सितंबर 2011 को हिमालय दिवस के अवसर पर सैडेड द्वारा ‘हिमालय बचाओ’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में उत्तराखंड में दशकों से पंचायती व्यवस्थाओं पर काम कर रहे जोत सिंह बिष्ट के भाषण का लिखित पाठ यहां प्रस्तुत है।
इस पच्चीस-तीस साल के समय में तब से अब तक नदियों से गाढ़-गधेरों से पानी खत्म हुआ है साथ ही जो पानी के छोटे-छोटे स्रोत हुआ करते थे वो सब खत्म हो गए हैं। अब पिछले कुछ सालों से समझ आने गया कि निश्चित रूप से बहुगुणा जी ने आज से पच्चीस-तीस साल पहले जो बात कही थी वो सही थी। बहुगुणा की बात और उत्तराखंड के लोगों के सपने कितने सालों में साकार होगी ये तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन होगी जरूर। अगर हम लोग अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख रहें और संकल्प लें कि हिमालय इतना बड़ा है इसकी रक्षा कौन कर सकता है जो सबकी रक्षा कर सकता है तो हम उसकी रक्षा क्या करेंगे।
मानव शरीर की जो संरचना है उसमें एक तो वो जीवाणु होता है जो शरीर की रक्षा करने का, उसके जो शैल होते हैं उन्हें पुनः रिपेयर करने का काम करता है और एक वो होता है जो उनको खत्म करने का काम करता है। ऐसे ही हिमालय में हम लोग जो हिमालय के नजदीक हैं, हिमालय के इर्द-गीर्द जो लोग हैं, हमारे अगर काम करने का तरीका, हमारा सोचने का तरीका हिमालय के रक्षा की दिशा में होगा, अगर हमारा उससे जुड़ाव होगा और हिमालय से जो हमको मिल रहा है उसको हम अपना समझकर के हम भागीदार बनेंगे तो निश्चित रूप से हम लोग उस दिशा में आगे बढ़ेंगे। तब पर्यावरण की रक्षा भी होगी। पानी की रक्षा भी होगी। यहां सवाल ये भी है कि क्या ये जो पूरा शासन तंत्र है हिमालय के प्रति गम्भीर है? वन अधिनियम 1980 जो बताता है कि साल में जब फायर सीजन आएगा, तब गांव के लोग आओ और आग बुझाने के लिए खड़े हो जाओ! और बाकी के जो आठ महिने हैं उन आठ महिनों में हमको वन विभाग का आदमी बोलता है कि ये जंगल वन विभाग का है।
आप उसमें प्रवेश नहीं कर सकते। ऐसे में जुड़ाव का रास्ता बनने के बजाए उसको तोड़ने का काम किया जाता है। फिर ये कहना कि जंगल सुरक्षित रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है, का क्या मतलब है? यहां इस नीति, इस विचार पर फिर से सोचने की जरूरत है। मैं टिहरी जिले का रहने वाला हूं। टिहरी बांध इतना बड़ा बांध बना जिस पर साल भर में पानी का जो स्तर है न्यूनतम जो उसकी सीमा 740 और अधिकतम 820 है। आजकल 818 पर है, मेरे घर से जब वो झील दिखाई देती है तो देखने में अच्छा लगता है। कोई मेरे घर आएगा और वहां से देखेगा तो कहेगाा कि आपका घर तो बहुत अच्छी जगह है। मुझे तो रोज देखने को मिलती है इसलिए मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। साल भर में उसका जल स्तर 80 मीटर वर्टीकली वैरी करता है तो उस जलाशय से हम ड्रीकिंग वाटर की स्कीम भी नहीं बना सकते, सिंचाई तो बहुत दूर की बात है। मछली का जो व्यवसाय है उससे हम नहीं जुड़ सकते। वो झील हमारे किसी काम की नहीं और वहां पर जो बिजली बनेगी, उस झील में जो पानी भरेगा उसका उपयोग दिल्ली के लोग करेंगे। उत्तर प्रदेश के लोग करेंगे। चाहे वो बिजली के लिए करें या सिंचाई के लिए।
