जल तीनों अवस्थाओं ठोस, द्रव और गैस के रूप में पाया जाता है। जल चक्र प्रक्रिया द्वारा निरन्तर स्वरूप बदलने से जल का शुद्धीकरण होने के साथ-ही-साथ स्थान भी परिवर्तित होता रहता है। इसके बावजूद मनुष्य द्वारा अन्धाधुन्ध दोहन एवं दुरुपयोग के कारण जल की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। वैश्विक पर्यावरणविदों के अनुमान के मुताबिक 2025 तक विश्व की लगभग आधी आबादी को शुद्ध पेयजल के अभाव के संकट से जूझने के लिये विवश होना पड़ेगा।
मनुष्य के शरीर का लगभग 60-70 प्रतिशत भाग जल से निर्मित है। इसी प्रकार समस्त जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की शारीरिक अवसंरचना का लगभग दो-तिहाई हिस्सा जल से निर्मित होता है। जीवन के अस्तित्व के लिये ऑक्सीजन के उपरान्त सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अवयव जल होने के कारण ‘जल को जीवन’ की संज्ञा दी गई है।ब्रह्माण्ड के एकमात्र ग्रह पृथ्वी पर जल होने के कारण जीवन का अस्तित्व है। यद्यपि पृथ्वी के 71 प्रतिशत भाग में जल है परन्तु कुल उपलब्ध जल का 97 प्रतिशत खारा जल है और मात्र 3 प्रतिशत जल ही मीठा जल है। जिसमें लगभग 2 प्रतिशत जल ग्लेशियरों एवं बर्फ के रूप में उपलब्ध होने के कारण केवल 1 प्रतिशत जल ही मानवीय उपभोग के लायक है।
दिन-प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने के लिये जल का बड़े पैमाने पर दोहन किया जा रहा है। जिसके कारण भू-सतह पर मौजूद जल के साथ ही भूजल का स्तर नीचे गिरता जा रहा है। तीव्र औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप पर्यावरणीय प्रदूषण बढ़ने के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। जिससे ग्लेशियर के रूप में जमा मीठा जल बड़े पैमाने पर पिघल कर समुद्र के खारे पानी में मिल रहा है। जिससे निकट भविष्य में जल संकट गहराने के कारण जीवन के अस्तित्व पर खतरे की सम्भावना बढ़ती जा रही है।
प्राकृतिक रूप से जल पदार्थ तीनों अवस्थाओं ठोस, द्रव और गैस के रूप में पाया जाता है। जल चक्र प्रक्रिया द्वारा निरन्तर स्वरूप बदलने से जल का शुद्धीकरण होने के साथ-ही-साथ स्थान भी परिवर्तित होता रहता है। इसके बावजूद मनुष्य द्वारा अन्धाधुन्ध दोहन एवं दुरुपयोग के कारण जल की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। वैश्विक पर्यावरणविदों के अनुमान के मुताबिक 2025 तक विश्व की लगभग आधी आबादी को शुद्ध पेयजल के अभाव के संकट से जूझने के लिये विवश होना पड़ेगा।
भारत की भौगोलिक और प्राकृतिक अवसंरचना में विभिन्नता होने के कारण देश के कुछ क्षेत्रों में सूखा और कुछ क्षेत्रों में बाढ़ की स्थिति बनी रहती है। जिन क्षेत्रों में वर्षा ऋतु में भारी बारिश होती है और जल संरक्षण के पर्याप्त प्रबन्ध नहीं होता है। वहाँ बारिश का मीठा जल नदियों से होते हुए समुद्र के खारे जल में मिल जाता है। इसके साथ-ही-साथ नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि भी पहुँचती है। इतना ही नहीं वर्षा ऋतु के पश्चात इस क्षेत्र में भी जल का संकट उत्पन्न हो जाता है।
इसी कारण केन्द्र सरकार नदियों को जोड़कर बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र के जल को सूखा ग्रस्त क्षेत्र में ले जाने की महत्त्वाकांक्षी योजना आरम्भ कर रही हैं। यद्यपि कई पर्यावरणविद विभिन्न तर्कों के साथ इसका विरोध भी कर रहे हैं। केन्द्र सरकार बारिश के जल को संरक्षित कर भूजल स्तर को बढ़ाने तथा बारिश के पश्चात उपयोग करने के लिये वाटरशेड जैसी कई योजनाओं को संचालित कर रही है।
जल चक्र
