6 दिसम्बर, 2004 को केन्द्र सरकार ने सरस्वती के अस्तित्व को मानने से मना कर दिया था। सरकार का यह दृष्टिकोण तब तक रहा, जब तक वह अपने अस्तित्व के लिये वामपंथी दलों पर आश्रित थी। सरकारी गठबन्धन से वाम दलों के प्रस्थान के बाद सरकार ने 3 दिसम्बर, 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरस्वती नदी के अस्तित्व को ‘बिना किसी सन्देह’ के स्वीकार किया। उत्तर के कथन में यह भी कहा गया कि खोज में पाये गए भू-जलमार्गों का विवरण और उसकी विशालता वैदिक ग्रन्थों में वर्णित सरस्वती से मेल खाते हैं।
यह शुभ संकेत है कि लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब केन्द्रीय सरकार की ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है। वामपंथी दल स्वभावतः हर प्रश्न को अपने शुद्ध राजनैतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी-न-किसी प्रकार सम्बन्धित इतिहासकार भी इसी दृष्टित्व से त्रस्त हैं। सरस्वती नदी को लेकर भी उन्होंने यही रुख अख्तियार किया। यह शुभ संकेत है कि लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब केन्द्रीय सरकार की ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है। पिछले सौ वर्ष से अधिक के भूगर्भ-विज्ञान और पुरातत्व के शोध व गम्भीर अध्ययन को नकारते हुए भारत सरकार के संस्कृति विभाग के मंत्री ने 6 दिसम्बर, 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ यह कहा था कि इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था। वास्तव में यह वक्तव्य मंत्री की जानकारी के अभाव का उदाहरण नहीं हो सकता, यह तत्कालीन सरकार की राजनैतिक बेबसी से ग्रस्त था। वामपंथी दल उसके गठबन्धन के प्रमुख सहायक थे और यह दल स्वभावतः हर प्रश्न को अपने शुद्ध राजनैतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी-न-किसी प्रकार सम्बन्धित इतिहासकार भी इसी दृष्टित्व से त्रस्त हैं।
दस-बारह वर्ष पहले (1999) ऐसे ही एक इतिहासकार, रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया’ में सरस्वती को सिन्धु नदी की एक सहायक नदी बताते हुए यहाँ तक कहा है कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की हेलमंद है, जिसे ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है। इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद शर्मा ने ‘आलोचना’ (त्रैमासिकः अप्रैल-जून 2001) में एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि सरस्वती किसी नदी का नाम न होकर नदियों की देवी भी हो सकती है। इससे भी भोंडी बात उन्होंने यह कही कि सरस्वती को इतना महिमा-मंडित करने के पीछे हिन्दू साम्प्रदायिक सोच है। उनके ही शब्दों में रूढ़िवादी साम्प्रदायिक कारणों से सरस्वती को सिन्धु से अधिक महान सिद्ध करना चाहते हैं। हड़प्पा के सन्दर्भ में वे (रूढ़िवादी) सोचते हैं कि (देश के) विभाजन के बाद सिन्धु तो मुसलमानों की हो गई और केवल सरस्वती ही हिन्दुओं के लिये बची है।
इस विचारधारा के पुरोधा इरफान हबीब ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के 52वें अधिवेशन (1991-92) में ‘भारत का ऐतिहासिक भूगोलः 1800-800 ई.पू.’ विषय पर सरस्वती के सम्बन्ध में ऋग्वेद के 10वें मंडल की एक ऋचा का सन्दर्भ देते हुए यह कहा कि सिन्धु और सरयू के बीच बहने वाली नदी सरस्वती वास्तव में हेलमन्द है। इरफान हबीब और फैज हबीब ने यह भी कहा है कि सरस्वती नाम की तीन नदियाँ थीं- पहली अफगानिस्तान की हेलमंद। दूसरी सिन्धु और तीसरी हरियाणा और राजस्थान में सरस्वती नाम से जो नदी आज भी बहती है। हुआ यह है कि हबीब ने जिस ऋचा का सन्दर्भ दिया है, उसका गलत अनुवाद देखा है- ग्रिफिथ के अनुवाद में यह गलती है। ऋचा इस प्रकार हैः ‘सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी।’ ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में नदियों का क्रम सिन्धु, सरस्वती और सरयू कर दिया है।
इसी मण्डल की एक और ऋचा (10,75.5) में नदियों का क्रम पूर्व से पश्चिम बिल्कुल ठीक दिया गया है और इसमें सरस्वती यमुना और शुतुद्री (सतलुज) के बीच में है- ‘इमं दह्य’ गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्री। हबीब का यह विचार भी कि सरस्वती सिन्धु नदी ही थी ये ग्रिफिथ से ही उधार लिया लगता है।
सरस्वती के सम्बन्ध में ये जो धारणाएँ व्यक्त की गई हैं, इनकी जाँच ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रन्थों के पाठ से की जानी आवश्यक है। पहले यह चर्चा की जा चुकी है कि सरस्वती न हेलमंद हो सकती, न सिन्धु। क्योंकि, यह ग्रिफिथ के गलत अनुवाद और एक गलत अनुमान के आधार पर आश्रित है। लेकिन, ऋग्वेद में इसका सशक्त प्रमाण मौजूद है। इस वेद में सरस्वती और सिन्धु की अलग-अलग स्पष्ट चर्चा हैं। ऋग्वेद के चौथे मण्डल को छोड़कर सभी मण्डलों में सरस्वती का एक महान नदी के रूप में वर्णन है।
