![पर्यावरण अब संकट में](/sites/default/files/styles/node_lead_image/public/hwp-images/envoirnment1_5.jpg?itok=MHhf_Yp2)
यदि मानवजनित गतिविधियां अपनी मौजूदा गति से जारी रहीं तो औद्योगिक युग से पहले के मुकाबले औसत वैश्विक तापमान में सात डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि हो जाएगी। तापमान में यह वृद्धि 15000 साल पहले, आखिरी हिमयुग (आइस एज) के बाद पृथ्वी के तापमान में आई वृद्धि से भी ज्यादा है। उस दौरान पृथ्वी के तापमान में पांच डिग्री का इजाफा हुआ था और वह भी 5000 साल के दरम्यान फिर यह भी कि हिमयुग में तापमान में हुई वृद्धि के प्राकृतिक कारण थे, लेकिन यहां तो खुद इंसान ही इसका कारण है। हम कोयला, तेल और गैस जैसे ईंधनों का ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। हम जंगलों को नष्ट कर रहे हैं और अपने खेतों का गलत ढंग से इस्तेमाल कर रहे हैं, जो पर्यावरण की सुरक्षा के लिहाज से सही नहीं है। यदि इसमें बदलाव नहीं लाया गया तो इस समय पृथ्वी की लगभग सात अरब की जनसंख्या में से प्रत्येक दस में से एक घर समुद्र में बढ़ते जलस्तर की भेंट चढ़ सकता है। इस खतरे को टालने की कोशिश जरूर हुई है लेकिन यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। सालों पहले 1992 में रियो डी जेनेरियो में हुए पृथ्वी सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुरूप ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को ऐसे स्तर पर नियंत्रित करने की बात की गई थी, जिससे पर्यावरण पर बुरा असर न पड़े। इसके पांच साल बाद क्योटो प्रोटोकॉल आया। विश्व भर के करीब तीन दर्जन देश, जिनमें अधिकतर औद्योगिक रूप से विकसित पश्चिमी राष्ट्र और पूर्व सोवियत संघ के देश शामिल थे, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित और कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी लेकिन आज तक न तो पृथ्वी सम्मेलन की बातों को अमल में लाया गया है, न ही क्योटो प्रोटोकॉल के वादे पूरे हो पाए हैं।
रियो सम्मेलन के बाद से अब तक कार्बन डाई ऑक्साइड, जो पर्यावरण के नजरिए से सबसे खतरनाक है, उत्सर्जन में करीब तीन गुना वृद्धि हो चुकी है और यह सालाना 30 बिलियन टन के स्तर तक पहुंच चुकी है। उद्योग प्रधान पश्चिमी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए हामी भले भरी थी लेकिन 1990 से लेकर अब तक ऐसा हो नहीं पाया है। वास्तविकता तो यह है कि इसमें वृद्धि ही हुई है। इसके बाद भी यदि क्योटो प्रोटोकॉल का हिस्सा रहे देशों के ग्रीनहाउस उत्सर्जन में कमी आई है या वह पुराने स्तर पर स्थिर है, तो इसकी वजह पूर्व सोवियत संघ के देशों का विघटन है, जिसके चलते इन देशों में औद्योगिक गतिविधियां कम हो गईं। इसमें कोई दो राय नहीं कि पर्यावरण में आ रहे बदलावों के चलते फिलहाल मानव सभ्यता एक प्रलय के मुहाने पर खड़ी है। एक ऐसा प्रलय, जो हाल में आए वैश्विक आर्थिक मंदी से कहीं ज्यादा खतरनाक हो सकता है। इसकी वजह यह है कि हम कोशिश करें तो मंदी के बुरे दौर से उबर सकते हैं, लेकिन पर्यावरण तंत्र असंतुलित हो जाए तो उसकी मरम्मत नहीं की जा सकती। इसीलिए असली सवाल यह है कि यदि खतरा इतना बड़ा है तो हम इसके लिए गंभीर क्यों नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि पर्यावरण में आ रहे बदलाव से निपटने के लिए तकनीकी ज्ञान का अभाव है। उपलब्ध साधनों एवं गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उचित इस्तेमाल और जीवनशैली में बदलाव से समस्या को हल करने की चाबी मिल सकती है लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है।