पृथ्वी पर बढ़ती जनसंख्या की भौतिक एवं जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये विरासत में प्राप्त जलस्रोतों का व्यापक पैमाने पर दोहन करने तथा प्राकृतिक जल के संरक्षण के प्रति उदासीनतापूर्ण रवैए के कारण भूजल स्तर गिरने के साथ-साथ कुओं, नदियों, तालाबों, झरनों इत्यादि भूमि सतह पर उपलब्ध जल बड़े पैमाने पर नष्ट अथवा दूषित हो गए। संकीर्ण मानवीय लालसा एवं महत्वाकांक्षाओं के कारण जलस्रोतों का पुनर्नवीनीकरण नहीं हो सका।
एकतरफा दोहन, अपव्यय एवं दुरुपयोग के कारण दिन-प्रतिदिन जल संकट गहराता जा रहा है। यद्यपि प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार सूर्य के तापमान एवं वायु के संयुक्त प्रक्रम द्वारा समुद्र तथा भू-सतह पर उपस्थित जलस्रोतों एवं भूजल, वाष्प के रूप में वाष्पिकृत होकर आसमान में पहुँचता है। जहाँ बादलों के रूप में संघनीत होकर वाष्प ठंडी होकर पुनः जल के रूप में परिवर्तित हो जाती है।
वर्षा ऋतु में पुनः यही जल बारिश के रूप में पृथ्वी पर पहुँचता है। इस प्रक्रिया में जल का शुद्धिकरण होने के साथ-ही-स्थान परिवर्तित हो जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा जलस्रोतों का पुनर्नवीनीकरण स्वतः हो जाना चाहिए, परन्तु बारिश में जल संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था के अभाव तथा मनुष्य द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण में कृत्रिम कारकों से असन्तुलन पैदा करने के कारण, प्राकृतिक पुनर्नवीनीकरण की यह व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। प्राकृतिक व्यवस्था द्वारा जल शुद्धिकरण की तुलना में जल उपभोग की मात्रा अधिक होने के कारण जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
वैश्विक आबादी की 18 प्रतिशत जनसंख्या भारत में रहती है जबकि भारत का भू-क्षेत्रफल विश्व का केवल 2.4 प्रतिशत ही है। विश्व में मानव उपभोग के योग्य जल का केवल 4 प्रतिशत भारत में है। देश में प्रतिवर्ष लगभग 4000 घन मिमी वर्षा होती है। वर्षाजल संचय के अभाव एवं अपव्यय और तेजी से बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के परिणामस्वरूप प्रति व्यक्ति पेयजल की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम हो रही है।
जल संरक्षण के अभाव तथा भूजल के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण बड़े पैमाने पर जल की गुणवत्ता कम होने के साथ-ही-साथ प्रदूषित होता जा रहा है। जल की बढ़ती माँग के कारण जल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है। इसलिये सभी जीव-जन्तुओं की जल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये जल संरक्षण एवं प्रबन्धन अति आवश्यक है अन्यथा तीसरा विश्वयुद्ध जल के लिये होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।
भूजल के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण भूजल स्तर भी प्रतिवर्ष नीचे गिरता जा रहा है। वर्षाजल के तीव्र बहाव के कारण बड़े पैमाने पर मृदा का कटाव होता है। जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। जिससे फसल का उत्पादन दुष्प्रभावित हो रहा है। इसके साथ-ही-साथ वन एवं पर्यावरण की स्थिति भी बदतर हो गई है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक भूमि, जल और वन के समन्वित एवं समुचित प्रबन्धन की सहायता से पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है।
