उत्तराखंड का कहानी, लोगों की जुबानी

उत्तराखंड का अधिकतर भू-भाग पहाड़ी है। उत्तराखंड की स्थापना 9 नवम्बर 2000 को हुई अर्थात उस दिन उत्तराखंड को एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता मिली। उत्तराखंड के पूरे भू-भाग को 13 भागों अर्थात जिलों के आधार पर जाना जाता है।

उत्तराखंड का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत और अवर्णनीय है। वहां चारों ओर आसमान से बातें करती और एक-दूसरे से होड़ लगाती ऊंची पहाड़ियां दिखाई देती हैं, वो पहाड़ियां चीड़ के घने और ऊंची वृक्षों के अलावा घास से ढ़की हुई हैं। सुबह के समय चारों ओर औंस और बर्फ से ढ़की भूमि ऐसे लगती है मानो किसी ने सफेद चादर बिछा दी हो और दिन के समय बिल्कुल साफ धूप शर्द पहाड़ी इलाके को रोशन और गर्म बना देती है वहीं रात को ठंड बढ़ जाती है और आसमान में तारे इतने साफ और बड़े-बड़े दिखाई देते हैं मानों उन्हें बढ़कर तोड़ लें।

उत्तराखंड की नैसर्गिक सुंदरता में रहते हुए वहां के लोगों की प्रकृति भी बहुत ही सौम्य और सरल होती है। वहां रहने वाले लगभग सभी लोग भोले-भाले और सरल होते हैं। वहां के लोग विभिन्न अवसरों पर गाते-गुनगुनाते हुए देखे जा सकते हैं। वे आपस में शांति और सौहार्द से रहते हैं और जरूरत के समय एक-दूसरे के काम आते हैं। वे न केवल इंसानों बल्कि अपने पशुओं को भी अपनी ही तरह महत्व देते हैं। किसी भी त्यौहार में यहां तक कि शादी-ब्याह में भी पशुओं को याद जरूर किया जाता है और उन्हें भी विशेष स्थान दिया जाता है। वहां के लोग खेती की प्रक्रिया अर्थात बुवाई से लेकर फसल काटने, उनका भंडारण करने और फिर उनका प्रयोग शुरू करने तक लगभग हर मौके पर कोई न कोई उत्सव मनाते हैं।

वहां के लोगों का रोजी-रोटी का साधन खेती-बाड़ी, छोटी-मोटी दुकानदारी, मजदूरी और कुछ क्षेत्रों में नौकरियां हैं और वो कुछ हद तक सरकारी क्षेत्र तक ही सीमित दिखाई देती हैं क्योंकि निजी क्षेत्रों की कमी है इसलिए या तो लोग खेती-बाड़ी करते हैं, सरकारी नौकरियों में हैं या फिर बेरोजगार ही बैठे हैं। वहां संसाधनों की कमी के कारण बेरोजगारी बहुत अधिक है। वहां के अधिकतर युवा लोग रोजगार की तलाश में वहां से शहरों या महानगरों की ओर पलायन कर गए हैं और बचे हुए लोग या तो खेती करते हैं या फिर बेरोजगार हैं।

वहां अधिकतर लोग खेती करते हैं, अधिकतर लोगों के पास अपने खेत हैं लेकिन जिन लोगों के पास अपने खेत नहीं हैं उन्होंने अन्य लोगों से खेत उधार ले रखे हैं जिसके बदले में वो साल भर में उन्हें कुछ या कभी-कभी कुल फसल का आधा अनाज या पैसा दे देते हैं। वहां अधिकतर पहाड़ी इलाके होने के कारण सीढ़ीदार खेती की जाती है जिससे खेती करने के लिए कम जमीन मिल पाती है और जो मिलती भी है उसमें हमेशा अच्छी उपज हो ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि वहां की अधिकतर खेती वर्षा पर आधारित है। आज भी वहां की अधिकतर खेती में रासायनों का प्रयोग नहीं किया जाता है वो आज भी परंपरागत तरीके की खेती करते हैं, अपने खेतों में घर की बनी हुई खाद अर्थात गोबर आदि की खाद को डालते हैं अर्थात किसी भी रासायनिक या अन्य किसी भी अशुद्ध रूप से रहित खाद।

वहां सिंचाई के कुछ खास साधन नहीं हैं कहीं-कहीं पर कुछ टैंक हैं और कुछ नहरें हैं लेकिन टैंक क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और नहरें पुरानी हो चुकी हैं जिनसे पर्याप्त पानी उपलब्ध होना कठिन है। अगर बीज की बात करें तो वहां की खेती में पहाड़ी बीज का प्रयोग होता है, वे लोग कन्ट्रोली और छोटू धान लगाते हैं। वहां लोग अपने पूरे अनाज को इस्तेमाल करने की बजाय कुछ अनाज को अगले सीजन के लिए बीज की तरह प्रयोग करने के लिए सुरक्षित रख लेते हैं। वहां लोगों को बीजों को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी तरह की मशीनों की आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि वहां पर बीज तो अपने-आप ही सुरक्षित रहते हैं, वो बीजों को धूप में सुखाकर उसमें बिताड़ के पत्ते डाल देते हैं जिससे कीड़ा नहीं लगता। कुछ लोग बीजों में अखरोट के पत्ते डाल देते हैं, कुछ लोग गोबर की राख डालते हैं लेकिन आजकल कुछ लोग नवान और टेबलेट या अन्य दवाएं भी डालते हैं। लेकिन खड़ी फसल की सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं डाला जाता है।