इसकी वजह यह है कि हम इसे अपनी क्षमता के बाहर होने की गलतफहमी में हैं। साथ ही यह भी कि किसी को यह नहीं पता कि चुनौती से निपटने के लिए वास्तव में किसे और क्या कदम उठाने की जरूरत है। जहां तक चुनौती की गंभीरता का सवाल है, पर्यावरण विशेषज्ञों की राय में तापमान में औसतन दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से मानव जीवन ज्यादा प्रभावित नहीं होगा। अधिकांश देशों ने इसी दो डिग्री को अपना लक्ष्य बना लिया है और लाकिला, इटली में हुए जी-8 राष्ट्रों के सम्मेलन में सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने इसे अपनी मंजूरी भी दे दी है लेकिन यदि इस लक्ष्य को हासिल करने की थोड़ी सी भी संभावना है तो इसके लिए हम 2050 तक ऊर्जा के मौजूदा संसाधनों का केवल एक चौथाई ही इस्तेमाल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अगले चार दशकों में कुल 750 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का ही उत्सर्जन होना चाहिए, जबकि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की वर्तमान दर के हिसाब से यह आंकड़ा करीब आधे समय में ही पार हो जाएगा। जहां तक इसका भार वहन करने की बात है तो पर्यावरण सुरक्षा की चर्चा होते ही हम तमाम तरह की आशंकाओं से घिर जाते हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि हमें अपनी आर्थिक गतिविधियों को पर्यावरण सुरक्षा के अनुरूप ढालने की जरूरत है। मौजूदा दौर में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकसित राष्ट्र हैं, जिनमें अमेरिका भी शामिल है। कुल उत्सर्जन का करीब आधा हिस्सा इन्हीं देशों की देन है। लेकिन यदि ये देश कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन पर पूरी तरह काबू पा लेते हैं, फिर भी दो प्रतिशत का लक्ष्य हासिल करना दूर की कौड़ी साबित हो सकता है, क्योंकि विकासशील और अल्प विकसित देशों में भी उत्सर्जन में वृद्धि हो रही है।प्रकृति की सेवा करें, सब कुछ शुभ होगास्पष्ट है कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए ज्यादा जनसंख्या वाले देशों, जैसे चीन और भारत, को भी सहयोग करना होगा। इसके साथ हमें यह भी याद रखना होगा कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में अमेरिका (19 टन) और जर्मनी (10 टन), भारत (1.1 टन) और चीन (4.3 टन) से कहीं आगे हैं। इतना ही नहीं, औद्योगिक युग की शुरुआत के बाद से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का तीन-चौथाई हिस्सा विकसित राष्ट्रों की देन है, जबकि विश्व की कुल आबादी का बीस प्रतिशत हिस्सा ही इन देशों में निवास करता है। पर्यावरण में बदलाव के खतरे से मुकाबला करने के लिए सार्वभौमिक न्याय के पहलू को भी ध्यान में रखना होगा। यदि वातावरणीय तत्वों के इस्तेमाल का सभी मनुष्यों के पास एक समान अधिकार है तो विकसित देश अपने कोटे से कहीं ज्यादा इस्तेमाल कर चुके हैं। दरअसल, इस मामले में वे पहले ही अन्य देशों के कर्जदार हो चुके हैं। उन्हें न केवल इस कर्ज को उतारना होगा, बल्कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के काम में भी आगे आना होगा और यह जितनी जल्दी हो उतना अच्छा है, क्योंकि थोड़ी देर करने से भी दो प्रतिशत का लक्ष्य हमारी पहुंच से बाहर हो सकता है। इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के मुताबिक, 1990 के मुकाबले 2020 तक विकसित देशों को अपने उत्सर्जन में 25 से 40 प्रतिशत की कमी करनी होगी। बड़ी बात यह है कि अविकसित और विकासशील राष्ट्र, जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए अपेक्षाकृत कम दोषी हैं, तब तक इस दिशा में कोई कदम उठाने के लिए तैयार नहीं हैं, जब तक कि विकसित राष्ट्र स्पष्ट पहल न करें। यह हालत कोपेनहेगन सम्मेलन से ठीक पहले की है। हालांकि, आईपीसीसी के आंकड़ों तक पहुंचना असंभव जैसा है, खासकर अमेरिका जैसे देश के लिए, जो विकसित देशों के बीच ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का सबसे बड़ा दोषी है।