उत्तराखंड में राजनीति में उलझी गंगा

गंगा को लेकर राजनीति बराबर चलती आ रही है चाहे वह गंगा पर बन रहे बांधों को लेकर राजनीति हो या गंगा प्रदूषण तथा अविरल निर्मल प्रवाह की राजनीति। पहले गंगा पर बन रहे बांधों को रुकवाने का श्रेय लेने के लिए राजनीति होती थी। लेकिन अब पर्यावरण की अनदेखी करके बांधों पर जल विद्युत परियोजना को जोरशोर से बनाने की राजनीति हो रही है। गंगा को लेकर जिस तरह से उत्तराखंड सरकार के दो कांग्रेसी दिग्गज आपस में लड़ रहे हैं वह गंगा और पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है। उत्तराखंड में गंगा को लेकर हो रहे राजनीति के बारे में बता रहे हैं प्रदीप शर्मा।

नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जो स्टैंड लिया, उससे यह साफ हो गया कि वह अपनी ही पार्टी के सांसद एवं केंद्रीय मंत्री के सुझावों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। खासकर जिस तरह मुख्यमंत्री ने पूर्व में रोकी गई लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैंरोघाटी परियोजनाओं को फिर प्रारंभ करने की पैरवी की और संभावित बिजली उत्पादन की एवज में किसी भी क्षतिपूर्ति को अपर्याप्त बताया, उन्होंने यह साफ कर दिया कि मुख्यमंत्री, केंद्रीय राज्यमंत्री के सुझावों से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं।

गंगा के मामले में उत्तराखंड सरकार के दो कांग्रेसी दिग्गजों की आपसी कलह जिस तरह सामने आई है, वह गंगा और कांग्रेस दोनों के लिए शुभ संकेत नहीं है। गंगा पर सियासत यूं तो नई बात नहीं है, लेकिन मौजूदा समय में उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं पर चल रहे घमासान ने इसे बिल्कुल अलग मोड़ दे दिया है। इस अहम मसले पर कांग्रेस सीधे तौर पर दो खेमों में बंट गई है। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा इन परियोजनाओं की हिमायत में खुले तौर पर उतर आए हैं, जबकि उन्हीं की पार्टी के हरिद्वार से सांसद और केंद्रीय संसदीय राज्य मंत्री हरीश रावत का नजरिया इसके बिल्कुल उलट है। पहाड़ और मैदान (हरिद्वार) की सियासी जरूरतों ने इन दो कांग्रेसी दिग्गजों को अपने सुर अलग अलग रखने को मजबूर कर दिया है। उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद को लेकर आमने-सामने रहे विजय बहुगुणा और हरीश रावत एक बार फिर गंगा के मुद्दे पर अलग-अलग किनारे पर खडे नजर आ रहे हैं।

नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक में राज्य की जल विद्युत परियोजनाओं के भविष्य पर चर्चा दोनों के बीच अलगाव का कारण बन गई। मुख्यमंत्री बहुगुणा ने जब नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक से पूर्व इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिए नई दिल्ली में सर्वदलीय बैठक बुलाई तो केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत इसमें शामिल नहीं हुए। अगले ही दिन उन्होंने मुख्यमंत्री को एक पत्र लिखकर उनकी पहल की सराहना तो की, लेकिन केंद्र सरकार के समक्ष रखने के लिए अपने कई सुझाव भी दे डाले। रावत ने अपने पत्र में साफ कर दिया कि वह संवेदनशील क्षेत्र में बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने राज्य के सीमांत और पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले जिलों को ग्रीन बोनस देने, राज्य को केंद्र सरकार द्वारा विद्युत अनुदान प्रदान करने और सीमांत संवेदनशील क्षेत्रों को पिछड़ा क्षेत्र घोषित करते हुए राजकीय सेवाओं में विशेष आरक्षण प्रदान करने का सुझाव दिया।

रावत के सुझावों पर मुख्यमंत्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया तो नहीं आई, लेकिन नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी की बैठक में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जो स्टैंड लिया, उससे यह साफ हो गया कि वह अपनी ही पार्टी के सांसद एवं केंद्रीय मंत्री के सुझावों से इत्तेफाक नहीं रखते हैं। खासकर जिस तरह मुख्यमंत्री ने पूर्व में रोकी गई लोहारी नागपाला, पाला मनेरी और भैंरोघाटी परियोजनाओं को फिर प्रारंभ करने की पैरवी की और संभावित बिजली उत्पादन की एवज में किसी भी क्षतिपूर्ति को अपर्याप्त बताया, उन्होंने यह साफ कर दिया कि मुख्यमंत्री, केंद्रीय राज्यमंत्री के सुझावों से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं। दरअसल, उत्तराखंड में कांग्रेस के इन दो दिग्गजों के स्टैंड में जमीन-आसमान के फर्क के मूल में सीधे-सीधे राजनीतिक कारण हैं।

मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सरकार के मुखिया होने के नाते स्थानीय जनभावनाओं के मुताबिक स्टैंड ले रहे हैं। इसके अलावा वह टिहरी के सांसद हैं और यह मसला उनके लोकसभा क्षेत्र से भी जुड़ा हुआ है।

अब बहुगुणा को निकट भविष्य में किसी पर्वतीय जिले की सीट से ही विधायक भी बनना है, लिहाजा उन्हें पहाड़ के जनमानस और उनके हितों की पैरोकारी करनी ही होगी। ठीक यही स्थिति कांग्रेस के दूसरे सांसद और केंद्रीय संसदीय राज्य मंत्री हरीश रावत के साथ भी है। वह लोकसभा में राज्य के मैदानी क्षेत्र (हरिद्वार) का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसी वजह से वह किसी भी स्थिति में संत समाज को नाराज करके जोखिम मोल नहीं ले सकते। अगर वह जल विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में खड़े होंगे तो उन्हें हरिद्वार में इसका परिणाम भुगतना पड़ सकता है। साफ है, गंगा और जल विद्युत परियोजनाओं पर जो भी स्टैंड लिया जा रहा है, वह अपनी-अपनी सियासी सहूलियत को देखते हुए ही लिया जा रहा है। इन दोनों की जबानी जंग अब उन्हीं तक सीमित नहीं है। इस लड़ाई में अब दूसरे नेता भी कूद चुके हैं, उत्तराखंड प्रदेश कांग्रेस के महासचिव, हरीश रावत के इस मामले को उनके बड़बोलापन, सुर्खियों में बने रहने की उनका कला का हिस्सा बताते हुए कहते हैं कि जिस काम में जनता का हित न हो उस पर नेताओं को बड़बोलेपन से बचना चाहिए।

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