इसके लिये जल संरक्षण घरेलू स्तर से लेकर सामुदायिक अथवा सामूहिक स्तर के साथ-साथ सरकारी स्तर पर होना आवश्यक है। सरकारी स्तर पर जल संरक्षण हेतु तो कई योजनाएँ संचालित हो रही हैं परन्तु व्यक्तिगत स्तर पर आम जनमानस की उदासीनता के कारण जल संकट पर प्रभावी रोकथाम नहीं लगाया जा सका।वाटर शेड प्रबन्धन
आजादी के पश्चात सूखे से निपटने के लिये केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों, जिला प्रशासन एवं स्थानीय प्रशासन के सहयोग से कमांड क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम, मरूक्षेत्र विकास कार्यक्रम, भू-सिचाई कार्यक्रम जैसे कई कार्यक्रमों को संचालित कर जलस्रोतों के विकास एवं संरक्षण पर बल दे रही थी। जल प्रबन्धन द्वारा भूमि की आर्द्रता को बनाए रखने का प्रयास किया जा रहा था।
खाद्य फसल के उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ पर्यावरण में सन्तुलन स्थापित करने के लिये जल प्रबन्धन बहुत जरूरी है, परन्तु इन कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में भारी धनराशि व्यय करने के बावजूद जल संकट का स्थायी समाधान नहीं हो पा रहा था। देश का बहुत बड़ा भू-भाग सूखे और बाढ़ से प्रभावित है। वर्षाजल का बड़े पैमाने पर अपव्यय होता रहता है। जिसके परिणामस्वरूप फसल की बर्बादी के साथ-साथ पशु एवं पेड़-पौधे नष्ट होते रहते हैं।
भूजल के अन्धाधुन्ध दोहन के कारण भूजल स्तर भी प्रतिवर्ष नीचे गिरता जा रहा है। वर्षाजल के तीव्र बहाव के कारण बड़े पैमाने पर मृदा का कटाव होता है। जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति दिन-प्रतिदिन क्षीण होती जा रही है। जिससे फसल का उत्पादन दुष्प्रभावित हो रहा है। इसके साथ-ही-साथ वन एवं पर्यावरण की स्थिति भी बदतर हो गई है। कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक भूमि, जल और वन के समन्वित एवं समुचित प्रबन्धन की सहायता से पारिस्थितिकी एवं पर्यावरण को संरक्षित किया जा सकता है। इसी के सम्बन्ध में श्री हनुमंत राव कमेटी का गठन किया गया। कमेटी ने भूमि संरक्षण, जल प्रबन्धन एवं पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धित समस्त कार्यक्रमों को एकीकृत कर ‘वाटरशेड विकास कार्यक्रम’ प्रस्तावित किया।
वाटरशेड कार्यक्रम का शुभारम्भ 1994-95 में हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य जल संरक्षण एवं मृदा संरक्षण हेतु वर्षा के जल के बहाव की गति को कम कर, जल में मृदा अवसाद को कम किया जाये तथा वर्षा की बूँदों को भूमि की सतह पर रोककर मिट्टी के कटाव के साथ जल को संरक्षित किया जाना है। जिससे भूजल स्तर बढ़ने के साथ-साथ बाद में इसका उपयोग सिंचाई एवं अन्य कार्यों में किया जाये। सूखा प्रभावित और मरुस्थलीय क्षेत्रों में वाटरशेड प्रबन्धन कार्यक्रम द्वारा फसल एवं पशुधन पर सूखे के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
जल संरक्षण द्वारा पारिस्थितिक सन्तुलन बनाकर मरुस्थलीयकरण की प्रक्रिया को रोकने में सहायता मिलेगी। वाटरशेड प्रबन्धन योजना में जल संरक्षण की परम्परागत तकनीकी के साथ-साथ आधुनिक तकनीकी के प्रयोग पर बल दिया गया है। इसके अन्तर्गत सिंचाई में जल की होने वाली बर्बादी पर प्रभावी रोकथाम लगाने के लिये आधुनिक तकनीकी पर बल दिया जा रहा है।