पर्यावरण समस्या से निबटने के तकनीकी और सामाजिक उपाय भी तभी कारगर हो पाएंगे, जब यह संदेश पूरी दुनिया में फैले और लोग कथनी को करनी में बदलें। तभी कोपेनहेगन सम्मेलन जैसी बैठकों का कोई औचित्य है और उनकी सफलता की भी संभावना बन सकती है।
क्योटो प्रोटोकॉल
यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज का क्योटो प्रोटोकॉल पर्यावरण की चुनौती से निपटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों का एक हिस्सा है। दिसंबर 1997 में कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपीई) के तीसरे सत्र में अनुमोदित इस प्रोटोकॉल में विकसित देशों के उलट ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की सीमा तय की गई है, जो कानूनी रूप से बाध्यकारी है। यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों ने मई 2002 में इसको मंजूरी दी। विकसित देशों में करीब 150 साल पहले शुरू हुई ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ते उत्सर्जन को कम करने और फिर उसे समाप्त करने के इरादे से अस्तित्व में आए क्योटो प्रोटोकॉल का अंतिम उद्देश्य हर ऐसी मानवीय गतिविधि पर रोक लगाना है, जिससे पर्यावरण के लिए खतरा पैदा होता है। प्रोटोकॉल के मसौदे के मुताबिक, विकसित देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कम से कम पांच प्रतिशत की कमी करनी होगी। इस सामूहिक लक्ष्य को हासिल करने के लिए स्विट्जरलैंड, मध्य और पूर्वी यूरोपीय राष्ट्रों एवं यूरोपीय संघ (अपने सदस्य देशों का लक्ष्य खुद यूरोपीय संघ तय करेगा) को 8 प्रतिशत, अमेरिका 7 प्रतिशत एवं कनाडा, हंगरी, जापान और पोलैंड को 6 प्रतिशत की कमी करनी होगी। रूस, न्यूजीलैंड और यूक्रेन अपने मौजूदा स्तर पर कायम रहेंगे। जबकि नार्वे एक प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया 8 प्रतिशत और आइसलैंड इसमें 10 प्रतिशत तक की वृद्धि कर सकते हैं।
हर राष्ट्र को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का यह लक्ष्य 2008-2012 के बीच हासिल करना होगा। उनके प्रदर्शन को मापने के लिए पांच सालों का औसत निकालने का प्रावधान है। सदस्य देशों को लक्ष्य हासिल करने की दिशा में 2005 तक अपने प्रयासों को स्पष्ट करना होगा। तीन सबसे महत्वपूर्ण गैसों कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और नाइट्रस ऑक्साइड के घटे स्तर को मापने के लिए 1990 को आधार वर्ष माने जाने की व्यवस्था है (हालांकि कुछ खास देशों के मामले में इसमें बदलाव किया जा सकता है)। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली खतरनाक गैसों में तीन सबसे पुरानी गैसों-हाइड्रोफ्लोरोकार्बन, पाफ्लोरोकार्बन और सल्फर हेक्साफ्लोराइड के स्तर का आकलन 1990 या 1995 को आधार वर्ष मानकर किया जा सकता है। (खतरनाक औद्योगिक गैसों के एक और समूह क्लोरोफ्लोरोकार्बन की चर्चा 1987 के मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल ऑन सब्सटांसेज दैट डिप्लेट ओजोन लेयर में की गई है)। उत्सर्जन में वास्तविक कटौती पांच प्रतिशत से ज्यादा होगी। 