हमारे इन प्रदेशों में जो पुनरर्चना होगी, उसमें सौंदर्य, स्वच्छता आवश्यक साधन खाना-पीना, मेल मिलाप, समझ और अपने पड़ोस के संसार का और उस संसार का सृष्टि से क्या संबंध है यह तो उनका आधार रहेगा किंतु अलग-अलग तरह की जानकारी, विद्याएं कारीगरी, जैसे-जैसे उनकी आवश्यकताएं होंगीभारतवर्ष के सामने बहुत से प्रश्न हैं और हमारी बेसमझी और दूर दृष्टि की कमी के कारण यह प्रश्न पिछले 50-55 बरसों में बढ़े हैं। इन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न यह है कि हम जो नए प्रदेश बना रहे हैं वे किस भूमिका को लेकर बनने हैं। पिछले 20-30 वर्षों में जो-जो नए प्रदेश बने, वे अधिकांशतः काफी छोटे हैं। पूर्वाेत्तर भारत में जो नए प्रदेश बने उनकी जनसंख्या तो किसी प्रदेश में 10-20 लाख से अधिक नहीं है। अभी पिछले वर्ष जो तीन नए राज्य बने हैं उनमें से हरेक की जनसंख्या 60-70 लाख के करीब होगी।
यह तो स्पष्ट ही है कि उत्तर पूर्व में बने छोटे-छोटे प्रदेश और पिछले साल बनाए गए तीन प्रदेश, ये बहुत बातों में भारत के प्राचीन बड़े-बड़े प्रदेशों से कुछ अलग से हैं। इनकी जमीन, जलवायु, प्राकृतिक संरचना, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, बंगाल, हरियाणा से काफी भिन्न है। इन प्रदेशों के लोगों के रीति रिवाज भी काफी भिन्न हैं और शायद अभी तक ये रीति-रिवाज पुरानी परम्पराओं से जुड़े हुए हैं। सम्भव है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे प्रदेशों के रीति-रिवाज भी अंग्रेजों के आने से पहले तक इन नए प्रदेशों के रीति-रिवाजों से काफी मिलते रहे हों जिन्हें अंग्रेजी राज ने अपने डेढ़ दो सौ बरस के प्रभुत्व में तोड़ा-मरोड़ा और नष्ट भ्रष्ट ही किया।
नए प्रदेशों को बनाने का मुख्य कारण तो यह है कि वे अपनी समृद्धि और सुख के लिए अपने रीति रिवाजों, साधनों और स्वभाव के अनुसार चलें। जब 1946-47 में अंग्रेजों के भारत का राज्य छोड़ने की बात चली, तब अंग्रेजों को कि वे चले जाएं, कहने का हमारा मुख्य उद्देश्य था कि हम भारत वर्ष को अपने साधारण लोगों की परम्पराओं, मानसिकताओं, स्वभाव और आवश्यकताओं के अनुसार चला सकें। लेकिन बहुत कारणों से तब यह नहीं हो पाया और अंग्रेजों ने जो ढांचा और तंत्र भारत में 1760 के बाद कायम किया, उसी को हमने अपना लिया। अंग्रेज भी और हम भी, यह बात कम से कम सन् 1920 से तो, जानते ही थे कि यह ढाँचा व तंत्र हमारे किसी काम का नहीं है यह बहुत लचर हो चुका है। इसकी मान्यताएं हमारे यहां के लोगों की मान्यताओं से हर दृष्टि से भिन्न हैं और वे हमारी मान्यताओं से कहीं भी मेल नहीं खाती और इस ढांचे की नींव पर कोई स्वस्थ और सुखी समाज नहीं चल सकता।
