वातावरण में हो रहे परिवर्तनों एवं तत्संबंधी पारस्थितिकीय कारकों की नब्ज टटोलना इंसान की वंशानुगत जिज्ञासा रही है। विषय, विज्ञान परख होने के कारण इसकी जिम्मेदारी भी वैज्ञानिक समुदाय की ही रही है एवं प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर ही राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अन्य वैज्ञानिकों व आम जनमानस की सोच एवं धारणा भी परिवर्तित हो जाती है। यहाँ तक कि स्थानीय स्तर से लेकर वैश्विक स्तर पर विकास एवं शोध परियोजनायें भी प्रचलित धारणा के हिसाब से निर्मित हो जाती हैं। किन्तु जब वैज्ञानिक निष्कर्ष एवं इनसे उत्पन्न अवधारणायें धरातलीय हकीकतों पर खरी नहीं उतरती तो वैज्ञानिक समुदाय ही नहीं बल्कि सभी बुद्धिजीवी एवं जनमानस भ्रमजाल में उलझकर अपने आप को चौराहे पर खड़ा पाता है। इस सदी की सबसे चर्चित बहस जलवायु परिवर्तन का तथाकथित कारक ‘‘वैश्विक तापमान वृद्धि’’ रही है।
पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी अध्ययन हेतु गठित अन्तरराष्ट्रीय विशेषज्ञ समूह (आईपीसीसी) की वर्ष 2010 में जारी रिपोर्ट में हिमालय के ग्लेशियरों के 2035 तक पिघल जाने की घोषणा ने वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों एवं सामाजिक सरोकारों से सम्बन्ध रखने वाले जानकारों को असमंजस में डाल दिया। विवाद एवं बहस मात्र भारतीय हिमालय के 9575 तथा बृहत हिमालय के 18,067 ग्लेशियरों के भविष्य को लेकर ही नहीं थी बल्कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अधिकृत कार्यदायी संस्थाओं की कार्यशैली एवं वैज्ञानिक प्रमाणिकता का भी यक्ष प्रश्न था। हिमालय के ग्लेशियरों संबंधी गैर धरातलीय तथ्यों का उल्लेख कर उक्त संस्था सिर्फ सुर्खियों में ही नहीं छाई रही बल्कि विवादित व सन्देहास्पद भी हो गई है। हिमालय के ग्लेशियरों का पिघल कर समाप्त होने का मतलब सिर्फ भारत की प्रमुख गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों के आरम्भिक जल प्रवाह में भारी कमी ही नहीं बल्कि बृहत हिन्दुकुशः हिमालय से उत्पन्न नदियों पर आश्रित अन्य देश पाकिस्तान, म्यांमार, चीन, नेपाल, भूटान व बांग्लादेश आदि के साथ-साथ सम्पूर्ण एशिया भूभाग की करोड़ों की जनसंख्या का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता।
हिमालय की नब्ज पहचानने वालों व विषय विशेषज्ञों ने इस रिपोर्ट को अवैज्ञानिक, अतार्किक व गैर धरातलीय मान कर स्वीकार नहीं किया। वास्तव में हिमालय के ग्लेशियर मात्र नदियों के उद्गम स्थल व जलश्रोत ही नहीं है बल्कि क्षेत्रीय पारिस्थतिकीय सन्तुलन से लेकर सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक सरोकारों के वाहक भी हैं। अतः समाज के सभी वर्गों द्वारा उक्त रिपोर्ट पर गरमागरम प्रतिक्रिया स्वाभाविक ही थी, किन्तु इस अन्तरराष्ट्रीय बहस का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि भारत से ज्यादा इसकी चर्चा गैर हिमालयी व विश्व के विकसित देशों द्वारा की गई एवं इस विषय को विश्वव्यापी बनाने में उन्हीं देशों की भूमिका ही अधिक महत्त्वपूर्ण रही है।
आईपीसीसी की संदर्भित रिपोर्ट के लेखक समूह के मस्तिष्क में यह विचार कभी नहीं आया होगा कि उनकी तरफ से दिखने वाली मामूली गलती पर भारतीय ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण विश्व के विशेषज्ञ एवं वैश्विक समाज एक तथ्यात्मक प्रतिक्रिया को जन्म दे कर उसका पटाक्षेप भी करेगा।