2000 में उत्सर्जन की लक्षित सीमा को ध्यान में रखते हुए सबसे धनी और विकसित औद्योगिक देशों को अपने उत्सर्जन में करीब 10 प्रतिशत की कमी लानी होगी। इसकी वजह यह है कि अपेक्षा के मुताबिक इन देशों को साल 2000 तक अपने उत्सर्जन के स्तर को कम करके 1990 के स्तर पर लाना था लेकिन वे ऐसा करने में कामयाब नहीं रहे हैं। सच तो यह है कि 1990 के बाद उनके उत्सर्जन के स्तर में इजाफा हुआ है।पृथ्वी अब बीमार हैअर्थव्यवस्था में बदलाव के दौर से गुजर रहे देशों के उत्सर्जन के स्तर में 1990 के बाद कमी दिखाई दी थी लेकिन अब यह ट्रेंड बदलता नजर आ रहा है। इससे यह स्पष्ट है कि 2010 के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु प्रोटोकॉल के अंतर्गत उत्सर्जन के स्तर में 5 प्रतिशत की कमी सुनिश्चित करने के लिए विकसित देशों को वास्तव में करीब 20 प्रतिशत की कटौती करनी होगी। उत्सर्जन के स्तर में कमी को मापने के तरीके के मामले में सदस्य देश काफी हद तक स्वतंत्र हैं। इस दिशा में एमिशन ट्रेडिंग की चर्चा की गई है, जिसके तहत विकसित औद्योगिक राष्ट्र आपस में प्वाइंट्स की खरीद-बिक्री कर सकते हैं। संयुक्त उपक्रम की प्रक्रिया के अंतर्गत ये देश अन्य विकसित देशों में कुछ खास परियोजनाओं में वित्तीय सहयोग कर एमिशन रिडक्शन प्वाइंट्स अर्जित भी कर सकते हैं। इसके अलावा विकासशील देशों में उत्सर्जन में कमी करने वाली परियोजनाओं को बढ़ावा देकर स्वच्छ विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करके भी ये देश प्वाइंट्स हासिल कर सकते हैं। उत्सर्जन में कमी के प्रावधानों को अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में लागू करना होगा। प्रोटोकॉल में देशों को आपसी सहयोग को बढ़ाने, ऊर्जा स्रोतों के सही इस्तेमाल, ईंधन और ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में सुधार, गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को बढ़ाने, गलत वित्तीय नीतियों को खत्म करने, कचरे से होने वाले मिथेन उत्सर्जन और बाजार की विसंगतियों को दूर करने एवं जंगलों को बचाने की जिम्मेदारी दी गई है।
प्रोटोकॉल सदस्य देशों के पहले की प्रतिबद्धताओं को और आगे लेकर जाता है। इसके तहत विकसित और विकासशील देशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उत्सर्जन के स्तर को नियंत्रित करते हुए भविष्य में पर्यावरण में होने वाले बदलावों के अनुरूप बदलाव की कोशिश करेंगे। इससे संबंधित अपने राष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम की जानकारी देंगे, तकनीक के हस्तांतरण को बढ़ावा देंगे, वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय शोधों में सहयोग करेंगे और लोगों के बीच शिक्षा एवं प्रशिक्षण के माध्यम से जागरूकता बढ़ाने का प्रयत्न करेंगे। साथ ही, इसमें इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विकासशील देशों पर पड़े वित्तीय भार के लिए अलग से व्यवस्था करने की बात पर जोर दिया गया है। कन्वेंशन की कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (सीओपी) ही प्रोटोकॉल के सदस्य देशों की आपसी मुलाकात का जरिया भी होगी। यह व्यवस्था कन्वेंशन के अंत:सरकारी कार्यों के प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए की गई है। वैसे देश जो कन्वेंशन के सदस्य हैं लेकिन प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हैं, प्रोटोकॉल की बैठकों में पर्यवेक्षक की हैसियत से शरीक हो सकते हैं।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में न्यायाधीश हैं)
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