लेकिन हम राजनीति शास्त्र से शायद कई सौ बरसों से इतने अनभिज्ञ थे और अपने को इतना शक्तिहीन मानते थे कि हमें इस अंग्रेजी ढांचे और तंत्र को बदलने का साहस नहीं हुआ। इसी समय बहुत से कारणों से देश के बंटवारे का प्रश्न भी बहुत तेजी से उठ खड़ा हुआ। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि हम अपने होश-हवास भी खो बैठे और संभलने में और अंग्रेजों के समय की 1946 की स्थिति तक वापिस लाने में, हमें तीन चार बरस लग गए। इन तीन चार वर्षों में ये अंग्रेजी ढांचा और तंत्र हमारे नेताओं और देश चलाने वालों को अपना ही लगने लगा। इनमें से अधिक लोग बूढ़े भी होने लगे थे और कोई भी बदलाव उन्हें अच्छा नहीं लगता था और देश का उत्साह और शक्ति भी धीरे-धीरे कम हो चली थी। अंग्रेजी राज्य में डेढ़ सौ वर्ष तक अंग्रेजी और अंग्रेजी मान्यताओं का जो प्रभाव हमारे यहां हुआ उससे प्रभावित लोग हमारे यहां तब लाखों में रहे। उनके देश की परम्पराओं से बचा खुचा संबंध स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे कम होता गया और वे अंग्रेजों और यूरोप की व्यवस्था पर और अधिक आसक्त हो गए। ये बिगाड़ इतना बढ़ा कि हमारी दृष्टि इंग्लैण्ड, यूरोप और अमरीका की तरफ ही लगी रही और हम कुछ ऐसा मानने लगे कि जैसे हमारे पड़ोस के एशिया और अफ्रीका के लोग तो हमारे लिए कोई मायने ही नहींरखते।
महात्मा गांधी के काम और आकर्षण से इनमें से अधिकांश देश और लोग हमारे से काफी अपेक्षाएं रखते थे। वे मानते थे कि हम एशिया, कम से कम बौद्ध धर्म से प्रभावित एशिया और हिन्द महासागर के करीब के अफ्रीका को राजनीति और समाज व्यवस्था का एक नया दर्शन बनाने में सहकार करेंगे। लेकिन हमने तो बहुत करके उनकी तरफ से आँखें ही मोड़ लीं जैसे कि हमें दिखना ही बंद हो गया हो। इन तीन प्रदेशों के बनने से सम्भवतः भारत के स्वराज का एक नया प्रारम्भ हो सकता है। अगर उत्तरांचल और दूसरे दोनों प्रदेशों के जन, और खासकर युवा लोग, विचार करें और आवश्यक प्रयत्न करें तो यह सम्भव है कि कम से कम इन तीन प्रदेशों में हम जिस तरह का स्वराज्य 1946-47 तक चाहते थे, उसे अब स्थापित कर सकें।
उसके लिए आवश्यक होगा कि जहां तक हो सके कि अंग्रेजों के कारण हमारे यहां जो बिगाड़ हो गया, उसको सही कर दिया जाए और अंग्रेजों का दिया ढाँचा और तंत्र छोड़कर हम नए ढांचे और तंत्र की नींव डालें। ऐसा करने में बहुत हद तक तो हमें महात्मा गांधी के बतलाए रास्ते पर ही चलना होगा। लेकिन ये रास्ता केवल गांधी जी ने ही नहीं बतलाया था। भारत अत्यंत प्राचीन काल से इसी तरह के रास्ते पर और जिन मान्यताओं पर ये रास्ते बने हैं, उन पर चलता आया है। हो सकता है कि कुछ बातों में हमारे पुराने रास्तों में कमजोरी हो। हमें दूसरे खूंखार देशों की तरह, जैसे कि यूरोप कई हजार बरस से रहा है, और दूसरे कुछ देश भी जैसे खूंखार या आक्रामक स्वभाव के रहे हैं, वैसा नहीं बनना है। लेकिन खूंखार और आक्रामक होना तो भारत की प्राथमिकता नहीं है। और खूंखार आक्रामक लोग भी, काल के बदलने पर, दो सौ चार सौ बरसों में ही, अक्सर दूसरों से पिट जाते हैं। जैसा हम जानते हैं कि पिछले डेढ़ दो हजार बरस का ईसाइयत व इस्लाम का इतिहास इसी खूंखारपन, आक्रामकता और पिटने का इतिहास है।