ऋग्वेद में सरस्वती के सम्बन्ध में ठोस भौगोलिक तत्व भी दिए गए हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात सातवें मण्डल की एक ऋचा में कही गई है। उस ऋचा का अनुवाद इस प्रकार है- नदियों में अकेली सरस्वती ही पहचानी जाती अपनेपन से/ स्वच्छ चमकती चली जाती वह पर्वतों से समुद्र तक। (एकांचेनत्सरस्वती नदीनां शुचिंर्यती गिरित्य आ संमुद्रात)। इस ऋचा से दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं- एक यह कि हिमालय के पहाड़ों से निकलने वाली सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी। अतः उसका सिन्धु नदी का सहायक होना सम्भव नहीं है। जैसा शर्मा ने कहा है। दूसरी यह कि ऋग्वेद के रचयिता सरयू और सिन्धु को बड़ी नदी तो मानते हैं, पर सरस्वती को सिन्धु से अधिक महिमा-मण्डित करते हैं। निश्चय ही यदि सरस्वती छोटी नदी होती और सिन्धु की केवल सहायक नदी ही होती तो सिन्धु को सरस्वती से महान बताया गया होता।
इस सन्दर्भ में एक बात की चर्चा करना आवश्यक है। कुछ विद्वान (क्लॉज और विटजैल) यह नहीं मानते हैं कि सरस्वती समुद्र में गिरती थी। उनका कहना है कि यहाँ ‘समुद्रात’ का अर्थ समुद्र नहीं है, बल्कि संगम से है, विशेषकर जब कोई सहायक नदी सिन्धु में मिलती हैं। सिन्धु की सहायक नदी को इस शब्द के अर्थ में लाना हास्यास्पद लगता है। पर विटजैल ने समुद्रात का अर्थ असीमित झील भी लगाया है। (2001) ग्रीक पुरातत्त्ववेत्ता निकोलस कजानस ने विटजैल की मान्यता का तर्क-संगत उत्तर अपनी पुस्तक ‘इण्डोआर्यन औरिजिन्स एण्ड अदर वैदिक इश्यूज’ (2009) में विभिन्न पक्षों की जाँच के बाद दिया है। समुद्रात का अर्थ समुद्र से ही है। विटजैल के सरस्वती सम्बन्धी अधिकतर विचारों से सहमत होना कठिन है।
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी रोचक है। 18वीं सदी के अन्त में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक सम्भावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी।अब रही सरस्वती की देवी होने की बात, तो उस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि, ऋग्वेद के पाठ में ही सरस्वती को देवीतमा कहा गया है, पर साथ ही उसको ‘अम्बीतमा’ और ‘नदीतमा’ भी कहा गया है। ऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धित लगभग 60 ऋचाएँ हैं। 30 ऋचाओं से अधिक में नदी के रूप में इसकी महिमा का बखान है और अन्य में इसका विभिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है। अतः उसे देवी के रूप में मान्यता देना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। ऋग्वेद के रचयिता उन सब को देवता-देवी मानते थे, जिनसे उन्हें अपने कल्याण की अपेक्षा और आशा होती थी। नदी से जल और अन्न की प्राप्ति होती है। अतः पहले ही मण्डल में सरस्वती की देवी के रूप में स्तुति की गई है- ‘इला सरस्वती मही तिस्तो देवीर्मयो भवः बर्हिः सीदन्त्व स्निधः।’
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल में सरस्वती एक महान नदी थी, जो पहाड़ों से निकलकर कच्छ में समुद्र से मिलती थी। ऋग्वेद का क्षेत्र मुख्यतः सप्तसिन्धु का प्रदेश है, जो आज का पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का पंजाब और उसका समीपवर्ती क्षेत्र हैं। सप्तसिन्धु नाम उस क्षेत्र की सात नदियों पर पड़ा था- सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), विपासा (व्यास), असकिनी (चेनाब), परूष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम) और सिन्धु।
ऋग्वेद के अतिरिक्त सरस्वती का उल्लेख अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी है। सरस्वती के सूखने की बात वैदिक ऋचाओं में तो नहीं है। पर, महाभारत में इसकी चर्चा है कि यह विशाल नदी सरस्वती महाभारत के समय समुद्र तक नहीं जाती, मरुस्थल में विनसन (आजकल सिरसा के पास) में ही लुप्त हो जाती है। भागवत में भी सरस्वती तट पर ऋषि-मुनियों के आश्रमों का बार-बार उल्लेख हुआ है।
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी रोचक है। 18वीं सदी के अन्त में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक सम्भावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी। फ्रांस के एक भूगोल शास्त्री ल. विवियेन द सेंट मार्टिन ने 1860 में वैदिक भूगोल की अपनी पुस्तक में घग्गर-हकरा की पहचान कर ली थी। बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में 1886 में भारत के भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप अधीक्षक आरडी. ओल्ढम ने पहली बार सरस्वती के प्राचीन नदी तल और सतलुज व यमुना को उसकी सहायक नदियाँ होने पर भू-वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट किया था। सात वर्ष बाद (1893) एक अन्य प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम ने उसी पत्रिका में इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदी तल की पुष्टि की। उनके अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हकरा के सूखे नदी तल पर ही बहती थी। स्थानीय जन-मान्यता की चर्चा करते हुए उसने कहा कि प्राचीन काल में हकरा रेगिस्तान क्षेत्र से होती हुई समुद्र तक जाती थी। ओल्ढम ने अपने आलेख में यह भी कहा कि सरस्वती नदी का वेदों में दिया गया विवरण कि वह समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरुस्थल में खो गई, अपने-अपने समय का ठीक वर्णन है।