वहां की प्राकृतिक सरंचना ऐसी है कि वहां के लोगों ने अपने लगभग सभी कामों को त्यौहारों या उत्सवों से जोड़ा हुआ है या यूं कहा जाए कि उन लोगों ने अपने लगभग सभी विशेष मौकों के लिए उत्सवों का निमार्ण किया है तो ज्यादा ठीक होगा। वहां लगभग हर काम में यहां तक कि लगभग सभी अवसरों पर लोक संगीत की धुनें सुनाई देती हैं यहां तक कि महिलाएं खेतों में धान की रोपाई, गुड़ाई के समय भी पारम्परिक गीतों को गाती हुई दिखाई देती हैं।

वहां लगभग हर महीने में एक या दो त्यौहार आते ही हैं और हर त्यौहार का अपना अलग महत्व होता है, उसको मनाने के कारण या उसके तरीके अलग-अलग होते हैं। वहां हर त्यौहार में भगवान को याद जरूर किया जाता है और हर त्यौहार में अलग-अलग भगवानों की पूजा की जाती है। गोर्वधन पूजा में गाय का त्यौहार होता है, उस दिन गाय को नहलाकर उसकी पूजा की जाती है। वहां हरेला का त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है जिसमें त्यौहार से नौ दिन पहले जौ,धान,झंगोरा,कौणि, मांस, भट्ट, मक्का आदि सात अनाजों को बोया जाता है और दसवें दिन उसको काट देते हैं और उसे प्रसाद के रूप में परिवार के सभी लोगों के सिरों में रखा जाता है। फिर विभिन्न पकवान बनाए और खाए जाते हैं। वहां लोग फसल बोते समय किसी भी तरह की पूजा नहीं करते हैं लेकिन फसल पकने के बाद खेतों में बुआई करने के बाद त्यौहार जरूर मनाते हैं जिसे ‘हवकत्यार‘ कहते हैं। उस दिन हल की पूजा की जाती है।

उसी तरह घी त्यौहार के दिन घी से बने पकवान खाए जाते हैं। बसंत पंचमी के दिन जौ काटते हैं और भगवान को चढ़ाते हैं। पंचमी के दिन जौ की पूजा होती है भगवान को जौ के पौधे चढ़ाए जाते हैं। बैसाखी सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है, उस दिन गेहूं की फसल काटते हैं और गाय-बच्चियों और अन्य पशुओं के विष को झाड़ा जाता है। बग्वाली त्यौहार में ओखली के मंदिर तक लक्ष्मी के पैर बनाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उत्तरयाणी में सूरज उत्तर की तरह खिसक जाता है इस दिन आटे और गुड़ से घुघते बनाए जाते हैं, इस दिन मेला भी लगता है। पंचमी के दिन जौ चढ़ाते हैं, इस दिन सरसों फूल जाती है इसलिए बंसत के दिन भगवान को पीले रंग से संबधित चीजों की भेंट चढ़ाई जाती है। यहां के अन्य त्यौहारों की तरह होली भी विशेष तरीके से मनाई जाती है। वो होली लगभग 45 दिन की होती है। सबसे पहले विष्णु पद की होली, फिर शिव की, फिर गणेश की, और उसके बाद कृष्ण लीला की।

उत्तराखंड के अधिकतर क्षेत्रों में मसूर, जौ, गेहूं, भट्ट, मांस की दाल, धान, कौणि, झंगोरा, गहत, मंडुआ, अरहर की दाल, ज्वार, और सब्जियों में ककड़ी, लाई लौकी, कद्दू वगैरह अधिक बोया जाता है लेकिन आज अनाज को बोया तो जाता है लेकिन अधिकतर फसल को बंदरों द्वारा नष्ट कर दिया जा रहा है जिससे वहां के लोगों ने कुछ खास फसलों को बोना कम या फिर बंद ही कर दिया है। बंदरों के कारण वहां इतना अधिक उत्पाद मचा हुआ है कि उनके कारण वहां के लोगों के न तो खेत सुरक्षित रह पा रहे हैं और न ही उनके घर का सामान और बच्चे ही।

