प्राकृतिक घटकों के ह्रास से निजात पाने के लिये भारत में बहुत सारी योजनाओं पर काम हुआ है। उन योजनाओं के घोषित लक्ष्य और उपचारित इलाके भले ही अलग-अलग रहे हैं पर उन सबके अन्तर्गत किये जाने वाले कामों का केन्द्र बिन्दु मौटे तौर पर पानी और मिट्टी की बिगड़ती हालत को ठीक करना ही रहा है। यह कहानी सन 1880 के अकाल कमीशन और 1928 के रायल कमीशन ऑन एग्रीकल्चर (Royal Commission on Agriculture 1928) से प्रारम्भ हुई है और उसका फोकस स्थान विशेष की सबसे अधिक गम्भीर तात्कालिक समस्या के निदान का रहा है। इसी कारण आजादी के पहले संस्थानों का गठन हुआ।
सन 1962-63 में बाँधों के जलाशयों में गाद के भराव को कम करने के लिये रिवर वैली प्रोजेक्ट लिये गए। सन 1972-73 में सूखा प्रभावित इलाकों के लिये डी.पी.ए.पी प्रारम्भ हुआ। सन 1977-78 में मरुस्थली इलाकों की हालत सुधारने के लिये डेजर्ट डेवलपमेंट प्रोग्राम (Desert Development Programme 1977-78) और 1980-81 में बाढ़ प्रवण नदियों के कैचमेंट में बाढ़ प्रबन्ध के लिये एफ.डी.आर योजना (Integrated Watershed Management in the Catchment of Flood Prone Area 1980-81) को लागू किया।
1980 के दशक में सुखोमाजरी और रालेगाँव की सफलता ने वैज्ञानिकों तथा योजनाकारों का ध्यान खींचा। परिणामस्वरूप वर्षा आश्रित इलाकों में खेती को विश्वसनीय आधार प्रदान करने पानी और मिट्टी के संरक्षण के लिये अनेक कार्यक्रम प्रारम्भ हुए। सन 1995 में भारत के ग्रामीण विकास विभाग ने वाटरशेड कार्यक्रमों की फिलॉसफी में आमूलचूल बदलाव किया। उसके स्वरूप को सँवारा और हितग्रहियों को प्लान बनाने की प्रक्रिया से जोड़ा।
परिणामस्वरूप पूरे देश में जन सहभागिता आधारित वाटरशेड कार्यक्रम अस्तित्व में आये। इन कार्यक्रमों को सरकारी हलकों में वर्षा आश्रित इलाकों में हो रही खेती को विश्वसनीय आधार प्रदान करने वाले प्रोग्राम के रूप में सहमति मिली। उन्हें अनेक नामों तथा योजना मदों से धन उपलब्ध कराया गया। सूखी खेती वाले इलाकों के किसानों ने उन्हें हाथों हाथ लिया।
विभिन्न नामों से विभिन्न विभागों तथा संस्थानों द्वारा प्रारम्भ किये उपरोक्त कार्यक्रमों मुख्यतः वाटरशेड की अवधारणा का केन्द्र बिन्दु पर्यावरणी घटकों (मिट्टी और पानी) का संरक्षण कर आर्थिक समृद्धि हासिल करना रहा है। अर्थात योजनाकारों और वैज्ञानिकों ने कहीं-न-कहीं इस बात को स्वीकारा है कि अनुत्पादक जमीन की उत्पादकता बहाली, पानी की कमी, जलाशयों में गाद जमाव इत्यादि की समस्या से लेकर वनों की बिगड़ती सेहत, घटती जैवविविधता तथा जलवायु परिवर्तन एवं नदियों के सूखने जैसी गम्भीर होती आसन्न समस्याओं का निदान प्रकृति की समृद्धि को बहाल करने में ही है। दूसरे शब्दों में टिकाऊ विकास का रास्ता, धरती के पर्यावरणी घटकों को नष्ट करने या नुकसान पहुँचाने में नहीं है।
प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का काम वाटरशेड अवधारणा के अनुसार सम्पन्न किया जाता है। पहले चरण में प्राकृतिक संसाधनों (पानी, मिट्टी और वानस्पतिक आच्छादन) को बेहतर और टिकाऊ बनाने के लिये अधिकतम प्रयास किया जाता है। उन प्रयासों में मुख्य हैं भूमि कटाव को कम करना, उपजाऊ परत को बहने से रोकना, मिट्टी की नमी की संरक्षण क्षमता की वृद्धि के लिये प्रयास करना इत्यादि। दूसरा महत्त्वपूर्ण काम है - जल संरक्षण, जल संवर्धन तथा भूजल रीचार्ज संरचनाओं का निर्माण। इस काम का लक्ष्य होता है पानी की बेहतर उपलब्धता।
यह उपलब्धता कुदरती जलचक्र के महत्त्वपूर्ण घटकों को सहयोग प्रदान करती है और तीसरा काम है इलाके में हरितमा का विस्तार, अधिक-से-अधिक वृक्षारोपण, परती जमीन पर मवेशियों के लिये घास। संक्षेप में, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का उद्देश्य होता है कि उनको यथासम्भव टिकाऊ बनाया जाये। निर्माण कार्यों के प्रभाव से मिट्टी, पानी और वनस्पतियों की मौजूदा स्थिति में सुधार होता है और उसके कारण प्रदूषण में आंशिक कमी आती है। धरती फिर से बेहतर उत्पादन देने लगती है। फिजा बदल जाती है।