ओल्ढम के बाद सरस्वती के नदी तल की खोज में टैसीटोरी (1918), औरेल स्टाइन (1940-41) और अमलानन्द घोष (1951-53) ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये, जिसका विस्तृत विवरण केटी फीरोज दलाल ने पूना विश्वविद्यालय में प्रेषित अपनी पीएचडी शोध ग्रन्थ (1972) में किया है। टैसीटोरी ने बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग में पुरातात्विक खोज में सरस्वती के नदीतल के किनारे-किनारे अनेकों ठेरों की पहचान की। लेकिन आगे कुछ काम करने से पहले उसकी मृत्यु हो गई। पर पहली वास्तविक खोज सर औरेल स्टाइन ने की। 80 वर्ष की आयु में, जब उनकी नयन दृष्टि काफी क्षीण हो चुकी थी, इस अनोखे पुरातत्त्ववेत्ता ने 1940-41 में सरस्वती के किनारे-किनारे राजस्थान और बहावलपुर (अब पाकिस्तान) में यह खोज कार्य किया। इसका कुछ वर्णन उन्होंने ‘ज्यॉग्राफिकल जर्नल’ 99 (1942) में किया। उनकी डायरी में भी खोज का विवरण विस्तार से मिलता है, पर दुर्भाग्यवश यह सामग्री प्रकाशित नहीं हुई। दलाल ने उसका उपयोग अपनी थीसिस में किया है। अमलानन्द घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृिशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया (1952-53)। उनके खोजों ने इस परम्परागत विश्वास की पुष्टि की कि हकरा/ घग्गर के सूखे नदी तल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के सूखने का मुख्य कारण सतलुज की धार का बदलना था, जिससे वह सरस्वती में न मिलकर सिन्धु नदी में मिलने लगी। यमुना की धार बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना) उन्होंने इसका एक और कारण बताया।
कुछ समय बाद एक जर्मन विद्वान हर्बट विलहेमी ने भी इसका गहन अध्ययन किया, जिसके निष्कर्ष ‘जेड जियोमॉरफोलोजी’ में 1969 में एक विस्तृत लेख में प्रकाशित हुए। भूविज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बट विलहेमी का यह अध्ययन सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का सबसे अच्छा विवरण है। 1892 से 1942 तक के अध्ययनों का सन्दर्भ देते हुए उसका मुख्य निष्कर्ष है कि सिन्धु नदी के उस भाग से जो उत्तर-दक्षिण बहता है, 40-110 किलोमीटर पूर्व में एक बहुत पुराना सूखा नदी तल वास्तव में सरस्वती का ही नदी तल है।
आधुनिक वैज्ञानिक शोध को सरस्वती और उसके नदीतल से सम्बन्धित अब तक की प्राप्त सामग्री का अनुभवजन्य पराभूविज्ञान से साम्य स्थापित करने में अद्भुत सफलता मिली है। जगह के आभाव में यहाँ उसका पूरा विवरण देना सम्भव नहीं है। केवल कुछेक महत्त्वपूर्ण बातों की ही चर्चा हम कर रहे हैं। सबसे पहले सरस्वती के हिमालय से उद्भव का प्रश्न लेते हैं। कुछ वर्ष पहले (1998) दो भूगर्भ वैज्ञानिकों, वीएमके. पुरी और बीसी. वर्मा ने इस विषय पर भरी-पूरी उच्चकोटि की वैज्ञानिक सामग्री देते हुए शोध-पत्र प्रस्तुत किया है।
लगभग 125 वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्व के प्रश्न पर से सन्देह के बादल अवश्य छँट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट ने 2001 में कहा कि यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे, जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं।यमुना और मारकाण्डा नदियों के बीच के पर्वतीय क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण पर आधारित वैज्ञानिक साक्ष्य का विवेचन करते हुए वैज्ञानिक रिपोर्ट दी। उसका निष्कर्ष यह है कि वैदिक सरस्वती का उद्गम सरस्वती, जामादार और सुपिन हिमनदों से (जो नैतवार के निकट आपस में मिलते हैं।) हुआ था। इसका उन्होंने एक स्पष्ट वैज्ञानिक चित्र भी प्रस्तुत किया है। सरस्वती पहले दक्षिण-पश्चिम और फिर पश्चिमी दिशा में बहते हुए अधबद्री पर शिवालिक को तोड़ती हुई मैदानों में उतरती थी। इसका भी पूरा चित्र शोध-पत्र में दिया गया है।
