वायुमण्डल में गैसों की बढ़ती मात्रा


पृथ्वी का तापक्रम बढ़ने की वर्तमान परिस्थितियों में विकासशील देशों खासकर भारत जैसे विकासशील देश के सामने प्रश्न यह है कि अपनी मौजूदा अर्थव्यवस्था में वह विकास की क्या नीति अपनाये। क्या पश्चिमी देशों के लिये वह अपने विकास की बलि चढ़ा दे? लेखक का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन इस कार्य के लिये पृथ्वी संरक्षण के नाम पर भारत जैसे देशों को वित्तीय साधन मुहैया कराये, तभी सभी के हित में बात बन सकती है।

ऐसा अनुमान किया जा रहा है कि जिस गति से हम ऊर्जा की खपत कर रहे हैं तथा जिस प्रकार हम पेट्रोल तथा कोयले पर आश्रित हैं, यदि यही गति चलती रही तो सन 2030 तक वायुमण्डल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा लगभग 560 पीपीएम हो जायेगी। इस समय वायु मण्डल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा 340 पीपीएम है। यदि 220 पीपीएम की अनुमानित बढ़ोत्तरी वास्तव में हो गई तो इसका पृथ्वी के औसत तापक्रम पर प्रभाव पड़ेगा। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यह वृद्धि केवल कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा में ही नहीं हो रही है बल्कि अन्य गैसों की मात्रा में भी हो रही है जिनमें नाइट्रस ऑक्साइड, मिथेन, क्लोरोफ्लोरोकार्बन मुख्य हैं।

वायुमण्डल में एक निश्चित मात्रा में पाई जाने वाली गैसों- नाइट्रोजन, ऑक्सीजन तथा कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा क्रमशः 78 प्रतिशत, 21 प्रतिशत और 0.3 प्रतिशत है और शेष असक्रिय गैसें पाई जाती हैं। हम जानते हैं कि ऑक्सीजन जीवन का एक प्रमुख आधार है- ऑक्सीजन जिसके बिना एक क्षण भी जी पाना मुश्किल है। वायुमण्डल में ऑक्सीजन की मात्रा वनपतियों द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया से मुक्त ऑक्सीजन के फलस्वरूप सन्तुलित रहती है लेकिन जब स्वच्छ वायु के अवयवों में विषाक्त गैसें जैसे- सल्फर आॅक्साइड, कार्बन-मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन-ऑक्साइड इत्यादि प्रवेश कर जाती हैं तो वायुमण्डल का अपना प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाता है।

इस समय हम रासायनिक पदार्थों के एक वर्ग का उपयोग बहुत अधिक कर रहे हैं जिन्हें क्लोरो-फ्लोरोकार्बन कहते हैं। ये पदार्थ वायुमण्डल में ऊपर जाते हैं तथा वायुमण्डल के ऊपरी भाग में उपस्थित ओजोन की परत को क्षति पहुँचाते हैं। ओजोन की यह परत हम सबके लिये बहुत ही लाभकारी है। सूर्य से पृथ्वी की ओर आने वाली किरणों में पराबैंगनी किरणें भी होती हैं। यदि ये किरणें पृथ्वी तक पहुँच जाएँ तो विभिन्न प्रकार के कुप्रभाव उत्पन्न कर सकती हैं। इनका एक कुप्रभाव यह भी होगा कि पृथ्वी के आस-पास के तापक्रम में वृद्धि होगी क्योंकि सूर्य से अधिक तापीय ऊर्जा पृथ्वी तक आ सकेगी। क्लोरो-फ्लोरोकार्बन का उपयोग रेफ्रीजरेटर, एयर कण्डीशनर, फोम बनाने तथा एरोसोल में होता है।

जब इस रासायनिक यौगिक का आविष्कार हुआ था तो लोगों ने इसे चमत्कारिक यौगिक की संज्ञा दी थी। कारण यह था कि इस यौगिक का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता था और यह बहुत सस्ती लागत पर बनाया जा सकता था। साथ ही उस समय इसका कोई कुप्रभाव भी ज्ञात नहीं था। परन्तु काफी अरसे के बाद पता चला कि यह यौगिक वायुमण्डल की ऊपरी परत में उपस्थित ओजोन कवच को गम्भीर क्षति पहुँचा रहा है जिसका परिणाम बहुत ही भयंकर हो सकता है। इसके नष्ट होने से पृथ्वी का जन-जीवन सबसे अधिक प्रभावित होगा क्योंकि पराबैंगनी किरणें सीधे पृथ्वी पर पहुँचने लगेंगी और पृथ्वी के वायुमण्डल का तापमान भी बढ़ जायेगा।