पर्वतीय एवं ग्रामीण क्षेत्र के गरीब, पिछड़े और उपेक्षित वर्ग के लोगों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति में सुधार के लिये भी प्रयास किया जा रहा है। वाटरशेड विकास परियोजना की परिधि औसतन 500 हेक्टेयर मानी गई है और प्रति परियोजना पर लगभग 20 लाख रुपए व्यय करने का प्रावधान किया गया है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वर्षाश्रित अथवा सूखा प्रभावित जिले में वर्षाजल को जगह-जगह संरक्षित करने के लिये प्रयास किया जा रहा है। इसकी सफलता के लिये स्थानीय स्तर पर जिला ग्रामीण विकास अभिकरण के तत्वावधान में जन-सहयोग और जन-भागीदारी प्राप्त की जा रही है। इसके क्रियान्वयन में स्वयं सहायता समूह, गैर सरकारी संगठन, ग्राम पंचायत का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद वाटरशेड योजना के प्रभावी क्रियान्वयन के अभाव के कारण केन्द्र सरकार 2009-10 में ‘एकीकृत वाटरशेड प्रबन्धन कार्यक्रम’ आरम्भ किया। इस कार्यक्रम की सफलता के लिये आम जनमानस को जोड़कर सरकारी सहायता से जल संरक्षण एवं प्रबन्धन की व्यवस्था की गई ।
12वीं पंचवर्षीय योजना में इस कार्यक्रम के अन्तर्गत 29000 करोड़ रुपए व्यय किये जाने का प्रावधान किया गया। यह कार्यक्रम भूमि संसाधन विभाग द्वारा 29 राज्यों में संचालित है। इसके अन्तर्गत आम जनमानस को नवीन तकनीकी एवं जागरुकता के माध्यम से स्थानीय स्तर पर वैज्ञानिक एवं परम्परागत विधा द्वारा जल संरक्षण हेतु प्रोत्साहित किया जा रहा है। चीन के बाद यह विश्व का दूसरा सबसे बड़ा वाटर शेड कार्यक्रम है।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना
भारतीय कृषि मानसून पर आधारित होने के कारण जिस वर्ष पर्याप्त वर्षा नहीं होती है, जल के अभाव के कारण फसल का उत्पादन अच्छा नहीं हो पाता है। जिसके कारण किसानों की आर्थिक स्थिति दयनीय हो जाती है। खाद्य पदार्थों की कमी के कारण कीमतें आसमान छूने लगती हैं, जिससे मुद्रा स्फीति बढ़ जाती है।
देश के 142 मिलियन हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के 40 प्रतिशत भू-भाग में कृत्रिम सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है, शेष कृषि योग्य भू-भाग मानसून आधारित वर्षा पर निर्भर करता है। ऐसे में ‘प्रति बूँद-अधिक फसल’ और ‘हर खेत को पानी पहुँचाने’ के उद्देश्य से प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना आरम्भ की गई है। इसके अर्न्तगत 2015-16 में अगले पाँच वर्षों के लिये 50,000 करोड़ रुपए आवंटित किये गए। इसके अन्तर्गत जल संसाधन, नदी विकास, गंगा पुनरुद्धार मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय तथा कृषि मंत्रालय वर्षाजल संचयन एवं संरक्षण, जल संसाधन संवर्धन के लिये संयुक्त रूप से कार्य करेंगे।
नवीन जलस्रोतों के निर्माण के साथ पुराने जलस्रोतों का जीर्णोंद्धार कर जल संचयन पर बल दिया जाएगा। ग्रामीण स्तर पर परम्परागत जलस्रोतों, तालाबों, कुओं आदि जल संग्रहणों की मरम्मत, सुधार और नवीनीकरण कर जल संचयन की क्षमता बढ़ाकर जल संरक्षण किया जाएगा। पानी के दक्षतापूर्ण परिवहन को बढ़ावा देने के लिये भूमिगत पाईप प्रणाली, पीवोट, रेनगन और अन्य उपकरणों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
वर्षाजल के सरंक्षण द्वारा भूजल स्तर बढ़ाने के साथ ही मृदा संरक्षण, सिंचाई सुविधाओं का विस्तार और मनुष्य एवं अन्य जीव-जन्तुओं की जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सकती है। इसके अन्तर्गत देश के समस्त कृषि फार्म में संरक्षित सिंचाई सुनिश्चित करने के साथ-साथ प्रति बूँद अधिक फसल उत्पादन किया जाएगा।इस योजना के अन्तर्गत वाटरशेड परियोजना के माध्यम से पानी की बर्बादी को कम करके, आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी द्वारा जल बचत और सटीक सिंचाई द्वारा पानी उपयोग की दक्षता में सुधार किया जाएगा। देश के प्रत्येक खेत में सिंचाई सुविधाओं के लिये जल संरक्षण और अपव्यय को कम करने पर बल दिया जा रहा है। पी.एम.के.एस.वाई. योजना के अन्तर्गत नगरपालिका के पानी की गुणवत्ता में सुधार एवं पुनः उपयोग के लिये आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी का प्रयोग किये जाने की व्यवस्था की गई है।