स्मरण कीजिए, ऋग्वेद की ऋचा - ‘इयं शुष्मेंमिर्षिसुखाई वारू जत्सातुं गिरिणां तंविषेभिरूर्मिभिः’ (यह कमलनाल खोदने वालों को भग्न करती/ पर्वतों के शिखर को अपनी बलवान तरंगों से)। अमेरिका की ‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी’ के ‘ज्योग्राफिक इन्फॉरमेशन सिस्टम’ और रिमोट सेंसिंग यूनिट ने सेटेलाइट इमेजिंग के जरिए ऋग्वेद में दिये गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। 1995 में यूरोप की रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट्स की राडार इमेजरी से जो जानकारी मिली है, उससे स्पष्ट है कि सिन्धु और सरस्वती दो अलग-अलग नदियाँ थीं। इनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था। अम्बाला के दक्षिण में तीन सूखे पुराजलमार्ग जो पश्चिम की ओर मुड़ते दृष्टिगत होते हैं, वह निश्चय ही सरस्वती/ घग्गर और दृशाद्वती की सहायक धाराओं के थे।
अमेरिका की रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट के माध्यम से जो चित्र प्राप्त किये हैं, उनमें भी सरस्वती का नदी तल स्पष्ट है। इसके शोध से प्राप्त चित्रों की समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में भूजल विद्यमान है। जहाँ सरस्वती नदी बहती थी, वहाँ (चन्दनलाठी) कुएँ ‘बोर’ कराए गए। शोधकर्ताओं ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि बड़ी मात्रा में पानी उपलब्ध है, वह भी मीठा। इसके आधार पर वहाँ दो दर्जन से अधिक कुएँ खुदवाए गए।
अपने देश के वैज्ञानिक और वैज्ञानिका संस्थान भी इस विषय के अध्ययन में बहुत सक्रिय हैं। इस सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर प्रोफेसर यशपाल का कार्य (1984) बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 1980 में सरस्वती नदी के अस्तित्व पर एक छोटा शोध-पत्र प्रकाशित किया गया था। यशपाल ने भारतीय अन्तरिक्ष शोध संस्थान (इसरो) के तत्वाधान में यह कार्य किया था, जिसने इस विषय के शोध में आधारभूत भूमिका निभाई है। यशपाल ने कहा है, “अब तक की खोज ने सरस्वती के पथ को, जब वह बहती थी, पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है।” एक अन्य वैज्ञानिक बलदेव सहाय ने यशपाल के कार्य को आधार बनाते हुए आगे बढ़ाया है, जिससे यशपाल के निष्कर्षों की पुष्टि और सुदृढ़ होती है।
देश का सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान-भाभा परमाणु शोध संस्थान भी इस क्षेत्र में सक्रिय है। भौतिकी शोध संस्थान, अहमदाबाद (जो भारतीय अन्तरिक्ष शोध संस्थान का विभाग है) और राजस्थान भूजल विभाग से मिलकर भाभा संस्थान 1998 से सरस्वती के ‘अस्तित्व और सम्भावित स्थिति’ की पहचान निर्धारित करने के कार्य में संलग्न है। ऐसे कई महत्त्वपूर्ण संस्थान इस कार्य में जुटे हैं। ज्योलॉजिकल सोसायटी ऑफ इण्डिया ने पिछली सदी के 90 के दशक में ‘वैदिक सरस्वती’ पर एक वृहद विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। सोसायटी की तरफ से 1999 में प्रकाशित दस्तावेजों में विचार गोष्ठी के दौरान पढ़े गए शोध-पत्र व विचार-विनिमय का सार संकलित है।
लगभग 125 वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्त्व के प्रश्न पर से सन्देह के बादल अवश्य छँट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट ने 2001 में कहा कि यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे, जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं। स्मरण रहे कि ब्रायंट का आर्यों से सम्बन्धित गहन अध्ययन अत्यन्त निष्पक्ष माना जाता है। आरम्भ में कहा जा चुका है कि 6 दिसम्बर, 2004 को केन्द्र सरकार ने सरस्वती के अस्तित्व को मानने से मना कर दिया था।
सरकार का यह दृष्टिकोण तब तक रहा, जब तक वह अपने अस्तित्व के लिये वामपंथी दलों पर आश्रित थी। सरकार ही नहीं, एक दो वरिष्ठ नेता भी इस बात से दुखी थे कि कई सरकारी संस्थान इस नदी की खोज/ शोध में लिप्त थे।
मंत्री के वक्तव्य के लगभग दो वर्ष बाद (2006) परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालयों की संसदीय स्थायी समिति ने भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण की इस बात के लिये निन्दा भी की। उस समय समिति के अध्यक्ष सीताराम येचुरी थे। समिति ने कहा, “भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण अपने कार्यकलाप में भटक गया है। यह पुरातत्व में वैज्ञानिक अनुशासन बढ़ाने और उसका नेतृत्व करने में विफल रहा है। इस मामले में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण जो कि एक वैज्ञानिक संस्था है, उसने अपने कार्य में सही रास्ता नहीं अपनाया।” सरकारी गठबन्धन से वाम दलों के प्रस्थान के बाद सरकार ने 3 दिसम्बर, 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरस्वती नदी के अस्तित्त्व को ‘बिना किसी सन्देह’ के स्वीकार किया। उत्तर के कथन में यह भी कहा गया कि खोज में पाये गए भू-जलमार्गों का विवरण और उसकी विशालता वैदिक ग्रन्थों में वर्णित सरस्वती से मेल खाते हैं।