मेरा मानना है कि हिमालय की रक्षा का दायित्व सिर्फ वहां पर रहने वालों का नहीं है। ऐसे बांधें से मैदानी क्षेत्रों को भी लाभ मिलता है ऐसे में सबको हिमालय के बारे में सोचना चाहिए केवल हिमालय में रहने वाले लोगों के सोचने भर से काम चलने वाला नहीं है। जहां तक पंचायत की बात है तो कोई भी पैसा चाहे ग्राम पंचायत में आए या जिला पंचायत में आए तो उसकी पहली प्राथमिकता में जल स्रोतों का संरक्षण और संवर्धन, वृक्षारोपण है इसके बाद ही दूसरी चीज आती है। इसमें खूब पैसा आता है। इस देश में जल संरक्षण, जल संवर्धन और वृक्षारोपण पर अरबों रुपया लगाया जाता है लेकिन उस काम को करने की ज़िम्मेदारी के लिए सिविल इंजीनियर बनाए गए हैं। जल विज्ञान क्या है? मुझे नहीं लगता कि सिविल इंजीनियरिंग में इस विषय को पढ़ाया जाता होगा! जब तक हम पूरे फैरेस्टेशन और जल विज्ञान में जो वाटर केमेस्ट्री है उसको समझने वाले लोगों को जिम्मेदारी नहीं देंगे, कि कैसे जल स्रोतों का संरक्षण और संवर्धन किया जाता है तब तक स्थिति ठीक नहीं होने वाली।
इन सबके नाम पर जो स्कील बनती है उसमें सिमेंट पुताई का जो काम हो रहा है और ज्यादातर पैसा जल स्रोतों पर सिमेंट पोतने पर लगाया जा रहा है। मुझे नहीं लगता की हम जल संवर्धन और संरक्षण पर कोई काम कर रहे हैं। जिस ढ़ंग से सड़कें बन रही हैं और उन सड़कों के बनने से इस साल जो बरसात हुई तो टिहरी से उत्तरकाशी जाने वाला रास्ता पिछले ढ़ाई महिने में लगभग साठ दिन बंद रहा। ऐसी स्थिति में जिस ढ़ंग से वो ब्लास्टिंग कर रहे हैं और जिस तरह से टनल बना रहे हैं उस पर पुनर्विचार करने व बेहतर तकनीक के माध्यम से निर्माण करने की जरूरत है। उत्तराखंड में जो निर्माण कार्य हो रहे हैं उसमें उसके मुताबिक नई तकनीक की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है कि हिमालय व हिमालय के संपदाओं के प्रति अपनत्व बने, लोग उसको अपना समझें तो निश्चित रूप से उसका लाभ न केवल वहां पर रहने वाले लोगों को मिलेगा बल्कि पूरे देश के लोगों को मिलेगा।
उत्तराखंड में जो निर्माण कार्य हो रहे हैं उसमें उसके मुताबिक नई तकनीक की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है कि हिमालय व हिमालय के संपदाओं के प्रति अपनत्व बने, लोग उसको अपना समझें तो निश्चित रूप से उसका लाभ न केवल वहां पर रहने वाले लोगों को मिलेगा बल्कि पूरे देश के लोगों को मिलेगा।
मैं 1982 से पंचायतों से जुड़ा हूं। पंचायत पर काम करते हुए पंचायत के विषय पर अभी भी सीखने का प्रयत्न कर रहा हूं। मेरा सौभाग्य है कि बहुगुणा जी मेरे ही विकास खंड के निवासी हैं। अक्सर ऐसा होता है कि घर का जोगी जोगना और आन गांव का सिद्ध! जब बहुगुणा जी पर्यावरण की रक्षा के लिए अलख जगाने के शुरूआती दौर में थे उसी दौर में पहली बार बहुगुणा जी से सुनने को मिला कि पानी बचाव। तब हमारी उम्र कम थी। हम सोचते थे कि कैसी बातें कर रहे हैं बहुगुणा जी? गंगा में तो पानी है ही, यमुना में भी है। हमारे गाढ़-गधेरों में भी पानी है जगह-जगह पानी के स्रोत हैं पर ये पानी की बात क्यों कर रहे हैं?इस पच्चीस-तीस साल के समय में तब से अब तक नदियों से गाढ़-गधेरों से पानी खत्म हुआ है साथ ही जो पानी के छोटे-छोटे स्रोत हुआ करते थे वो सब खत्म हो गए हैं। अब पिछले कुछ सालों से समझ आने गया कि निश्चित रूप से बहुगुणा जी ने आज से पच्चीस-तीस साल पहले जो बात कही थी वो सही थी। बहुगुणा की बात और उत्तराखंड के लोगों के सपने कितने सालों में साकार होगी ये तो मैं नहीं बता सकता, लेकिन होगी जरूर। अगर हम लोग अपने कर्तव्यों के प्रति विमुख रहें और संकल्प लें कि हिमालय इतना बड़ा है इसकी रक्षा कौन कर सकता है जो सबकी रक्षा कर सकता है तो हम उसकी रक्षा क्या करेंगे।
मानव शरीर की जो संरचना है उसमें एक तो वो जीवाणु होता है जो शरीर की रक्षा करने का, उसके जो शैल होते हैं उन्हें पुनः रिपेयर करने का काम करता है और एक वो होता है जो उनको खत्म करने का काम करता है। ऐसे ही हिमालय में हम लोग जो हिमालय के नजदीक हैं, हिमालय के इर्द-गीर्द जो लोग हैं, हमारे अगर काम करने का तरीका, हमारा सोचने का तरीका हिमालय के रक्षा की दिशा में होगा, अगर हमारा उससे जुड़ाव होगा और हिमालय से जो हमको मिल रहा है उसको हम अपना समझकर के हम भागीदार बनेंगे तो निश्चित रूप से हम लोग उस दिशा में आगे बढ़ेंगे। तब पर्यावरण की रक्षा भी होगी। पानी की रक्षा भी होगी। यहां सवाल ये भी है कि क्या ये जो पूरा शासन तंत्र है हिमालय के प्रति गम्भीर है? वन अधिनियम 1980 जो बताता है कि साल में जब फायर सीजन आएगा, तब गांव के लोग आओ और आग बुझाने के लिए खड़े हो जाओ! और बाकी के जो आठ महिने हैं उन आठ महिनों में हमको वन विभाग का आदमी बोलता है कि ये जंगल वन विभाग का है।
