतरे। कहने की आवश्यकता नहीं की पहाड़ी चतुष्पाद बनकर ही हमें उतरना पड़ा। प्रपात जिस पत्थर पर गिरता है, वहीं मैंने अपना आसन जमाया। सौ फुट की ऊंचाई से जो पानी गिरता है, वह केवल गुदगुदा कर ही संतोष नहीं मानता। उसने पहले सिर पर थप्पड़ें मारना शुरू किया; बाद में कंधे पर चपतें जमाई, फिर पीठ पर रप् रप् रप् रप् चपतें बरसने लगीं और यात्रा की सारी थकावट उतरने लगी। अक्सर हम पहले मालिश करा कर बाद में नहाते हैं। यहां तो मालिश ही स्नान था और स्नान ही मालिश! सीतामाता ने यहां अपने बालों को खोलकर पानी में साफ-सुथरा कर लिया होगा।

किन्तु यह क्या? मैं घुमक्कड़ यात्री हूं या दुनिया का बादशाह हूं? मेरी पलथी के नीचे यह रत्नखचित आसन कहां से आ गया? पानी के तुषार चारों ओर ऐसे फैल रहे हैं, मानों मोतियों की माला हो! और आसन के नीचे दो सुन्दर इंद्रधनुष मुझे सम्राट की प्रतिष्ठा प्रदान कर रहे हैं! अलकापुरी के कुबेर से मेरा वैभव किस बात में कम है? इंद्रधनुष की दुहरी किनारे वाले, चांदी के धागों के आसन पर मैं बैठा हूं और मोतीयों की माला का उत्तरीय ओढ़कर यहां आनंद कर रहा हूं। माथे पर सूर्यनारायण का चमकता हुआ छत्र है और चारों ओर ये उड़ते हुए द्विजगण जगन्नाथ के स्रोत गा रहे हैं।

बदन साफ करने के लिए नहीं, बल्कि व्यायाम का आनंद मनाने के लिए पत्थर पर सवार होकर प्रपात के नीचे मैंने अपना सारा बदन मला। स्नान-पान का आनंद लूटा और रामरक्षा-स्रोत का स्मरण किया। सीता मैया ने जो स्थान पसंद किया, वहां रामरक्षा-स्रोत के गायन का ही स्फुरण होना स्वाभाविक था। और सिर से लेकर पैर तक के सारे गात्रों को मलकर साफ करते समय ‘शिरो में राघवः पातुः भालं दशरथात्मजः’ आदि श्लोकों को याद करने का यह न्यास कितना उचित था।

स्वर्ग को गए हुए लोग भी यदि अंत में मृत्युलोक में वापस आते हैं, तो फिर इस प्रपातस्नान का नशा चढ़ने पर भी उसमें से व्युत्थान करके फिर गद्यमय जीवन में प्रवेश करने की आवश्यकता मुझे मालूम हुई, इसमें भला आश्चर्य क्या? इसलिए आखिर इतने सारे आनंद का स्वेच्छा से त्याग करने की अपनी संयम-शक्ति को सराहता हुआ मैं वापस लौटा। और नये कपड़े पहनकर नाश्ते के लिए तैयार हुआ। नाश्ता क्या-वह तो कला-निरीक्षण के लिए की हुई दोपहर तक की तपस्या और प्रपातस्नान की शांति के बाद का अमृत-भोजन तथा वेलगंगा का कृपा-प्रसाद ही था!

गुफा में स्थिर होकर खड़े हुए द्वारपालों के यदि आंखे होती, तो उन्हों जरूर हमसे ईर्ष्या हुई होती!

सितम्बर, 1940

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