उत्तराखंड बांध त्रासदी, भाग-4

अस्सीगंगा के जलागम क्षेत्र के सतगढ़ी, खेलगढ़ आदि वनों में हजारों टन गिरी पड़ी पुरानी लकड़ी थी। वन निगम कहीं भी गिरे-पड़े पेड़ों का टिपान कार्य नियमित नहीं करता है। अस्सीगंगा में हजारों हजार टन पुरानी गिरी हुई सूखी-सड़ी लकड़ी भी बहकर आई। इन लकड़ी शहतीरों व टुकड़ों ने रॉकेट लांचरों की तरह किनारे की सुरक्षा दीवार, जमीन तथा भवनों को तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। जो क्षति हुई है उस क्षति को करीब 10 गुना बढ़ाने में वन निगम की भूमिका है। भागीरथी व अस्सीगंगा के संगम से लगभग 6 किलोमीटर नीचे की तरफ मनेरी-भाली चरण दो जल-विद्युत परियोजना है। यह भी ‘‘उत्तराखंड जल विद्युत निगम” (उजविनि) के पास है। इसके जलाशय के बाईं तरफ जोशियाड़ा और दाई तरफ के ज्ञानसू क्षेत्र की सुरक्षा के लिए बनाई गई दीवारें बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई। ज्ञात हो कि तथाकथित सुरक्षा दिवारें, बांध का जलाशय भरने के बाद बनाई गई। इन दिवारों को बनवाने के लिए लोगों ने काफी संघर्ष किया था। दिवारें पूरी नही बन पाई थीं। सुरक्षा दिवारों के कुछ ठेके जुलाई 2012 में ही किए गए थे। जोशियाड़ा क्षेत्र में घरों को खाली कराया गया। जो कि समुद्रतल से 2011 मीटर की उंचाई पर बने हुए हैं।

3 अगस्त की रात को भागीरथीगंगा के किनारे के सैकड़ों घरों में पानी घुसा और लोग किसी तरह अपनी जान बचा के अंधेरे में भागे। इस बाढ़ से, पूर्व में चिन्हित भवनों के अलावा कई भवन खतरे की जद में आ गए। जिसके लिए उजविनि जिम्मेदार हैं। 3 अगस्त की रात को जिस तरह से जलाशय के लेबल से ऊपर पानी पहुंचने पर आवासीय घरों में पानी घुसा, उससे लोग भविष्य को लेकर आज भी चिंतित हैं क्योंकि उनका पुर्नवास आज तक नहीं हुआ है।

भागीरथी गंगा में पुरीखेत केदारघाट से लेकर माणिकर्णिका घाट तक करीब 450 मीटर से ज्यादा लंबा टापू उभर आया था। मनेरी भाली चरण एक के 6.5 लाख तथा फेज टू के 7.5 लाख घन मीटर क्षमता के जलाशय में रेत पत्थरों के ढेर जमा होने से इनकी क्षमता हजारों घनमीटर तक सिकुड़ गई।

केन्द्रीय जल आयोग द्वारा रिकार्ड किए गए आंकड़ों के अनुसार बाढ़ की रात्रि को भागीरथी का जलस्तर 1122.50 मीटर तक पहुंच गया था। भागीरथीगंगा का नदी तल कितना ऊँचा उठा है इसकी नापजोख जाड़ों में पानी कम होने के बाद हुई या नही? इसका अभी नहीं पता है। बाढ़ से जमा रेत पत्थर ने दोनों परियोजनाओं के जलाशय के क्षमता कम कर दी।

हमारी जानकारी में आया है कि जलविद्युत निगम की तैयारी है कि वे मनेरी भाली चरण दो के जलाशय को समुद्र सतह से 1106 मीटर तक रखकर उत्पादन बढ़ाएंगे। ऐसे में यदि भरे हुए जलाशय के दौरान कही बादल फटने की घटना हो गई तो पहले से ही ऊँचा उठा भागीरथी का नदी तल तटवर्ती आबादी क्षेत्र को जलमग्न कर सकता है। इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया मानसून में प्रायः बांध कंपनियों की कोशिश रहती है कि जलाशय में पहले पानी भरा जाए। इसलिए इसका जलाशय पहले ही भरा हुआ था और जब पीछे से तेजी से पानी आया तो उत्तरकाशी में जोशियाड़ा और ज्ञानसू को जोड़ने वाला मुख्य बड़ा पुल बहा। अचानक से बांध के गेट खोले गए, और जब बांध के दरवाज़े खोले गए तब नीचे की ओर हजारों क्यूसेक पानी अनेकों पैदल पुलों को अपने साथ बहा ले गए।

जोशियाड़ा की ओर बनी दिवार टूट गईअस्सी गंगा के निर्माणाधीन बांधों का मलबा, सुरंगों की मक, बांधों से तबाह हुए और वन विभाग के काटे हुए पेड़ (उत्तराखंड जल विद्युत निगम और वन निगम दोनों ने ही कटे पेड़ों को ऐसे ही छोड़ा था), टूटे मकानों व पुलों का मलबा, अनेक तरह की सारी गंदगी सहित मनुष्यों और जानवरों की लाशों के साथ पानी टिहरी बांध जलाशय में चिन्याली सौड़ शहर के नीचे एक किलोमीटर लंबी चादर के रूप में फैला। डुंडा क्षेत्र के उपजिलाधीश ने वन निगम को दिनांक 10-9-2012 को पांच दिन का समय दिया था की वो पंद्रह सितम्बर तक चिन्याली सौड़ झील में तैर रही हजारों टन लकड़ी को उठा ले- अन्यथा प्रशासन इस लकड़ी को ज़ब्त करके सरकार के हित में नीलाम कर देगा। किंतु वन विभाग ने लकड़ी नहीं उठाई।