आप उसमें प्रवेश नहीं कर सकते। ऐसे में जुड़ाव का रास्ता बनने के बजाए उसको तोड़ने का काम किया जाता है। फिर ये कहना कि जंगल सुरक्षित रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है, का क्या मतलब है? यहां इस नीति, इस विचार पर फिर से सोचने की जरूरत है। मैं टिहरी जिले का रहने वाला हूं। टिहरी बांध इतना बड़ा बांध बना जिस पर साल भर में पानी का जो स्तर है न्यूनतम जो उसकी सीमा 740 और अधिकतम 820 है। आजकल 818 पर है, मेरे घर से जब वो झील दिखाई देती है तो देखने में अच्छा लगता है। कोई मेरे घर आएगा और वहां से देखेगा तो कहेगाा कि आपका घर तो बहुत अच्छी जगह है। मुझे तो रोज देखने को मिलती है इसलिए मेरे लिए कोई नई बात नहीं है। साल भर में उसका जल स्तर 80 मीटर वर्टीकली वैरी करता है तो उस जलाशय से हम ड्रीकिंग वाटर की स्कीम भी नहीं बना सकते, सिंचाई तो बहुत दूर की बात है। मछली का जो व्यवसाय है उससे हम नहीं जुड़ सकते। वो झील हमारे किसी काम की नहीं और वहां पर जो बिजली बनेगी, उस झील में जो पानी भरेगा उसका उपयोग दिल्ली के लोग करेंगे। उत्तर प्रदेश के लोग करेंगे। चाहे वो बिजली के लिए करें या सिंचाई के लिए।
मेरा मानना है कि हिमालय की रक्षा का दायित्व सिर्फ वहां पर रहने वालों का नहीं है। ऐसे बांधें से मैदानी क्षेत्रों को भी लाभ मिलता है ऐसे में सबको हिमालय के बारे में सोचना चाहिए केवल हिमालय में रहने वाले लोगों के सोचने भर से काम चलने वाला नहीं है। जहां तक पंचायत की बात है तो कोई भी पैसा चाहे ग्राम पंचायत में आए या जिला पंचायत में आए तो उसकी पहली प्राथमिकता में जल स्रोतों का संरक्षण और संवर्धन, वृक्षारोपण है इसके बाद ही दूसरी चीज आती है। इसमें खूब पैसा आता है। इस देश में जल संरक्षण, जल संवर्धन और वृक्षारोपण पर अरबों रुपया लगाया जाता है लेकिन उस काम को करने की ज़िम्मेदारी के लिए सिविल इंजीनियर बनाए गए हैं। जल विज्ञान क्या है? मुझे नहीं लगता कि सिविल इंजीनियरिंग में इस विषय को पढ़ाया जाता होगा! जब तक हम पूरे फैरेस्टेशन और जल विज्ञान में जो वाटर केमेस्ट्री है उसको समझने वाले लोगों को जिम्मेदारी नहीं देंगे, कि कैसे जल स्रोतों का संरक्षण और संवर्धन किया जाता है तब तक स्थिति ठीक नहीं होने वाली।
इन सबके नाम पर जो स्कील बनती है उसमें सिमेंट पुताई का जो काम हो रहा है और ज्यादातर पैसा जल स्रोतों पर सिमेंट पोतने पर लगाया जा रहा है। मुझे नहीं लगता की हम जल संवर्धन और संरक्षण पर कोई काम कर रहे हैं। जिस ढ़ंग से सड़कें बन रही हैं और उन सड़कों के बनने से इस साल जो बरसात हुई तो टिहरी से उत्तरकाशी जाने वाला रास्ता पिछले ढ़ाई महिने में लगभग साठ दिन बंद रहा। ऐसी स्थिति में जिस ढ़ंग से वो ब्लास्टिंग कर रहे हैं और जिस तरह से टनल बना रहे हैं उस पर पुनर्विचार करने व बेहतर तकनीक के माध्यम से निर्माण करने की जरूरत है। उत्तराखंड में जो निर्माण कार्य हो रहे हैं उसमें उसके मुताबिक नई तकनीक की जरूरत है। सबसे बड़ी बात है कि हिमालय व हिमालय के संपदाओं के प्रति अपनत्व बने, लोग उसको अपना समझें तो निश्चित रूप से उसका लाभ न केवल वहां पर रहने वाले लोगों को मिलेगा बल्कि पूरे देश के लोगों को मिलेगा।
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