वहां के लोग अपनी फसलों और मौसम के प्रति बहुत ही संवेदनशील होते हैं वो खेतों में होने वाली पैदावार और मौसम में होने वाले परिवर्तन जैसे तूफान और बारिश आदि का पूरी तरह से ठीक अनुमान बहुत पहले से ही लगा लेते हैं। वो कहीं की भी मिट्टी को हाथ में लेते ही उसकी उपजाऊ क्षमता और उसमें पैदा होने वाले अनाज की किस्म के बारे में भी बता देते थे। वैसे तो वहां का मौसम अच्छा ही रहता है और कई वर्षों से मौसम में कोई खास बदलाव भी देखने को नहीं मिले लेकिन पिछले कुछ वर्षों से देश और दुनिया में मौसम में होने वाले परिवर्तनों से वहां के मौसम में भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा है जो कि अच्छा संकेत नहीं है।

देश के विकास की ओर बढ़ने का अच्छा और बुरा असर सम्पूर्ण देश की तरह उत्तराखंड में भी देखा जाने लगा है। वहां के लोग पहले मिलजुलकर शांति और प्यार से रहते थे अपनी हर जरूरतों को एक-दूसरे की मदद से पूरा कर लेते थे वहां अनाज की कमी भले ही रही हो लेकिन अनाज की कमी के कारण कोई भूखा नहीं मरता था क्योंकि सभी लोग एक-दूसरे की मदद कर दिया करते थे लेकिन आज जहां कुछ लोग कौदे अर्थात काले आटे की बनी रोटी और झंगोरा आदि खाने के लिए भी तैयार नहीं हैं तो कुछ लोगों को खाना ही नहीं मिल रहा है। पहले गेहूं को पीसने के लिए अपने घट का प्रयोग किया जाता था, दूर से पानी लाते थे लेकिन अब लोग गेहूं पिसवाने के लिए चक्कियों में जाने लगे हैं पानी घरों में ही आ गया है।

खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए कुछ लोग जैविक और रासायनिक खादों का प्रयोग करने लगे हैं। ये ठीक है कि विज्ञान और तकनीक के विकास के कारण वहां के लोगों का जीवन सरल हुआ है लेकिन ये विकास अपनी अच्छाइयों के साथ कुछ बुराइयां भी लेकर आया है जैसे अब लोगों के पास काफी समय बच जाता है जिससे वो आपस में एक-दूसरे पर छींटाकसी करने या एक-दूसरे के काम में दखल देने लगे हैं, खाली समय में लोग टी.वी. आदि देखने लगे हैं जिससे वहां के लोग कुछ अच्छाइयों के साथ कुछ बुराइयों को भी अपनाने लगे हैं। वो हर काम के लिए मशीनों पर निर्भर रहने लगे हैं। वहां अधिक से अधिक और अच्छी चीजों की चाहत में कुछ बच्चे बिगड़ भी रहे हैं और एक बुराई जिसने पहाड़ के युवाओं के साथ-साथ वहां के बच्चों का भविष्य भी पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है वह है ‘शराब‘।

आज उत्तराखंड में जहां-देखो वहां शराब की मांग की जाती है चाहे कोई अच्छा काम हो या बुरा, वो बिना शराब पिए या पिलाए पूरा नहीं होता। इससे वहां के बच्चों का भविष्य बर्बादी की कगार पर पहुंच रहा है। वो टीवी या मनोरंजन के अन्य माध्यमों की देखा-देखी वस्तुओं की मांग करने लगे हैं जो पूरा न होने की स्थिति में वहां के युवा अधिक से अधिक संख्या में पहाड़ से पलायन करने लगे हैं इसके अलावा वहां के लोग अपने प्राकृतिक संसाधनों की भी अनदेखी करने लगे हैं अधिकतर लोग अपनी पुरानी औषधियों की अनदेखी कर अंग्रेजी दवाइयों पर विश्वास करने लगे हैं। बाहरी संस्कृति के संपर्क में आने के कारण वहां के लोग अपनी प्राचीन और खूबसूरत संस्कृति को भुला देना चाहते हैं।

हमें उत्तराखंड के लोगों के जीवन को और बेहतर बनाने और वहां की पहले वाली खूबसूरत पहचान को सुरक्षित रखने और उसमें सुधार लाने के लिए वहां की प्रकृति और समाज में पैर पसारती जा रही बुराइयों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए लेकिन इसके लिए हमें केवल सरकार के भरोसे रहने की बजाय स्वंय मिलकर प्रयास करना होगा ताकि हमारी हजारों साल पहले की गौरवपूर्ण संस्कृति और समाज पर हमारी तरह हमारे आने वाली पीढ़ी भी गर्व महसूस करती रहे।

स्रोतः- सेडेड की उत्तराखंड फैलोशिप टीम द्वारा उत्तराखंड के विभिन्न गांवों से निम्न व्यक्तियों से लिए गए साक्षात्कार: सरस्वती देवी (दुदीला), शांति देवी (दुदीला), मोहन राम (दुदीला), हेमा देवी (दुदीला), त्रिलोकी (दुदीला), भारती देवी (भंगस्यूड़ा), राजेन्द्र थायत, हीरा देवी, खगोती देवी, जगदीश सिंह, मंगल सिंह थायत (पुरणा), गंगा देवी (गढ़सेर)

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