इस प्रकार का परिवर्तन हमारे इतिहास के अध्ययन के एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों की समीक्षा राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर करने से ऐसी भ्रामक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके प्रति कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया पुरातत्त्व विभाग के प्रो. दिलीप चक्रवर्ती ने भी अपनी पुस्तक ‘द बैटिल फॉर एशियंट इंडिया’ (2008) में चिन्ता व्यक्त की है। यह स्पष्ट कहा है कि भारत में यह प्रवृत्ति इन दिनों काफी बढ़ गई है। यह अपने में एक अलग विषय है।
यह शुभ संकेत है कि लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब केन्द्रीय सरकार की ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है। वामपंथी दल स्वभावतः हर प्रश्न को अपने शुद्ध राजनैतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी-न-किसी प्रकार सम्बन्धित इतिहासकार भी इसी दृष्टित्व से त्रस्त हैं। सरस्वती नदी को लेकर भी उन्होंने यही रुख अख्तियार किया। यह शुभ संकेत है कि लोक-स्मृति में सदा जीवित सरस्वती नदी अब केन्द्रीय सरकार की ओछी राजनीति से बाहर निकल रही है। पिछले सौ वर्ष से अधिक के भूगर्भ-विज्ञान और पुरातत्व के शोध व गम्भीर अध्ययन को नकारते हुए भारत सरकार के संस्कृति विभाग के मंत्री ने 6 दिसम्बर, 2004 को संसद में बड़े विश्वास के साथ यह कहा था कि इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था। वास्तव में यह वक्तव्य मंत्री की जानकारी के अभाव का उदाहरण नहीं हो सकता, यह तत्कालीन सरकार की राजनैतिक बेबसी से ग्रस्त था। वामपंथी दल उसके गठबन्धन के प्रमुख सहायक थे और यह दल स्वभावतः हर प्रश्न को अपने शुद्ध राजनैतिक दृष्टि से ही देखते हैं। इन दलों से किसी-न-किसी प्रकार सम्बन्धित इतिहासकार भी इसी दृष्टित्व से त्रस्त हैं।
दस-बारह वर्ष पहले (1999) ऐसे ही एक इतिहासकार, रामशरण शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘एडवेंट ऑफ दि आर्यन्स इन इण्डिया’ में सरस्वती को सिन्धु नदी की एक सहायक नदी बताते हुए यहाँ तक कहा है कि ऋग्वेद में जिस सरस्वती का उल्लेख है, वह अफगानिस्तान की हेलमंद है, जिसे ‘अवेस्ता’ में हरखवती कहा गया है। इस पुस्तक के प्रकाशन के दो वर्ष बाद शर्मा ने ‘आलोचना’ (त्रैमासिकः अप्रैल-जून 2001) में एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि सरस्वती किसी नदी का नाम न होकर नदियों की देवी भी हो सकती है। इससे भी भोंडी बात उन्होंने यह कही कि सरस्वती को इतना महिमा-मंडित करने के पीछे हिन्दू साम्प्रदायिक सोच है। उनके ही शब्दों में रूढ़िवादी साम्प्रदायिक कारणों से सरस्वती को सिन्धु से अधिक महान सिद्ध करना चाहते हैं। हड़प्पा के सन्दर्भ में वे (रूढ़िवादी) सोचते हैं कि (देश के) विभाजन के बाद सिन्धु तो मुसलमानों की हो गई और केवल सरस्वती ही हिन्दुओं के लिये बची है।
इस विचारधारा के पुरोधा इरफान हबीब ने भारतीय इतिहास कांग्रेस के 52वें अधिवेशन (1991-92) में ‘भारत का ऐतिहासिक भूगोलः 1800-800 ई.पू.’ विषय पर सरस्वती के सम्बन्ध में ऋग्वेद के 10वें मंडल की एक ऋचा का सन्दर्भ देते हुए यह कहा कि सिन्धु और सरयू के बीच बहने वाली नदी सरस्वती वास्तव में हेलमन्द है। इरफान हबीब और फैज हबीब ने यह भी कहा है कि सरस्वती नाम की तीन नदियाँ थीं- पहली अफगानिस्तान की हेलमंद। दूसरी सिन्धु और तीसरी हरियाणा और राजस्थान में सरस्वती नाम से जो नदी आज भी बहती है। हुआ यह है कि हबीब ने जिस ऋचा का सन्दर्भ दिया है, उसका गलत अनुवाद देखा है- ग्रिफिथ के अनुवाद में यह गलती है। ऋचा इस प्रकार हैः ‘सरस्वती सरयुः सिन्धुरूर्मिभिर्महो महीरवसा यन्तु वक्षणी।’ ग्रिफिथ ने अपने अनुवाद में नदियों का क्रम सिन्धु, सरस्वती और सरयू कर दिया है।
इसी मण्डल की एक और ऋचा (10,75.5) में नदियों का क्रम पूर्व से पश्चिम बिल्कुल ठीक दिया गया है और इसमें सरस्वती यमुना और शुतुद्री (सतलुज) के बीच में है- ‘इमं दह्य’ गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्री। हबीब का यह विचार भी कि सरस्वती सिन्धु नदी ही थी ये ग्रिफिथ से ही उधार लिया लगता है।
सरस्वती के सम्बन्ध में ये जो धारणाएँ व्यक्त की गई हैं, इनकी जाँच ऋग्वेद और अन्य प्राचीन ग्रन्थों के पाठ से की जानी आवश्यक है। पहले यह चर्चा की जा चुकी है कि सरस्वती न हेलमंद हो सकती, न सिन्धु। क्योंकि, यह ग्रिफिथ के गलत अनुवाद और एक गलत अनुमान के आधार पर आश्रित है। लेकिन, ऋग्वेद में इसका सशक्त प्रमाण मौजूद है। इस वेद में सरस्वती और सिन्धु की अलग-अलग स्पष्ट चर्चा हैं। ऋग्वेद के चौथे मण्डल को छोड़कर सभी मण्डलों में सरस्वती का एक महान नदी के रूप में वर्णन है।