सारणी-1 में प्रस्तुत हिमालय के कुछ ग्लेशियरों के पिघलने की दर से ज्ञात होता है कि हिमालय के ग्लेशियरों में अत्यधिक विविधता होने के कारण ये सभी बहुत ही असमान दर (1.5 मी. से 31.28 मी./वर्ष) से पिघल रहे हैं किन्तु आईपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार उनके 2035 तक पिघलने की कोई सम्भावना नहीं है। वास्तव में आम जनमानस हिमालय से उत्पन्न होने वाली सदाबहार नदियों को पूर्णतः ग्लेशियरों पर आधारित मान बैठता है जबकि हकीकत में इन नदियों के सम्पूर्ण प्रवाह का बहुत थोड़ा हिस्सा ही पिघली बर्फ का पानी होता है शेष बरसात एवं अन्य श्रोतों द्वारा प्राप्त होता है। उत्तरी भारत में स्थित 30.2 किमी लम्बे व 0.02-2.35 किमी चौड़ाई व 86.32 वर्ग मी. क्षेत्रफल वाले गंगोत्री ग्लेशियर से उत्पन्न होने वाली गंगा नदी में देवप्रयाग स्थान पर बर्फ/ग्लेशियर से पिघले पानी का योगदान मात्र 29% है जोकि निकट भविष्य में भी कमोबेशः अपना योगदान गंगा के प्रवाह में करता रहेगा।
सारणी-1 | |||||
क्र. सं. | ग्लेशियर नाम | मापन वर्ष | अवधि | कुल पिघलाव (मी.) | पिघलने की दर (मी./वर्ष) |
1 | मिलम | 1849-1957 | 108 | 1350 | 12.50 |
2 | पिन्डारी | 1845-1966 | 121 | 2840 | 23.40 |
3 | गंगोत्री | 1935-1990 | 55 | - | 27.9 |
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| 1990-1996 | 06 | - | 28.3 |
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| 2004-2005 | 01 | 13.7 | 13.7 |
4 | तिपरा बैंक | 1960-1986 | 26 | 32.5 | 12.50 |
5 | डोकरियानी | 1962-1991 | 29 | 480 | 16.5 |
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| 1991-2000 | 09 | 161.15 | 17.9 |
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| 2001-2007 | 07 | 110.2 | 15.7 |
6 | चोराबारी | 1962-2003 | 41 | 196 | 4.8 |
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| 2003-2007 | 04 | 41 | 10.2 |
7 | संकुल्पा | 1881-1957 | 76 | 518 | 6.8 |
8 | पोटिंग | 1906-1957 | 51 | 262 | 5.13 |
9 | ग्लेशियर नं. 3 | 1932-1956 | 24 | 198 | 8.25 |
10 | सतोपथ | 1962-2005 | 43 | 1157.15 | 26.9 |
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| 2005-2006 | 01 | 6.5 | 6.5 |
11 | भागीरथी खड़क | 1962-2005 | 43 | 319.3 | 7.4 |
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| 2005-2006 | 01 | 1.5 | 1.5 |
12 | बड़ा सिगरी | 1956-1963 | 07 | 219 | 31.28 |
13 | छोटा सिगरी | 1987-1989 | 03 | 54 | 18.5 |
14 | त्रिलोकनाथ | 1969-1995 | 27 | 400 | 14.8 |
15 | सोनापानी | 1909-1961 | 52 | 899 | 17.2 |
16 | कोलाहाई | 1912-1961 | 49 | 800 | 16.3 |
17 | जैगू | 1977-1984 | 07 | 193 | 27.5 |
यदि गंगोत्री ग्लेशियर वर्तमान दर से भी पिघलता रहे तब भी गणित की भाषा में इसके सम्पूर्ण पिघलने में 1000 वर्ष से अधिक का समय लगेगा। चित्र 1 में उपग्रह से प्राप्त गंगोत्री ग्लेशियर के विभिन्न समय अन्तराल में पिघलने की दर प्रस्तुत की गई है। सम्पूर्ण हिन्दुकुशः हिमालय की प्रमुख नदियों की सारणी 2 में प्रस्तुत, आधार भूत आंकड़ों द्वारा स्पष्ट है कि ग्लेशियर नदियों के उद्गम स्थल अवश्य होते हैं किन्तु जल प्रवाह में उनका योगदान आंशिक ही होता है जोकि उद्गम स्थल से दूरी