हमारे इन प्रदेशों में जो पुनरर्चना होगी, उसमें सौंदर्य, स्वच्छता आवश्यक साधन खाना-पीना, मेल मिलाप, समझ और अपने पड़ोस के संसार का और उस संसार का सृष्टि से क्या संबंध है यह तो उनका आधार रहेगा किंतु अलग-अलग तरह की जानकारी, विद्याएं कारीगरी, जैसे-जैसे उनकी आवश्यकताएं होंगी, यह समाज बनाता रहेगा। इनमें पातंजलि सूत्र, भारत के नाट्यशास्त्र, चरकसंहिता, वास्तुशास्त्र की अलग-अलग विद्याएं, आवश्यकता होने पर समय-समय पर इन समाजों की मदद करेंगी। पर ये समाज क्या-क्या चाहता है इनकी क्या प्राथमिकताएं हैं इसका निर्णय तो वह स्वयं ही करें और हो सकता है कि उत्तरांचल प्रदेश में एक ही बात पर बीसियों तरह के निर्णय हों, जो अलग-अलग समूहों और लोगों की जो-जो आवश्यकताएं हैं, उनको पूरा करते हों। ये कहना आवश्यक है कि ऐसा बदलाव दो-चार बरस में शायद नहीं आए पर एक दो पीढ़ी में तो आ ही जायेगा।
अगर ऐसे आवश्यक बदलाव उत्तरांचल जैसे एक प्रदेश में आए, तो न केवल अन्य नए बने प्रदेशों में भी आ सकता है, पर इनके देखा-देखी अन्य प्रदेशों में, सारे भारत वर्ष में भी आ सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो 20-50 वर्षों में भारत का स्वराज्य जो 1946-47 में हमारे से दूर रह गया था, वह फिर हमारे पास वापिस आ जाए। और भविष्य का हमारा संसार उस स्वराज्य व उसकी धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार चलने लगे। ऐसा स्वराज्य अगर वापिस आता है तो हमें अवसर मिलेगा कि हम अपने पड़ोस के तीस-पचास देशों से, जो हिन्द महासागर के चारों तरफ बसे हुए हैं, घनिष्ट संबंध स्थापित कर सकें और फिर इन तीस-पचास देशों का एक ऐसा महान वृत्त बने जो अब तक संसार में इस प्रकार के वृत्त बनाने के अलग-अलग प्रयत्न हुए हैं जैसे कि पिछले 80 वर्षों में यूरोप और अमरीका ने लीग आॅफ नेशंस, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि को बना कर किए हैं - उनकी तुलना में यह अपने से जुड़े देशों का अधिक भला करे और बांकी संसार को भी आज से अधिक सुखी बनाने में मदद करे।
आज का 200-500 वर्ष से यूरोप और अमरीका का बनाया संसार तो दुःख और क्लेश से ही भरा है; जितनी ऊँच-नीच इस संसार में है, उतनी तो पहले कभी नहीं हुई। जितनी हिंसा इसमें है, उतनी हिंसा तो पुराने यूरोप के ईसाइयों और इस्लाम के लोगों ने भी कभी नहीं की। यूरोप और इस्लाम में सन् 1100 से 1500 तक जो क्रूसेड हुए, उनमें भी नहीं। अगर हमारा स्वराज्य वापिस आता है और हम ऐसा वृत्त बनाने में सहकार करते हैं तो सम्भव है कि अन्य वृत्तों में जो देश और जन हैं, हम उनके भी कुछ काम के हों।
हमारी सूझबूझ से हो सकता है, उनके अनेक झगड़े-लड़ाइयाँ सुलझाने में हम मदद कर सकें। आज का ही समय लीजिए। हमारा ‘स्वराज्य’ जो कि हमारी परम्परा की, हमारी मान्यता, से हमें विरासत में मिला है जिसे महात्मा गांधी ने दुबारा वापिस लाने का रास्ता हमें बतलाया, वह अगर हमारे पास इस समय होता और हम अपने पड़ोस के देशों का एक वृत्त भी बना पाते तो आज जो संयुक्त राज्य अमरीका, अफगानिस्तान में बड़ी कलह हुई है उसको सुलझाने का हम कोई रास्ता बतला पाते।