टिहरी बांध जलाशय की सफाई का हल्ला मचने पर प्रशासन ने बिना कोई विज्ञापन निकाले, करोड़ों रुपये की लकड़ी मात्र डेढ़ लाख में कुछ लोगो को बेच दी। इसे कहते है कि आपदा में भी फायदा।

तबाही के कारण


1. जलविद्युत परियोजनाओं हेतु किए गए विस्फोटः- एशिया विकास बैंक से पोषित कल्दीगाड जल-विद्युत परियोजना 09 मेगावाट के लिए अगोड़ा गांव के नीचे सुरंग बनाई गई। उसमें 100 से 150 विस्फोट रोज किए जाते थे जिससे पहाड़ बुरी तरह ध्वस्त हो गए थे। सबसे ज्यादा मज़दूर यहीं काम करते थे। पहाड़ सिर्फ वहीं धंसे हैं और वहीं भारी भूस्खलन हुआ है जहाँ-जहाँ पर जलविद्युत परियोजनाओं का काम हुआ है। जिसमें भारी विस्फोटकों की बड़ी भूमिका रही।

2. पेड़ो की कटाईः- कल्दीगाड जलविद्युत परियोजना सहित अस्सीगंगा में वनविभाग से करीब 65 बड़े पेड़ काटने की स्वीकृति ली गई। छोटे बड़े करीब पांच सौ पेड़ इस स्वीकृति के बाद में काटे गए। सारे पेड़ों के गेले बना कर ये पेड़ कल्दीगाड तक हर जगह नदी के किनारे ही जमा किए गए थे।

3. मलबे का अनियोजित फैलावः- जलविद्युत परियोजनाओं में मज़दूर कॉलोनी, मशीन के प्लेटफार्म, गैरेज, पानी की नहर खुली, नहर के लिए पाइप लाइन, साइड डेवेलपमेंट, पावर हाउस निर्माण, सुरंग निर्माण, संबधित भवनों के निर्माण, आदि का सारा मलबा पूरी अस्सीगंगा घाटी में बिखरा हुआ पड़ा था।

छुपाए गए महत्वपूर्ण तथ्य


मजदूरों की मौतः- प्रशासन ने तीनों परियोजनाओं में मात्र 40-50 मज़दूर कार्यरत बताया। उर्जा निगम और श्रम निरीक्षक, उत्तरकाशी तक, किसी के पास भी घटना के समय कार्यरत मज़दूरों के नाम व पतों की सूची नहीं है। कार्यरत ठेकेदारों की मिलीभगत से सच्चाई छिपायी जा रही है ताकि मज़दूरों को मुआवजा ना देना पड़े। जानकार लोगों द्वारा घटना में करीब 100 मज़दूरों के मरने की आशंका व्यक्त की जा रही है। स्थानीय लोगों का कहना है कि तीन परियोजनाओं में करीब 150 मज़दूर काम करते थे। जो कि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा नेपाल से थे। घटना के बाद पुराने सारे मज़दूर भगा दिए गए ताकि सच्चाई का पता ही न लगने पाए।

वन विभाग की लापरवाहीः- वर्ष 1973-1974 में वर्तमान उत्तराखंड क्षेत्र (पूर्व में उत्तर प्रदेश का हिस्सा) के वनों में ठेकेदारी कटान प्रथा समाप्त कर दी गई और वर्ष 1974-75 में उत्तर प्रदेश वन विभाग बनाया गया। जिसके कामों में मुख्य काम वनों में सूखे पेड़ काटना, वनों में गिरे, उखड़े, टूटे हुए पेड़ों को उठाना तथा इस गिरी-पड़ी लकड़ी का पूरा चुगान करके उसकी नीलामी करना।

.अस्सीगंगा के जलागम क्षेत्र के सतगढ़ी, खेलगढ़ आदि वनों में हजारों टन गिरी पड़ी पुरानी लकड़ी थी। वन निगम कहीं भी गिरे-पड़े पेड़ों का टिपान कार्य नियमित नहीं करता है। अस्सीगंगा में हजारों हजार टन पुरानी गिरी हुई सूखी-सड़ी लकड़ी भी बहकर आई। इन लकड़ी शहतीरों व टुकड़ों ने रॉकेट लांचरों की तरह किनारे की सुरक्षा दीवार, जमीन तथा भवनों को तोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है। जो क्षति हुई है उस क्षति को करीब 10 गुना बढ़ाने में वन निगम की भूमिका है। इस लकड़ी को यदि पूर्व में ही टिपान कर लिया गया होता तो नुकसान नहीं होता। क्षति करीब दस गुना कम होती।

इन सब पर कोई कार्यवाही नहीं हुई और जून 2013 में हुई भयानक बारिश में पहले से ही क्षतिग्रस्त क्षेत्र में भीषण तबाही हुई। आज उत्तरकाशी के दोनों किनारे ज्ञानसू और जोशियाड़ा में सैंकड़ों लोगों के घर-दुकान बह गए या गिरने की कगार पर है। गंगा के किनारों की सुरक्षा का प्रश्न है जो कि शहर की सुरक्षा से जुड़ा है। क्या इसमें बांधों की भूमिका से इंकार किया जा सकता है? किंतु कोई जांच तक नहीं और क्लीन चिट दे दी गई। मनेरी-भाली बांधों से अचानक पानी छोड़े जाने के कारण कई लोग मारे जा चुके है। पर कोई जांच नहीं।

यदि जांच होती, सज़ा होती तो शायद जून, 2013 में उत्तराखंड में तबाही इतनी ना होती।

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