बढ़ने के साथ-साथ निरन्तर कम होता रहता है। इसीलिये यदि गणितीय आधार पर तापमान वृद्धि से ग्लेशियर समाप्त होने की कोरी कल्पना भी कर दी जाय तो भी आईपीसीसी की रिर्पोट के विपरीत नदियों का अस्तित्व अवश्य रहेगा, सिर्फ ग्लेशियरों के योगदान की जल राशि कम हो जायेगी। बृहत हिमालय श्रृंखला में विद्यमान हिमसंसाधन के रूप में ग्लेशियरों की संख्या, उनके अन्तर्गत क्षेत्र तथा कुल जमा बर्फ सारणी-3 से स्पष्ट है कि उक्त पर्वतीय भू-भाग में अथाह जल राशि बर्फ के रूप में संरक्षित है जोकि क्षेत्रीय, सामाजिक, आर्थिक तथा पारिस्थतिकीय तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
सारणी 2 : हिन्दुकुश हिमालय की प्रमुख नदियों के आधारभूत आँकड़े | ||||||
नदी | जल ग्रहण क्षेत्र | |||||
| जल उत्सर्जन मी. 3/से. | ग्लेशियर योगदान % | क्षेत्रफल वर्ग किमी. | जन संख्या X 1000 | जनसंख्या घनत्व | प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता (घन मी.) |
इंडस (सिंधु) | 5,533 | 44.8 | 1,081,718 | 178,483 | 165 | 978 |
गंगा | 18,691 | 9.1 | 1,016,124 | 407,466 | 401 | 1,447 |
ब्रह्मपुत्र | 13,565 | 12.3 | 651,335 | 118,543 | 182 | 5,274 |
इरावाड़ी | 19,824 | सूक्ष्म | 412,710 | 32,683 | 79 | 13,089 |
सालवीन | 1494 | 8.8 | 271,914 | 5,982 | 22 | 7,876 |
सीकांग | 11,048 | 6.6 | 805,604 | 57,198 | 71 | 6,091 |
यांग्सी | 34,000 | 18.5 | 1,722,193 | 368,549 | 214 | 2,909 |
यलो | 1,365 | 1.3 | 944,970 | 147,415 | 156 | 292 |
टारिंग | 146 | 40.2 | 1,152,448 | 8,067 | 7 | 571 |
कुल | 1,324,386 |
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बृहत हिमालय में संरक्षित हिम संसाधनों के अवलोकन से इंगित होता है कि इन पर्वत श्रृंखलाओं में अपार भण्डार पर प्रकृति की भविष्य में तथाकथित वैश्विक तापमान वृद्धि से विशेष कुप्रभाव पड़ने वाला नहीं है। यह भी स्पष्ट हो रहा है कि अधिकांश ग्लेशियर क्षेत्रीय व अन्तरराष्ट्रीय कारकों की जगह स्थानीय कारकों से अधिक प्रभावित हैं। धरातलीय अध्ययन (सारणी 1) से स्पष्ट है कि गंगा नदी के जल संग्रहण क्षेत्र में स्थित चोराबारी (चित्र-2) व डोकरियानी (चित्र-3) ग्लेशियरों की पिघलने की दर लगभग 4.8 मी. तथा 15.7 मी. वार्षिक है जिससे हिमालय ग्लेशियरों पर वैश्विक तापमान वृद्धि का कोई एकरूप प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता बल्कि स्थानीय कारकों के प्रभाव की धारणा अधिक बलवती होती है।
यद्यपि आईपीसीसी ने वैश्विक विरोध व गैरधरातलीय निष्कर्ष होने के कारण यह स्वीकार कर लिया है कि हिमालय के ग्लेशियरों के सम्बन्ध में उससे गलती हुई है किन्तु इसी संस्था ने पूर्व में भी इस प्रकार के गलत तथ्य प्रसारित किये हैं। आईपीसीसी की 2011 की रिपोर्ट में भी बीसवीं सदी को असामान्य गर्म घोषित किया गया था तथा इसमें दिखाये गये तापमान के ग्राफ वैज्ञानिक रूप से प्रतिपादित घटनाओं जैसे मध्यम गर्म समय अन्तराल (मीडिवल वार्म पीरियड, 1000 ए.डी. के लगभग) एवं लघु हिमयगु (लिटिल आइस एज, 1400 से 1800 ए.डी. के लगभग) जैसी घटनाओं से भी मेल नहीं खा रहे थे।
सारणी 3 : बृहत हिमालय श्रृंखला में विद्यमान हिम संसाधन | |||
नदी/झील जल ग्रहण क्षेत्र | ग्लेशियरों की संख्या | कुल क्षेत्रफल किमी.2 | कुल हिम संसाधन किमी.3 |
मापन यमको झील | 48 | 67 | 4.4 |