ऋग्वेद में सरस्वती के सम्बन्ध में ठोस भौगोलिक तत्व भी दिए गए हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण बात सातवें मण्डल की एक ऋचा में कही गई है। उस ऋचा का अनुवाद इस प्रकार है- नदियों में अकेली सरस्वती ही पहचानी जाती अपनेपन से/ स्वच्छ चमकती चली जाती वह पर्वतों से समुद्र तक। (एकांचेनत्सरस्वती नदीनां शुचिंर्यती गिरित्य आ संमुद्रात)। इस ऋचा से दो बातें बिल्कुल स्पष्ट हैं- एक यह कि हिमालय के पहाड़ों से निकलने वाली सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी। अतः उसका सिन्धु नदी का सहायक होना सम्भव नहीं है। जैसा शर्मा ने कहा है। दूसरी यह कि ऋग्वेद के रचयिता सरयू और सिन्धु को बड़ी नदी तो मानते हैं, पर सरस्वती को सिन्धु से अधिक महिमा-मण्डित करते हैं। निश्चय ही यदि सरस्वती छोटी नदी होती और सिन्धु की केवल सहायक नदी ही होती तो सिन्धु को सरस्वती से महान बताया गया होता।
इस सन्दर्भ में एक बात की चर्चा करना आवश्यक है। कुछ विद्वान (क्लॉज और विटजैल) यह नहीं मानते हैं कि सरस्वती समुद्र में गिरती थी। उनका कहना है कि यहाँ ‘समुद्रात’ का अर्थ समुद्र नहीं है, बल्कि संगम से है, विशेषकर जब कोई सहायक नदी सिन्धु में मिलती हैं। सिन्धु की सहायक नदी को इस शब्द के अर्थ में लाना हास्यास्पद लगता है। पर विटजैल ने समुद्रात का अर्थ असीमित झील भी लगाया है। (2001) ग्रीक पुरातत्त्ववेत्ता निकोलस कजानस ने विटजैल की मान्यता का तर्क-संगत उत्तर अपनी पुस्तक ‘इण्डोआर्यन औरिजिन्स एण्ड अदर वैदिक इश्यूज’ (2009) में विभिन्न पक्षों की जाँच के बाद दिया है। समुद्रात का अर्थ समुद्र से ही है। विटजैल के सरस्वती सम्बन्धी अधिकतर विचारों से सहमत होना कठिन है।
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी रोचक है। 18वीं सदी के अन्त में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक सम्भावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी।अब रही सरस्वती की देवी होने की बात, तो उस पर अधिक चर्चा की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि, ऋग्वेद के पाठ में ही सरस्वती को देवीतमा कहा गया है, पर साथ ही उसको ‘अम्बीतमा’ और ‘नदीतमा’ भी कहा गया है। ऋग्वेद में सरस्वती सम्बन्धित लगभग 60 ऋचाएँ हैं। 30 ऋचाओं से अधिक में नदी के रूप में इसकी महिमा का बखान है और अन्य में इसका विभिन्न प्रकार से वर्णन किया गया है। अतः उसे देवी के रूप में मान्यता देना कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है। ऋग्वेद के रचयिता उन सब को देवता-देवी मानते थे, जिनसे उन्हें अपने कल्याण की अपेक्षा और आशा होती थी। नदी से जल और अन्न की प्राप्ति होती है। अतः पहले ही मण्डल में सरस्वती की देवी के रूप में स्तुति की गई है- ‘इला सरस्वती मही तिस्तो देवीर्मयो भवः बर्हिः सीदन्त्व स्निधः।’
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि ऋग्वेद काल में सरस्वती एक महान नदी थी, जो पहाड़ों से निकलकर कच्छ में समुद्र से मिलती थी। ऋग्वेद का क्षेत्र मुख्यतः सप्तसिन्धु का प्रदेश है, जो आज का पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का पंजाब और उसका समीपवर्ती क्षेत्र हैं। सप्तसिन्धु नाम उस क्षेत्र की सात नदियों पर पड़ा था- सरस्वती, शुतुद्री (सतलुज), विपासा (व्यास), असकिनी (चेनाब), परूष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम) और सिन्धु।
ऋग्वेद के अतिरिक्त सरस्वती का उल्लेख अन्य प्राचीन ग्रन्थों में भी है। सरस्वती के सूखने की बात वैदिक ऋचाओं में तो नहीं है। पर, महाभारत में इसकी चर्चा है कि यह विशाल नदी सरस्वती महाभारत के समय समुद्र तक नहीं जाती, मरुस्थल में विनसन (आजकल सिरसा के पास) में ही लुप्त हो जाती है। भागवत में भी सरस्वती तट पर ऋषि-मुनियों के आश्रमों का बार-बार उल्लेख हुआ है।
पुराना है सरस्वती की खोज का सिलसिला
आधुनिक काल में सरस्वती की खोज की कहानी रोचक है। 18वीं सदी के अन्त में विद्वानों को वैदिक सरस्वती से सम्बन्धित समस्याओं की जानकारी होने लगी थी। 1830 तक सरस्वती घाटी की सामान्य पुरातात्विक सम्भावनाओं और सक्षमता की समझ भी काफी बढ़ गई थी। फ्रांस के एक भूगोल शास्त्री ल. विवियेन द सेंट मार्टिन ने 1860 में वैदिक भूगोल की अपनी पुस्तक में घग्गर-हकरा की पहचान कर ली थी। बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में 1886 में भारत के भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप अधीक्षक आरडी. ओल्ढम ने पहली बार सरस्वती के प्राचीन नदी तल और सतलुज व यमुना को उसकी सहायक नदियाँ होने पर भू-वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट किया था। सात वर्ष बाद (1893) एक अन्य प्रसिद्ध भू-वैज्ञानिक सीएफ ओल्ढम ने उसी पत्रिका में इस विषय की विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदी तल की पुष्टि की। उनके अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हकरा के सूखे नदी तल पर ही बहती थी। स्थानीय जन-मान्यता की चर्चा करते हुए उसने कहा कि प्राचीन काल में हकरा रेगिस्तान क्षेत्र से होती हुई समुद्र तक जाती थी। ओल्ढम ने अपने आलेख में यह भी कहा कि सरस्वती नदी का वेदों में दिया गया विवरण कि वह समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरुस्थल में खो गई, अपने-अपने समय का ठीक वर्णन है।