इसके अन्तर्गत नवीन जलस्रोतों के निर्माण के साथ पुराने जलस्रोतों का जीर्णोंद्धार कर जल संचयन पर बल दिया जाएगा। ग्रामीण स्तर पर परम्परागत जलस्रोतों, तालाबों, कुओं आदि जल संग्रहणों की मरम्मत, सुधार और नवीनीकरण कर जल संचयन की क्षमता बढ़ाकर जल संरक्षण किया जाएगा। पानी के दक्षतापूर्ण परिवहन को बढ़ावा देने के लिये भूमिगत पाईप प्रणाली, पीवोट, रेनगन और अन्य उपकरणों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।
आधुनिक तकनीकी द्वारा पानी की मात्रा को फव्वारा (स्प्रिंकलर) और बूँद-बूँद सिंचाई (ड्रिप एरिगेशन) विधि के प्रयोग द्वारा 30-40 प्रतिशत अतिरिक्त भू-भाग की सिंचाई की जा सकती है। प्रचुर भूजल उपलब्धता क्षेत्र मेें नलकूप लगाकर सिंचाई को बढ़ावा देने पर बल दिया जा रहा है। केन्द्र सरकार इस योजना में वर्ष 2016-17 के लिये 5700 करोड़ रुपए का प्रावधान किया है। सिंचाई योजना के लिये नाबार्ड के माध्यम से लगभग 20,000 करोड़ रुपए के सिंचाई फंड सृजित करने का निर्णय लिया गया है।
प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के सफल क्रियान्वयन के लिये योजना को स्थानीय स्तर पर विकेन्द्रीकृत कर दिया गया है। राज्य सिंचाई योजना और जिला सिंचाई योजनाओं को सम्मिलित रूप से स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप पी.एम.के.एस.वाई. से जोड़ दिया गया है तथा राष्ट्रीय संचालन समिति द्वारा इसकी निगरानी की जा रही है।
प्रधानमंत्री स्वयं समिति की अध्यक्षता कर रहे हैं तथा विभिन्न मंत्रालयों के केन्द्रीय मंत्री एवं प्रतिनिधि इसकी निगरानी कर रहे हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति योजना के क्रियान्वयन का नियमित रूप से समन्वय, निगरानी तथा मूल्यांकन करेगी और समय-समय पर सरकार के समक्ष समीक्षा रिपोर्ट प्रस्तुत करेगी तथा योजना के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन एवं प्रत्येक खेत में पानी पहुँचाने के लिये सुझाव देगी।
नीरांचल राष्ट्रीय वाटरशेड योजना
मृदा अपरदन को रोकने हेतु तथा जल संरक्षण के लिये स्वतंत्रता के पश्चात कई योजनाओं का संचालन किया गया। 2009-10 में केन्द्र सरकार ने कई योजनाओं को संकलित कर एकीकृत वाटरशेड प्रबन्धन कार्यक्रम आरम्भ किया था। विभिन्न कारणों से इसकी व्यापक प्रभावशीलता के अभाव के कारण 7 अक्टूबर 2015 को मोदी की अध्यक्षता वाली आर्थिक मामलों की मंत्रीमण्डलीय समिति ने वाटरशेड योजना को आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिये विश्व बैंक से आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्राप्त ‘नीरांचल’ परियोजना का अनुमोदन किया।
2016 में राष्ट्रीय वाटरशेड प्रबन्धन परियोजना ‘नीरांचल’ का शुभारम्भ किया गया। भारत सरकार ने जल संरक्षण संसाधन की व्यापकता सुनिश्चित करने हेतु वित्तीय सहायता के लिये 14 जनवरी 2016 को विश्व बैंक से राष्ट्रीय वाटरशेड प्रबन्धन परियोजना ‘नीरांचल’ के लिये एक ऋण समझौते पर हस्ताक्षर किया। देश में अगले 6 वर्षों तक जल संरक्षण की व्यापक परियोजना के क्रियान्वयन के लिये 2142 करोड़ रुपए लागत का अनुमान है। जिसका 50 प्रतिशत भारत सरकार और शेष 50 प्रतिशत विश्व बैंक से प्राप्त ऋण द्वारा पूरा किया जाएगा। विश्व बैंक ने 1071 करोड़ रुपए का ऋण 5 वर्ष की अनुग्रह अवधि के साथ 25 वर्ष के लिये प्रदान किया है।