गंगा | 6,696 | 16,677 | 1971.5 |
ब्रह्मपुत्र | 4,366 | 6,579 | 600.4 |
इंडस (सिंधु) | 6,057 | 6,926 | 850.4 |
सतलज | 1,900 | 2,861 | 308.0 |
कुल | 18,067 | 35,110 | 3,734.5 |
सारणी 4 : बृहत हिमालय में विद्यमान हिम संसाधन | |
पर्वत श्रृंखला | कुल क्षेत्र वर्ग किमी. |
टीनशान | 15,471 |
पमीर | 12,260 |
किलानशान | 1,930 |
कुलानशान | 12,260 |
काराकोरम | 16,600 |
किथानटाग पठार | 3,360 |
टांगुला | 2,210 |
गांडसी | 620 |
नियानकिंग टांगुला | 7,540 |
हेंगडुवान | 1,620 |
हिमालय | 33,050 |
हिंदुकुश | 3,200 |
हिंदुराड्स | 2,700 |
कुल योग | 112,767 |
ये भी बताया जाता है कि नवम्बर, 2009 में उक्त इकाई के एक लीक हुये ई-मेल संदेश के अनुसार आईपीसीसी के निष्कर्षों (मानवीय क्रियाकलाप वैश्विक तापमान वृद्धि के लिये जिम्मेदार) के विरुद्ध जाने वाले स्वतंत्र शोध कार्य निष्कर्षों को दबाने का प्रयास भी किया गया। वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय द्वारा ऐसा सोचा-समझा जा रहा है कि जलवायु वैज्ञानिकों का एक समूह तापमान वृद्धि के लिये मानवीय कारणों को जिम्मेदार ठहराने का गैर धरातलीय व काल्पनिक प्रयास कर रहा है। दिसम्बर, 2009 में रूस के आर्थिक विश्लेषण संस्थान द्वारा यह सिद्ध किया गया कि ब्रिटेन जलवायु कार्यालय के हेडली केंद्र द्वारा रूस के वैश्विक तापमान वृद्धि को नकारने वाले आँकड़ों के साथ छेड़-छाड़ कर उन्हें वांछित ढंग से प्रस्तुत किया गया है। यह भी माना गया कि वैश्विक तापमान वृद्धि के आंकड़े विज्ञान परख न होने के कारण अविश्वसनीय हैं एवं किसी अज्ञात तापमान वृद्धि वाली मानसिकता से नियंत्रित है। जोडी एलियों एवं माइकेल स्मिथ नामक वैज्ञानिकों द्वारा यह भी बताया गया कि राष्ट्रीय जलवायु आंकड़ा केंद्र तथा ‘‘नासा’’ (एनएएसए) द्वारा संचालित वायुमंडल अध्ययन के गोडार्ड संस्थान द्वारा ठंडे इलाकों के कई आंकड़ा केंद्रों को बंद कर दिया गया ताकि वैश्विक स्तर पर तापमान वृद्धि को सही ठहराया जा सके।
ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार ‘‘संडे टाइम्स’’ ने भी 23 जनवरी, 2010 को यह पाया कि आईपीसीसी की रिपोर्ट (एआर 4) में प्राकृतिक आपदाओं को तापमान वृद्धि के साथ गलत ढंग से जोड़ दिया गया जबकि अपनी ही रिपोर्ट में आईपीसीसी ने उक्त कथन के आधार को अपूर्ण प्रमाण माना है। माह जनवरी में ही उक्त रिपोर्ट (एआर 4) के अग्रणी लेखक श्री मुरारी लाल ने माना कि हिमालयी ग्लेशियरों के 2035 तक पिघलने की संभावना को रिपोर्ट में जानबूझकर अतिशयोक्ति द्वारा पेश किया गया। उक्त कथन भी रिपोर्ट को एक वैज्ञानिक आंकड़ा संकलन से ज्यादा गैर वैज्ञानिक अभिलेख के रूप में प्रचारित कर रहा है। उक्त संस्था का कथन (तापमान वृद्धि से अमेज़न के वर्षा वनों व समुद्र में मूँगे की चट्टानों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा) विज्ञान से प्रतिपादित विज्ञान से न लेकर सामान्य पर्यावरण संबंधी कार्यदायी संस्थाओं जैसे ‘‘वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड’’ एवं ‘‘ग्रीन पीस’’ आदि के प्रकाशनों से प्राप्त किया गया था। यह दर्शाता है कि आईपीसीसी स्थापित विज्ञान के मानदंडों एवं सिद्धांतों पर खरा नहीं उतरता है। वर्जीनिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर इमेरीटस एवं अमेरिका मौसम उपग्रह सेवा के पूर्व निदेशक डा. एस. फ्रिड सिंगर के अनुसार ‘‘जलवायु परिवर्तन’’ उल्टे सीधे विचारों के बजाय एक गंभीर एवं विशेषज्ञ परख विषय है। जिसका संजीदगी से अध्ययन करने की आवश्यकता है अन्यथा यह वैश्विक समाज को धोखा देने का एक सुनियोजित षडयंत्र व भ्रमजाल भी हो सकता है, जिससे धरातलीय हकीकत पर हमेशा पर्दा पड़ा रहेगा।