हम व यूरोप के अन्य देश जैसे कि जर्मनी इत्यादि आज जो कर रहे हैं, उससे तो कलह बढ़ती ही है या सभी देश एक दूसरे से भयभीत हो जाते हैं, लेकिन इससे सुलझने के रास्ते तो नहीं निकलते। उत्तरांचल का स्वराज और उससे प्रभावित भारत का स्वराज तो न केवल अपने को सुखी रख सकेगा, सम्भव है वह आज के यूरोप-अमरीका के बनाए संसार को भी सुखी होने का रास्ता बता सके।
यह तो स्पष्ट ही है कि उत्तर पूर्व में बने छोटे-छोटे प्रदेश और पिछले साल बनाए गए तीन प्रदेश, ये बहुत बातों में भारत के प्राचीन बड़े-बड़े प्रदेशों से कुछ अलग से हैं। इनकी जमीन, जलवायु, प्राकृतिक संरचना, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, बंगाल, हरियाणा से काफी भिन्न है। इन प्रदेशों के लोगों के रीति रिवाज भी काफी भिन्न हैं और शायद अभी तक ये रीति-रिवाज पुरानी परम्पराओं से जुड़े हुए हैं। सम्भव है कि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे प्रदेशों के रीति-रिवाज भी अंग्रेजों के आने से पहले तक इन नए प्रदेशों के रीति-रिवाजों से काफी मिलते रहे हों जिन्हें अंग्रेजी राज ने अपने डेढ़ दो सौ बरस के प्रभुत्व में तोड़ा-मरोड़ा और नष्ट भ्रष्ट ही किया।
नए प्रदेशों को बनाने का मुख्य कारण तो यह है कि वे अपनी समृद्धि और सुख के लिए अपने रीति रिवाजों, साधनों और स्वभाव के अनुसार चलें। जब 1946-47 में अंग्रेजों के भारत का राज्य छोड़ने की बात चली, तब अंग्रेजों को कि वे चले जाएं, कहने का हमारा मुख्य उद्देश्य था कि हम भारत वर्ष को अपने साधारण लोगों की परम्पराओं, मानसिकताओं, स्वभाव और आवश्यकताओं के अनुसार चला सकें। लेकिन बहुत कारणों से तब यह नहीं हो पाया और अंग्रेजों ने जो ढांचा और तंत्र भारत में 1760 के बाद कायम किया, उसी को हमने अपना लिया। अंग्रेज भी और हम भी, यह बात कम से कम सन् 1920 से तो, जानते ही थे कि यह ढाँचा व तंत्र हमारे किसी काम का नहीं है यह बहुत लचर हो चुका है। इसकी मान्यताएं हमारे यहां के लोगों की मान्यताओं से हर दृष्टि से भिन्न हैं और वे हमारी मान्यताओं से कहीं भी मेल नहीं खाती और इस ढांचे की नींव पर कोई स्वस्थ और सुखी समाज नहीं चल सकता।
लेकिन हम राजनीति शास्त्र से शायद कई सौ बरसों से इतने अनभिज्ञ थे और अपने को इतना शक्तिहीन मानते थे कि हमें इस अंग्रेजी ढांचे और तंत्र को बदलने का साहस नहीं हुआ। इसी समय बहुत से कारणों से देश के बंटवारे का प्रश्न भी बहुत तेजी से उठ खड़ा हुआ। ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही था कि हम अपने होश-हवास भी खो बैठे और संभलने में और अंग्रेजों के समय की 1946 की स्थिति तक वापिस लाने में, हमें तीन चार बरस लग गए। इन तीन चार वर्षों में ये अंग्रेजी ढांचा और तंत्र हमारे नेताओं और देश चलाने वालों को अपना ही लगने लगा। इनमें से अधिक लोग बूढ़े भी होने लगे थे और कोई भी बदलाव उन्हें अच्छा नहीं लगता था और देश का उत्साह और शक्ति भी धीरे-धीरे कम हो चली