नीरांचल परियोजना के अर्न्तगत प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना का प्रभावी क्रियान्वयन किया जाएगा। इसमें वर्षाजल का संरक्षण कर पर्वतीय, पठारी और ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबन्धन किया जाएगा। जिसका उपयोग सिंचाई के साथ-साथ वन, पर्यावरण एवं पारिस्थिकी के संरक्षण में किया जा सकेगा। पूरे देश में वर्षा के जल को अपव्यय से रोकने के लिये ग्रामीण स्तर पर गड्ढे खोदकर, तालाब एवं पोखरों में जल संग्रहित करने के लिये आधारभूत ढाँचे का विकास किया जाएगा।
विश्व बैंक की आर्थिक सहायता पर आधारित नीरांचल परियोजना द्वारा देश के सूखा प्रभावित राज्यों आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा और राजस्थान में वाटरशेड गतिविधियों और प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को आवश्यक आधारभूत संरचना, तकनीकी और आर्थिक संसाधन मुहैया कराने में सहयोग प्रदान करेगी। इसके माध्यम से मितव्ययतापूर्ण सिंचाई सुविधाओं का विकास करने के साथ-साथ आम जनमानस को जागरूक एवं भागीदार बनाया जाएगा। किसानों को जल अपव्यय करने से बचने के तौर-तरीकों का भी ज्ञान कराया जाएगा।
मृदा संरक्षण
देश में जलवायु एवं भौगोलिक विभिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मृदा संरचनाएँ पाई जाती हैं और उसी के अनुरूप कृषि कार्य होता है। देश के मैदानी क्षेत्र की मृदा काफी उपजाऊ है परन्तु बाढ़ के दौरान नदियों में जल के तीव्र बहाव के कारण मिट्टी का भारी पैमाने पर कटाव होता है। जिससे उपजाऊ मिट्टी का बड़े पैमाने पर स्थानान्तरण हो जाता है। पर्वतीय एवं पठारी क्षेत्र में ढाल होने के कारण वर्षा ऋतु में मिट्टी का कटाव तेजी से होता है।
पर्यावरणीय परिवर्तन एवं पारिस्थितिकीय अन्सतुलन के कारण मानसून के समय में बदलाव हो रहा है, अर्थात् फसल लगाने के समय जब किसानों को पानी की आवश्यकता होती है, तब सूखा पड़ता है। जब फसल पक कर तैयार हो जाती है, तब वर्षा हो जाती है। जिससे खेतों में तैयार फसल बड़े पैमाने पर नष्ट हो जाती है। प्राकृतिक प्रकोप सूखा और अतिवृष्टि के कारण प्रतिवर्ष किसानों के फसल उत्पादन का 20-25 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाता है।
मिट्टी के बिखराव को रोकने के लिये वर्षा की बूँदों को भूमि की सतह पर रोकना पड़ेगा। इससे सतही अपवाह को रोककर भूमि में जल का संरक्षण भी हो जाता है। इसके लिये भूमि में ढाल के विपरीत दिशा में समोच्च रेखा पर कृषि कार्य करके, खेतों में पट्टियाँ बनाकर (स्ट्रिप कोपिंग), भूक्षरणकारी फसलों (मक्का, कपास, आलू, सोयाबीन, बाजरा, मूँग आदि) की खेती किया जा सकता है। ढाल वाले क्षेत्र में समोच्च बाँध बनाकर कृषि करने से भूमि की जल-शोषण क्षमता बढ़ जाती है।अत्यधिक ढाल वाली भूमि की लम्बाई कम करके, संरचना वेदिका बनाकर, ढाल की तीव्रता को कम कर, बहाव को धीमा किया जा सकता है। समोच्च रेखीय गड्ढे खोदकर जल संग्रह किया जाना चाहिए। इससे जल के तीव्र बहाव को नियंत्रित करने के साथ-साथ जल संग्रहण भी होता है।
वनस्पति रहित व क्षरित भूमि पर बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करने से आसमान से गिरने वाली वर्षा की बूँदों की गति धीमा होने तथा वृक्ष की जड़ों द्वारा मिट्टी को बाँधे रखने से मृदा क्षरण नियंत्रित होता है। मैदानी क्षेत्रों में नदियों के जल प्रवाह की तीव्रता को कम करने के लिये बाँध और बैराज बनाकर जल संग्रहित किया जाता है और जल को आवश्यकतानुसार विद्युत एवं सिंचाई परियोजनाओं के उपयोग में लाया जाता है। सरकार मृदा संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम एवं योजनाएँ संचालित कर रही है।