दूसरे चरण में मानवीय हस्तक्षेप प्रारम्भ होता है। समाज और योजनाकारों द्वारा समृद्ध हुए प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के तौर-तरीके तय किये जाते हैं। सबसे पहले तालाबों, स्टापडैमों तथा भूगर्भ में उपलब्ध सारे-के-सारे पानी को सिंचाई के लिये प्रयुक्त कर अधिक-से-अधिक उत्पादन लेने की होड़ लगती है।
हजारों साल से चली आ रही टिकाऊ और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल परम्परागत खेती नकार दी जाती है। अधिक पानी चाहने वाली रासायनिक खेती और नगदी फसलें, मुख्य धारा में आ जाती हैं। यह होड़, कुछ ही सालों में किये कराए पर पानी फेर देती है। लोगों द्वारा उपलब्ध पानी की आखिरी बूँद तक निचोड़ ली जाती है क्योंकि आधुनिक खेती में प्रयुक्त उन्नत बीज तभी उत्पादन देता है जब उसे भरपूर पानी, माकूल मात्रा में रासायनिक फर्टीलाइजरों, कीटनाशकों तथा खरपतवारनाशक दवाओं का सहयोग मिलता है।
खेती में अपनाई उपरोक्त व्यवस्था, नए सिरे से सँवारे प्राकृतिक संसाधनों की सेहत पर ऐसा हस्तक्षेप है जो पर्यावरणी चिन्ता को जन्म देता है। सब जानते हैं कि मानवीय गतिविधियों के सकारात्मक तथा नकारात्मक परिणाम हो सकते हैं। वे परिणाम पर्यावरण को प्रभावित करते हैं। किसी भी स्थिति में, चिन्ता, कुदरती घटकों को समृद्ध करने को लेकर नहीं हो सकती।
मुख्य चिन्ता है वनों, मिट्टी, पानी और हवा पर पड़ने वाले अस्थायी और स्थायी नकारात्मक प्रभावों की। लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन से, ये प्रभाव उपजते हैं भूजल के अत्यधिक दोहन, रासायनिक खेती और उसमें काम में आने वाले हानिकारक घटकों के उपयोग के कारण। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण प्राकृतिक जलचक्र पर नकारात्मक असर पड़ता है। कहीं-कहीं उसकी निरन्तरता खंडित होती है। खंडित निरन्तरता नदियों के सूखने और जल संकट को आमंत्रित करती है। वही खंडित निरन्तरता कुओं और नलकूपों को सुखाती है। वहीं सिंचित खेती में रासायनिक खाद इत्यादि के उपयोग के कारण मिट्टी की सेहत को खराब होती है। उसकी कठोरता बढ़ती है। पानी सहेजने की ताकत कम होती है।
कीटनाशकों तथा पेस्टीसाइड्स इत्यादि के उपयोग के कारण मिट्टी, हवा और पानी का प्रदूषण होता है। उनके हानिकारक अंश धरती में मिलकर मिट्टी और भूजल को जहरीला बनाते हैं। वही भूजल नदियों, कुओं और नलकूपों के पानी को प्रदूषित करता है। अनेक लाइलाज बीमारियों को जन्म देता है। कुछ लोगों का मानना है कि कैंसर सहित अनेक बीमारियों के बढ़ने का कारण रासायनिक खेती है। वे पंजाब के मालवा इलाके का उदाहरण देकर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। उनका कहना है कि रासायनिक खेती ने प्रारम्भिक समृद्धि के बाद किसान को मुख्यतः बढ़ती लागत, कर्ज और बीमारियों के दुष्चक्र में बुरी तरह उलझा दिया है।
वैसे तो सभी सिंचित इलाकों में रासायनिक खेती के कारण पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पनपी है पर सूखी खेती वाले इलाकों में जहाँ वाटरशेड योजना के कारण मिट्टी, पानी और वानस्पतिक आधार को सुदृढ़ करने के लिये समाज की सहभागिता से प्रयास हुए हैं। अब वहाँ अविवेकी हस्तक्षेप के कारण पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पनप रही है। आर्थिक समृद्धि और विकास का रास्ता दिखाने वाले सकारात्मक परिणाम, अपनी धार खो रहे हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति और धरती को रहने योग्य बनाए रखने का रास्ता गुम हो रहा है।
वाटरशेड के सभी काम कुदरत के महत्त्वपूर्ण घटकों को बेहतर बनाते हैं इसलिये कहा जा सकता है कि वह कुदरत के नियमों को सम्मान देकर टिकाऊ विकास का रास्ता है इसलिये वाटरशेड प्रबन्ध का बीज वाक्य और लक्ष्य होना चाहिए - अविवेकी हस्तक्षेपों के कारण होने वाले पर्यावरणी खतरों से बचाता वाटरशेड प्रबन्ध। रालेगाँव, सुखोमाजरी या हिवरे बाजार का अनुभव विश्वास दिलाने के लिये काफी हैं कि धरती हमारी आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं। लालच की राह रालेगाँव, सुखोमाजरी या हिवरे बाजार को भी संकट में डाल सकता है।
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