ओल्ढम के बाद सरस्वती के नदी तल की खोज में टैसीटोरी (1918), औरेल स्टाइन (1940-41) और अमलानन्द घोष (1951-53) ने महत्त्वपूर्ण कार्य किये, जिसका विस्तृत विवरण केटी फीरोज दलाल ने पूना विश्वविद्यालय में प्रेषित अपनी पीएचडी शोध ग्रन्थ (1972) में किया है। टैसीटोरी ने बीकानेर राज्य के उत्तरी भाग में पुरातात्विक खोज में सरस्वती के नदीतल के किनारे-किनारे अनेकों ठेरों की पहचान की। लेकिन आगे कुछ काम करने से पहले उसकी मृत्यु हो गई। पर पहली वास्तविक खोज सर औरेल स्टाइन ने की। 80 वर्ष की आयु में, जब उनकी नयन दृष्टि काफी क्षीण हो चुकी थी, इस अनोखे पुरातत्त्ववेत्ता ने 1940-41 में सरस्वती के किनारे-किनारे राजस्थान और बहावलपुर (अब पाकिस्तान) में यह खोज कार्य किया। इसका कुछ वर्णन उन्होंने ‘ज्यॉग्राफिकल जर्नल’ 99 (1942) में किया। उनकी डायरी में भी खोज का विवरण विस्तार से मिलता है, पर दुर्भाग्यवश यह सामग्री प्रकाशित नहीं हुई। दलाल ने उसका उपयोग अपनी थीसिस में किया है। अमलानन्द घोष ने उत्तरी बीकानेर में सरस्वती और दृिशाद्वती घाटियों का गहन अध्ययन किया (1952-53)। उनके खोजों ने इस परम्परागत विश्वास की पुष्टि की कि हकरा/ घग्गर के सूखे नदी तल पर ही सरस्वती बहती थी। इनमें ओल्ढम के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की गई कि सरस्वती के सूखने का मुख्य कारण सतलुज की धार का बदलना था, जिससे वह सरस्वती में न मिलकर सिन्धु नदी में मिलने लगी। यमुना की धार बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना) उन्होंने इसका एक और कारण बताया।
कुछ समय बाद एक जर्मन विद्वान हर्बट विलहेमी ने भी इसका गहन अध्ययन किया, जिसके निष्कर्ष ‘जेड जियोमॉरफोलोजी’ में 1969 में एक विस्तृत लेख में प्रकाशित हुए। भूविज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बट विलहेमी का यह अध्ययन सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का सबसे अच्छा विवरण है। 1892 से 1942 तक के अध्ययनों का सन्दर्भ देते हुए उसका मुख्य निष्कर्ष है कि सिन्धु नदी के उस भाग से जो उत्तर-दक्षिण बहता है, 40-110 किलोमीटर पूर्व में एक बहुत पुराना सूखा नदी तल वास्तव में सरस्वती का ही नदी तल है।
आधुनिक वैज्ञानिक शोध को सरस्वती और उसके नदीतल से सम्बन्धित अब तक की प्राप्त सामग्री का अनुभवजन्य पराभूविज्ञान से साम्य स्थापित करने में अद्भुत सफलता मिली है। जगह के आभाव में यहाँ उसका पूरा विवरण देना सम्भव नहीं है। केवल कुछेक महत्त्वपूर्ण बातों की ही चर्चा हम कर रहे हैं। सबसे पहले सरस्वती के हिमालय से उद्भव का प्रश्न लेते हैं। कुछ वर्ष पहले (1998) दो भूगर्भ वैज्ञानिकों, वीएमके. पुरी और बीसी. वर्मा ने इस विषय पर भरी-पूरी उच्चकोटि की वैज्ञानिक सामग्री देते हुए शोध-पत्र प्रस्तुत किया है।
लगभग 125 वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्व के प्रश्न पर से सन्देह के बादल अवश्य छँट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट ने 2001 में कहा कि यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे, जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं।यमुना और मारकाण्डा नदियों के बीच के पर्वतीय क्षेत्र के गहन सर्वेक्षण पर आधारित वैज्ञानिक साक्ष्य का विवेचन करते हुए वैज्ञानिक रिपोर्ट दी। उसका निष्कर्ष यह है कि वैदिक सरस्वती का उद्गम सरस्वती, जामादार और सुपिन हिमनदों से (जो नैतवार के निकट आपस में मिलते हैं।) हुआ था। इसका उन्होंने एक स्पष्ट वैज्ञानिक चित्र भी प्रस्तुत किया है। सरस्वती पहले दक्षिण-पश्चिम और फिर पश्चिमी दिशा में बहते हुए अधबद्री पर शिवालिक को तोड़ती हुई मैदानों में उतरती थी। इसका भी पूरा चित्र शोध-पत्र में दिया गया है।
स्मरण कीजिए, ऋग्वेद की ऋचा - ‘इयं शुष्मेंमिर्षिसुखाई वारू जत्सातुं गिरिणां तंविषेभिरूर्मिभिः’ (यह कमलनाल खोदने वालों को भग्न करती/ पर्वतों के शिखर को अपनी बलवान तरंगों से)। अमेरिका की ‘नेशनल ज्योग्राफिक सोसायटी’ के ‘ज्योग्राफिक इन्फॉरमेशन सिस्टम’ और रिमोट सेंसिंग यूनिट ने सेटेलाइट इमेजिंग के जरिए ऋग्वेद में दिये गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। 1995 में यूरोप की रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट्स की राडार इमेजरी से जो जानकारी मिली है, उससे स्पष्ट है कि सिन्धु और सरस्वती दो अलग-अलग नदियाँ थीं। इनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं था। अम्बाला के दक्षिण में तीन सूखे पुराजलमार्ग जो पश्चिम की ओर मुड़ते दृष्टिगत होते हैं, वह निश्चय ही सरस्वती/ घग्गर और दृशाद्वती की सहायक धाराओं के थे।