इस तथाकथित तापमान वृद्धि व जलवायु परिवर्तन के वैश्विक व्यवसाय में पर्यावरणविद, तकनीक विरुद्ध शक्तियाँ, विचारशील एवं रूढ़िवादी, जनसंख्या नियंत्रक ही नहीं बल्कि नौकरशाह, उद्योगपति, बिचौलिये व धन कुबेर आदि सभी वे लोग संभवत: शामिल हैं जिन्होंने सीख लिया कि सरकारी तंत्र के साथ खेल कैसे खेला जाता है तथा सरकारी धन एवं छूट से कार्बन फ्री ऊर्जा, कार्बन परमिट ट्रेडिंग आदि के नाम पर धन लाभ कैसे अर्जित किया जाता है। इस क्षेत्र में पहले ही अरबों डॉलर खर्च कर दिये गये हैं जोकि किसी भी देश के मेहनतकशों व विकासशील जनता से चुंगी (टैक्स) द्वारा वसूला गया सरकारी धन है। किंतु वैश्विक समाज के उत्थान के बजाय कुछ ही लोगों को लाभ पहुँच रहा है। उक्त जलवायु परिवर्तन पर भारी धनराशि खर्च के साथ-साथ बहुत ही अच्छा होता कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का वास्तविक आंकलन कर कुप्रभाव को कम करने हेतु कुछ ठोस परियोजना बनती। किंतु दुर्भाग्यवश इन सभी परियोजनाओं का पटाक्षेप पूर्व की भाँति इस बार भी कोपेन हेगन के इस ‘‘जलवायु सम्मेलन’’ में हो गया।
वहाँ, जहाँ एक ओर विकसित देशों ने हमेशा की तरह प्रदूषण उत्सर्जन की जिम्मेदारी लेने से साफ मना कर दिया वहीं विकासशील देशों ने भी अपने विकास में बाधक कटौतियों एवं नियंत्रण पर सहमति नहीं जताई है। वस्तुत: जलवायु के बारे में कोपेनहेगन सम्मेलन में बहुत ही कम चर्चा हुई अधिकांश समय विकसित देशों से विकासशील देशों को धन स्थानांतरण की चर्चा में ही खर्च हो गया जिससे सम्मेलन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सका। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वैश्विक तापमान वृद्धि का कोई सटीक एवं वैज्ञानिक प्रमाण अभी तक नहीं मिल पाया है। जबकि जलवायु परिवर्तन एक वैज्ञानिक सच्चाई है। इस परिवर्तन का मूलभूत कारण मानवीय क्रिया कलाप न होकर प्राकृतिक घटनायें जान पड़ती है। पृथ्वी पर सक्रिय 1900 ज्वालामुखियों जिनमें 80% सागरों/महासागरों में सक्रिय हैं, की भी जलवायु परिवर्तन में सार्थक भूमिका हो सकती है। दूसरी खगोलीय घटनाओं के अंतर्गत सूर्य पर होने वाले विस्फोटों द्वारा उत्सर्जित ऊष्मीय घटनायें एवं उनका अंतराल भी पृथ्वी पर पाये जाने वाले ठंडे व गर्म समय अंतरालों से मेल खाते देखा गया है। फलत: पृथ्वी के जलवायु परिवर्तन में सूर्य की चक्रीय ऊष्मा भी नई दिशा व दशा प्रदान कर सकती है।
नोट : उक्त लेख आईपीसीसी रिपोर्ट पर वैज्ञानिक वर्ग की टिप्पणियों, कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन कार्यवाही, डी. ग्रुप के संकलन, एवं हिमालय क्षेत्र में किये गये शोध कार्यों के आधार पर तैयार किया गया है। श्रोत: चित्र-1, सारणी 2, 3 और 4 ईसीमोड टैक्नीकल पेपर : मैल्टिंग हिमालय 2007 सारणी-1, बोहरा 1981 एवं डोभाल 2008 एवं इन्साक्लोपीडिया ब्रिटैनिका ग्लेशियर एटलस आॅफ इंडिया (रैना एवं श्रीवास्तव 2008)।
सम्पर्क
पी. एस. नेगी
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून
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