पृथ्वी के वायुमण्डल के तापमान को बढ़ाने में एक दूसरी प्रकार की ओजोन का भी योगदान होता है। यह ओजोन वह है जो वायुमण्डल के निचले भाग में बनती है। इसका कारण मुख्य रूप से नाइट्रोजन के वे ऑक्साइड हैं जो वायुमण्डल के निचले भाग में आते हैं। इसके स्रोत हैं- पेट्रोल तथा कोयला जैसे ईंधन। इनके अतिरिक्त मिथेन भी वायुमण्डल के निचले भाग में ओजोन के बनने में सहायक होती है। इस प्रकार पृथ्वी से बहुत ऊँचाई पर ओजोन परत में ह्रास तथा पृथ्वी के आस-पास ओजोन के बनने की क्रिया हो सकती है। ये दोनों क्रियाएँ पृथ्वी के आस-पास के तापक्रम को बढ़ा सकती हैं।

तापक्रम के बढ़ने का प्रभाव सम्पूर्ण विश्व की जलवायु पर पड़ेगा। एक ओर तो वर्षा की स्थिति में अन्तर आयेगा और दूसरी ओर पहाड़ों तथा ध्रुवों पर मौजूद ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे। बहुत सारे ऐसे क्षेत्र में जहाँ आज फसल होती है, फसल पैदा होनी बन्द हो सकती है। हरे-भरे क्षेत्र मरुस्थल में बदल सकते हैं और समुद्र किनारे के तटीय क्षेत्र डूब सकते हैं। इसी प्रकार बहुत सारे द्वीप भी जलमग्न हो सकते हैं। इस तरह पृथ्वी की जलवायु में बहुत बड़े पैमाने पर परिवर्तन आएँगे और यह परिवर्तन ऐसे होंगे जिनके विषय में हमें पहले से जानकारी नहीं है क्योंकि ऐसा कभी नहीं हुआ है। साथ ही इन परिवर्तनों को फिर से उल्टी दिशा में ले जाना भी सम्भव नहीं होगा क्योंकि यह सब बहुत बड़े पैमाने पर होगा।

पृथ्वी की जलवायु में होने वाला यह परिवर्तन एक ऐसा परिवर्तन है जिसका प्रभाव किसी क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण सम्बन्धी संस्था ‘यूनेप’ के पिछले 20 वर्षों के एक अध्ययन के अनुसार पृथ्वी में पैदा होने वाली कुल कार्बन-डाई-ऑक्साइड को कार्बन चक्र में लाने की क्षमता कम पड़ती जा रही है अर्थात कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा पेड़-पौधों, समुद्रों तथा जीव-जन्तुओं आदि से सोखी नहीं जा रही है और यह पुनः बढ़ती जा रही है। यदि स्थिति यही रही तथा ईंधन आदि जलाने से वायुमण्डल में कार्बन-डाई-ऑक्साइड इसी तरह छोड़ जाती रही तो अगले 100 वर्षों में पृथ्वी पर कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा औद्योगीकरण पूर्व के स्तर से दुगुनी हो जायेगी।

वर्तमान परिस्थितियों में विकासशील देशों खासकर भारत जैसे विकासशील देश के लिये ‘विकास’ एक अहम सवाल है। हमारे सामने चुनौती यह है कि अपनी मौजूदा अर्थव्यवस्था में कैसी विकास नीति अपनाये? क्या पश्चिमी देशों के लिये अपने विकास की बलि चढ़ा दें? पश्चिमी देशों में जीवन-शैली विलासितापूर्ण है। कल-कारखाने, मोटर-वाहन, एयर कण्डीशनर, ऐरोसोल, पैकिंग सामग्री का धड़ल्ले से उत्पादन और उपयोग कर रहे हैं। पश्चिमी जीवन शैली विषमता पैदा करती है और विकासशील देशों से उसका हर्जाना माँगती है।

भारत सरकार के उद्योग मन्त्रालय द्वारा हाल ही में किये गये अध्ययन के अनुसार ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले क्लोरो फ्लोरोकार्बन के स्थान पर नये पदार्थों के इस्तेमाल के लिये भारत को साढ़े तीन अरब से छह अरब रुपये की जरूरत होगी। कहाँ से आयेगा इतना पैसा? ऐसी हालत में यदि भारत को पैसा या नई टेक्नोलॉजी नहीं मिली तो वह नये पदार्थों का इस्तेमाल कहाँ से करेगा? ऐसे में सिवाय इसके कोई चारा नहीं कि विश्व संगठन भारत को इस मद में वित्तीय साधन मुहैया कराये। ये वित्तीय साधन भी पृथ्वी-संरक्षण के नाम पर होने चाहिये, न कि कर्ज के नाम पर।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रसायन विभाग में प्राध्यापक हैं।)

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