थी। अंग्रेजी राज्य में डेढ़ सौ वर्ष तक अंग्रेजी और अंग्रेजी मान्यताओं का जो प्रभाव हमारे यहां हुआ उससे प्रभावित लोग हमारे यहां तब लाखों में रहे। उनके देश की परम्पराओं से बचा खुचा संबंध स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे कम होता गया और वे अंग्रेजों और यूरोप की व्यवस्था पर और अधिक आसक्त हो गए। ये बिगाड़ इतना बढ़ा कि हमारी दृष्टि इंग्लैण्ड, यूरोप और अमरीका की तरफ ही लगी रही और हम कुछ ऐसा मानने लगे कि जैसे हमारे पड़ोस के एशिया और अफ्रीका के लोग तो हमारे लिए कोई मायने ही नहींरखते।
महात्मा गांधी के काम और आकर्षण से इनमें से अधिकांश देश और लोग हमारे से काफी अपेक्षाएं रखते थे। वे मानते थे कि हम एशिया, कम से कम बौद्ध धर्म से प्रभावित एशिया और हिन्द महासागर के करीब के अफ्रीका को राजनीति और समाज व्यवस्था का एक नया दर्शन बनाने में सहकार करेंगे। लेकिन हमने तो बहुत करके उनकी तरफ से आँखें ही मोड़ लीं जैसे कि हमें दिखना ही बंद हो गया हो। इन तीन प्रदेशों के बनने से सम्भवतः भारत के स्वराज का एक नया प्रारम्भ हो सकता है। अगर उत्तरांचल और दूसरे दोनों प्रदेशों के जन, और खासकर युवा लोग, विचार करें और आवश्यक प्रयत्न करें तो यह सम्भव है कि कम से कम इन तीन प्रदेशों में हम जिस तरह का स्वराज्य 1946-47 तक चाहते थे, उसे अब स्थापित कर सकें।
उसके लिए आवश्यक होगा कि जहां तक हो सके कि अंग्रेजों के कारण हमारे यहां जो बिगाड़ हो गया, उसको सही कर दिया जाए और अंग्रेजों का दिया ढाँचा और तंत्र छोड़कर हम नए ढांचे और तंत्र की नींव डालें। ऐसा करने में बहुत हद तक तो हमें महात्मा गांधी के बतलाए रास्ते पर ही चलना होगा। लेकिन ये रास्ता केवल गांधी जी ने ही नहीं बतलाया था। भारत अत्यंत प्राचीन काल से इसी तरह के रास्ते पर और जिन मान्यताओं पर ये रास्ते बने हैं, उन पर चलता आया है। हो सकता है कि कुछ बातों में हमारे पुराने रास्तों में कमजोरी हो। हमें दूसरे खूंखार देशों की तरह, जैसे कि यूरोप कई हजार बरस से रहा है, और दूसरे कुछ देश भी जैसे खूंखार या आक्रामक स्वभाव के रहे हैं, वैसा नहीं बनना है। लेकिन खूंखार और आक्रामक होना तो भारत की प्राथमिकता नहीं है। और खूंखार आक्रामक लोग भी, काल के बदलने पर, दो सौ चार सौ बरसों में ही, अक्सर दूसरों से पिट जाते हैं। जैसा हम जानते हैं कि पिछले डेढ़ दो हजार बरस का ईसाइयत व इस्लाम का इतिहास इसी खूंखारपन, आक्रामकता और पिटने का इतिहास है।
हमारे इन प्रदेशों में जो पुनरर्चना होगी, उसमें सौंदर्य, स्वच्छता आवश्यक साधन खाना-पीना, मेल मिलाप, समझ और अपने पड़ोस के संसार का और उस संसार का सृष्टि से क्या संबंध है यह तो उनका आधार रहेगा किंतु अलग-अलग तरह की जानकारी, विद्याएं कारीगरी, जैसे-जैसे उनकी आवश्यकताएं होंगी, यह समाज बनाता रहेगा। इनमें पातंजलि सूत्र, भारत के नाट्यशास्त्र, चरकसंहिता, वास्तुशास्त्र की अलग-अलग विद्याएं, आवश्यकता होने पर समय-समय पर इन समाजों की मदद करेंगी। पर ये समाज क्या-क्या चाहता है इनकी क्या प्राथमिकताएं हैं इसका निर्णय तो वह स्वयं ही करें और हो सकता है कि उत्तरांचल प्रदेश में एक ही बात पर बीसियों तरह के निर्णय हों, जो अलग-अलग समूहों और लोगों की जो-जो आवश्यकताएं हैं, उनको पूरा करते हों। ये कहना आवश्यक है कि ऐसा बदलाव दो-चार बरस में शायद नहीं आए पर एक दो पीढ़ी में तो आ ही जायेगा।