अमेरिका की रिमोट सेंसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट के माध्यम से जो चित्र प्राप्त किये हैं, उनमें भी सरस्वती का नदी तल स्पष्ट है। इसके शोध से प्राप्त चित्रों की समीक्षा से यह पता लगा कि जैसलमेर क्षेत्र में भूजल विद्यमान है। जहाँ सरस्वती नदी बहती थी, वहाँ (चन्दनलाठी) कुएँ ‘बोर’ कराए गए। शोधकर्ताओं ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि बड़ी मात्रा में पानी उपलब्ध है, वह भी मीठा। इसके आधार पर वहाँ दो दर्जन से अधिक कुएँ खुदवाए गए।
अपने देश के वैज्ञानिक और वैज्ञानिका संस्थान भी इस विषय के अध्ययन में बहुत सक्रिय हैं। इस सम्बन्ध में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के चांसलर प्रोफेसर यशपाल का कार्य (1984) बहुत महत्त्वपूर्ण है। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने 1980 में सरस्वती नदी के अस्तित्व पर एक छोटा शोध-पत्र प्रकाशित किया गया था। यशपाल ने भारतीय अन्तरिक्ष शोध संस्थान (इसरो) के तत्वाधान में यह कार्य किया था, जिसने इस विषय के शोध में आधारभूत भूमिका निभाई है। यशपाल ने कहा है, “अब तक की खोज ने सरस्वती के पथ को, जब वह बहती थी, पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है।” एक अन्य वैज्ञानिक बलदेव सहाय ने यशपाल के कार्य को आधार बनाते हुए आगे बढ़ाया है, जिससे यशपाल के निष्कर्षों की पुष्टि और सुदृढ़ होती है।
देश का सबसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्थान-भाभा परमाणु शोध संस्थान भी इस क्षेत्र में सक्रिय है। भौतिकी शोध संस्थान, अहमदाबाद (जो भारतीय अन्तरिक्ष शोध संस्थान का विभाग है) और राजस्थान भूजल विभाग से मिलकर भाभा संस्थान 1998 से सरस्वती के ‘अस्तित्व और सम्भावित स्थिति’ की पहचान निर्धारित करने के कार्य में संलग्न है। ऐसे कई महत्त्वपूर्ण संस्थान इस कार्य में जुटे हैं। ज्योलॉजिकल सोसायटी ऑफ इण्डिया ने पिछली सदी के 90 के दशक में ‘वैदिक सरस्वती’ पर एक वृहद विचार गोष्ठी का आयोजन किया था। सोसायटी की तरफ से 1999 में प्रकाशित दस्तावेजों में विचार गोष्ठी के दौरान पढ़े गए शोध-पत्र व विचार-विनिमय का सार संकलित है।
लगभग 125 वर्ष की खोज, शोध और अध्ययन से सरस्वती नदी के अस्तित्त्व के प्रश्न पर से सन्देह के बादल अवश्य छँट गए हैं। पूरे साक्ष्य के आधार पर हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायंट ने 2001 में कहा कि यह तो साफ मालूम होता है कि ऋग्वेद रचयिता उस समय सरस्वती नदी के किनारे रह रहे थे, जबकि वह एक विशाल नदी थी और उन्हें इसका बिल्कुल भी बोध नहीं था कि वे कहीं बाहर से आए हैं। स्मरण रहे कि ब्रायंट का आर्यों से सम्बन्धित गहन अध्ययन अत्यन्त निष्पक्ष माना जाता है। आरम्भ में कहा जा चुका है कि 6 दिसम्बर, 2004 को केन्द्र सरकार ने सरस्वती के अस्तित्व को मानने से मना कर दिया था।
सरकार का यह दृष्टिकोण तब तक रहा, जब तक वह अपने अस्तित्व के लिये वामपंथी दलों पर आश्रित थी। सरकार ही नहीं, एक दो वरिष्ठ नेता भी इस बात से दुखी थे कि कई सरकारी संस्थान इस नदी की खोज/ शोध में लिप्त थे।
मंत्री के वक्तव्य के लगभग दो वर्ष बाद (2006) परिवहन, पर्यटन और संस्कृति मंत्रालयों की संसदीय स्थायी समिति ने भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण की इस बात के लिये निन्दा भी की। उस समय समिति के अध्यक्ष सीताराम येचुरी थे। समिति ने कहा, “भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण अपने कार्यकलाप में भटक गया है। यह पुरातत्व में वैज्ञानिक अनुशासन बढ़ाने और उसका नेतृत्व करने में विफल रहा है। इस मामले में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण जो कि एक वैज्ञानिक संस्था है, उसने अपने कार्य में सही रास्ता नहीं अपनाया।” सरकारी गठबन्धन से वाम दलों के प्रस्थान के बाद सरकार ने 3 दिसम्बर, 2009 को राज्यसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरस्वती नदी के अस्तित्त्व को ‘बिना किसी सन्देह’ के स्वीकार किया। उत्तर के कथन में यह भी कहा गया कि खोज में पाये गए भू-जलमार्गों का विवरण और उसकी विशालता वैदिक ग्रन्थों में वर्णित सरस्वती से मेल खाते हैं।
इस प्रकार का परिवर्तन हमारे इतिहास के अध्ययन के एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष को प्रस्तुत करता है। ऐतिहासिक साक्ष्यों की समीक्षा राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर करने से ऐसी भ्रामक स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। इसके प्रति कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया पुरातत्त्व विभाग के प्रो. दिलीप चक्रवर्ती ने भी अपनी पुस्तक ‘द बैटिल फॉर एशियंट इंडिया’ (2008) में चिन्ता व्यक्त की है। यह स्पष्ट कहा है कि भारत में यह प्रवृत्ति इन दिनों काफी बढ़ गई है। यह अपने में एक अलग विषय है।
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