जल संरक्षण
देश की अर्थव्यवस्था में कृषि का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान है। देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी के विकास के बावजूद देश की अधिकांश कृषि मानसून अथवा वर्षा पर निर्भर करती है। मानसून की अनिश्चितता के कारण फसल उत्पादन में भी अनिश्चितता बनी रहती है।
पर्यावरणीय परिवर्तन एवं पारिस्थितिकीय अन्सतुलन के कारण मानसून के समय में बदलाव हो रहा है, अर्थात् फसल लगाने के समय जब किसानों को पानी की आवश्यकता होती है, तब सूखा पड़ता है। जब फसल पक कर तैयार हो जाती है, तब वर्षा हो जाती है। जिससे खेतों में तैयार फसल बड़े पैमाने पर नष्ट हो जाती है। प्राकृतिक प्रकोप सूखा और अतिवृष्टि के कारण प्रतिवर्ष किसानों के फसल उत्पादन का 20-25 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाता है।
फसल उत्पादन के लिये भूमि में नमी की पर्याप्त आवश्यकता होती है जबकि सूर्य के ताप एवं वायु के प्रवाह के कारण बड़े पैमाने पर मिट्टी की नमी वाष्पीकृत हो जाती है। इसलिये वर्ष भर मिट्टी में पर्याप्त नमी बनाए रखने के लिये आवश्यक है कि वर्षा ऋतु में जल को जगह-जगह रोककर संग्रहित किया जाये। जिससे मिट्टी में नमी के साथ-साथ भूजल स्तर भी बढ़े।
बारिश के जल को खेत के ढाल के लम्बवत बनी नालियों व मेढ़ के बीच एकत्र करके जमीन में सोखा जा सकता है। वर्षा के सतही अपवाह एवं छत से बहते पानी के संचय के लिये छोटे-बड़े जलाशय, टैंक एवं गड्ढे में भरकर वर्षाजल को बहने से रोका जा सकता है। इन गड्ढों में रुके जल का उपयोग बाद में सिंचाई एवं पशुओं के लिये किया जा सकता है। टैंक के आकार का निर्धारण स्थान विशेष की प्राकृतिक संरचना, उपलब्ध जलस्रोत एवं सिंचाई की आवश्यकता पर निर्भर करता है।
मनुष्य की भोजन एवं शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति में जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जल की समुचित उपलब्धता के बिना कृषि सम्भव ही नहीं है। भारत में 70 प्रतिशत कृषि मानसून पर निर्भर करती है। जिस वर्ष मानसून अच्छा होता है कृषि की पैदावार अच्छी होती है। पर्यावरणीय एवं वातावरणीय परिस्थितियाँ दिन-प्रतिदिन प्रतिकूल होती जा रही हैं जिससे मानसून के समयान्तराल एवं प्रभावशीलता में विषमता उत्पन्न हो रही है।
देश में वर्षा ऋतु में जल संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था के अभाव के कारण मृदा सरंक्षण की समस्या होने के साथ ही वर्षा का शुद्ध और मीठा जल बड़े पैमाने पर नदियों के माध्यम से समुद्र के खारे पानी में मिल जाता है। वर्षाजल को जगह-जगह रोककर मृदा संरक्षण के साथ-साथ जल संकट की चुनौती को निपटाया जा सकता है। इससेे घटते भूजल की समस्या का समाधान भी हो सकता है।
केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के सहयोग से स्थानीय स्तर पर जल संरक्षण के लिये कई योजनाएँ संचालित कर रही है, परन्तु सरकारी योजनाओं की सफलता आम जनमानस की हिस्सेदारी पर निर्भर करती है। इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ पर्यावरण एवं स्वच्छ जल संसाधन मुहैया करने के लिये सरकारी योजनाओं में आम जनमानस की हिस्सेदारी बढ़ाई जाये। इसके लिये सरकारी के साथ-साथ व्यक्तिगत स्तर पर जल संरक्षण, मृदा संरक्षण, पर्यावरण संरक्षण के लिये प्रयास किया जाना आवश्यक है।
(लेखक- खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन हाथरस में अभिहित अधिकारी हैं)
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