वे पूजनीय हैं, सप्त सैंधव अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही हैं, जीवन देने वाली हैं, हम उन्हें माँ कहते हैं लेकिन सिर्फ कहते हैं, गाय और गंगा हमारी माँ नहीं हैं।
गाय और गंगा, हमारे अस्तित्व का दूसरा नाम। दोनों जनकल्याण के लिये धरती पर आईं और दोनों के आगमन का माध्यम बने महादेव। गंगा को जटाओं में सम्भाला और धरती को तारने के लिये आजाद कर दिया। जब कृषि और पशुपालन सम्पन्नता का प्रतीक बने तब शिव नंदी की पीठ पर सवार नजर आये।
एक संहारक ने गौपालक का रूप धरा तो समाज ने गाय को हाथों हाथ लिया, वे आईना बन गईं जिसमें हम अपना वर्तमान और भविष्य देख पा रहे थे। वह समाज को इतना देती थी कि हमने उसे कामधेनु कहकर सभी देवताओं का अंश बता दिया। हजारों साल बाद द्वापर में एक ग्वाले ने इस आईने को और भी बड़ा कर दिया, उसने भी नदी और गाय को अपने अस्तित्व से जोड़ा।
अपनी नदी से उस ग्वाले ने कालिया नाम के प्रदूषण को बाहर किया और अपनी गायों को चारा देने वाले गोवर्धन के लिये इंद्र से भिड़ गया। यह पहली कोशिश थी जिसने यह स्थापित किया कि राजा की नहीं प्रकृति की पूजा होनी चाहिए, गाय और नदी को पूजिए क्योंकि इनकी गति हमारे जीवन को गति देती है और इनकी दुर्गति हमारी तय दुर्गति है। कृष्ण ने गीता के दसवें अध्याय में गायों में कामधेनु, नदियों में गंगा और मंत्रों में गायत्री को स्वयं की विभुति करार दिया है।
जब तक गाय और गंगा हमारे अस्तित्व और हमारी जीविका से जुड़ीं थीं तब तक सब कुछ ठीक रहा लेकिन पिछले पचास सालों में दोनों को लेकर सामाजिक नजरिया बदल गया, अब गाय और गंगा एक ‘बिजनेस मॉडल’ हैं। उसकी रेत एक नगदी फसल की तरह है, वह अपने किनारे बसे समाज की मुख्य सीवेज लाइन है, कारखानों के वेस्ट मैनेजमेंट में वह सहयोगी है, मन्दिरों की अर्थव्यवस्था लाल-काले पानी के किनारे होने के बावजूद फलफूल रही है, उसे जितना ज्यादा बाँधा जाता है, उतनी ही ज्यादा रोशनी वह घरों में उपलब्ध कराती है, सिंचाई के लिये अपना सारा पानी दे देना उसकी ड्यूटी है।
गाय को दूध के लिये हार्मोन इंजेक्शन दिये जाते हैं, जब वह दूध नहीं दे पाती तो उसे काटकर बेच दिया जाता है, उसके मांस में फाइबर होता है, प्रोटीन होता है। उसके मूत्र, गोबर से लेकर हर चीज से हमारा फायदा होता है। देश की हर समस्या की जड़ औरंगजेब और नेहरू की नीतियों में ढूँढ़ने वाले फेसबुकिया क्रान्तिकारियों के चिन्तन का विषय यह नहीं है कि जब ज्यादातर गौपालक हिन्दू हैं तो कैसे बूढ़ी होती गाएँ कसाईखानों तक पहुँच जाती हैं या उदयपुर की सरकारी गोशाला के खिलाफ आन्दोलन क्यों नहीं खड़ा हो पाता।
पुराणों में कहा गया है कि जब गंगा में पानी नहीं रहेगा और गाय दूध देना बन्द कर देगी तभी कलयुग का अन्त होगा। हम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं वह भी तेजी से। सरकारी और औद्योगिक कचरा लगातार गंगा के पेट में जा रहा है और घरेलू कचरा गाय के पेट में। दोनों ही प्रदूषण का सर्वाधिक शिकार है और दोनों के भीतर मौजूद अमृत तत्व की हत्या की जा चुकी है।
शिव का दिखाया आईना काला पड़ता जा रहा है और इन सबसे बेखबर समाज और सरकार दोनों ‘गाय हमारी माता है’ का नारा लगाने में मशगूल है फिर वह सड़कों पर घूमती है और पॉलीथीन खाती है तो क्या हुआ?
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