अगर ऐसे आवश्यक बदलाव उत्तरांचल जैसे एक प्रदेश में आए, तो न केवल अन्य नए बने प्रदेशों में भी आ सकता है, पर इनके देखा-देखी अन्य प्रदेशों में, सारे भारत वर्ष में भी आ सकता है। और अगर ऐसा हुआ तो 20-50 वर्षों में भारत का स्वराज्य जो 1946-47 में हमारे से दूर रह गया था, वह फिर हमारे पास वापिस आ जाए। और भविष्य का हमारा संसार उस स्वराज्य व उसकी धारणाओं और मान्यताओं के अनुसार चलने लगे। ऐसा स्वराज्य अगर वापिस आता है तो हमें अवसर मिलेगा कि हम अपने पड़ोस के तीस-पचास देशों से, जो हिन्द महासागर के चारों तरफ बसे हुए हैं, घनिष्ट संबंध स्थापित कर सकें और फिर इन तीस-पचास देशों का एक ऐसा महान वृत्त बने जो अब तक संसार में इस प्रकार के वृत्त बनाने के अलग-अलग प्रयत्न हुए हैं जैसे कि पिछले 80 वर्षों में यूरोप और अमरीका ने लीग आॅफ नेशंस, संयुक्त राष्ट्र संघ इत्यादि को बना कर किए हैं - उनकी तुलना में यह अपने से जुड़े देशों का अधिक भला करे और बांकी संसार को भी आज से अधिक सुखी बनाने में मदद करे।
आज का 200-500 वर्ष से यूरोप और अमरीका का बनाया संसार तो दुःख और क्लेश से ही भरा है; जितनी ऊँच-नीच इस संसार में है, उतनी तो पहले कभी नहीं हुई। जितनी हिंसा इसमें है, उतनी हिंसा तो पुराने यूरोप के ईसाइयों और इस्लाम के लोगों ने भी कभी नहीं की। यूरोप और इस्लाम में सन् 1100 से 1500 तक जो क्रूसेड हुए, उनमें भी नहीं। अगर हमारा स्वराज्य वापिस आता है और हम ऐसा वृत्त बनाने में सहकार करते हैं तो सम्भव है कि अन्य वृत्तों में जो देश और जन हैं, हम उनके भी कुछ काम के हों।
हमारी सूझबूझ से हो सकता है, उनके अनेक झगड़े-लड़ाइयाँ सुलझाने में हम मदद कर सकें। आज का ही समय लीजिए। हमारा ‘स्वराज्य’ जो कि हमारी परम्परा की, हमारी मान्यता, से हमें विरासत में मिला है जिसे महात्मा गांधी ने दुबारा वापिस लाने का रास्ता हमें बतलाया, वह अगर हमारे पास इस समय होता और हम अपने पड़ोस के देशों का एक वृत्त भी बना पाते तो आज जो संयुक्त राज्य अमरीका, अफगानिस्तान में बड़ी कलह हुई है उसको सुलझाने का हम कोई रास्ता बतला पाते।
हम व यूरोप के अन्य देश जैसे कि जर्मनी इत्यादि आज जो कर रहे हैं, उससे तो कलह बढ़ती ही है या सभी देश एक दूसरे से भयभीत हो जाते हैं, लेकिन इससे सुलझने के रास्ते तो नहीं निकलते। उत्तरांचल का स्वराज और उससे प्रभावित भारत का स्वराज तो न केवल अपने को सुखी रख सकेगा, सम्भव है वह आज के यूरोप-अमरीका के बनाए संसार को भी सुखी होने का रास्ता बता सके।
Path Alias
/articles/utataraancala-raajaya-kae-gathana-para-kaucha-vaicaara
Post By: Hindi