उत्तराखण्डः धुएँ में ओझल थी नैसर्गिक सुंदरता


पहाड़ जाने का संयोग बनता है तो दिमाग में नैसर्गिक सुन्दरता का कौंधना लाजिमी होता है। जब इसके विपरीत स्थिति दिखे तो स्यवं की आँखों पर भी भरोसा करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। पिछले दिनों मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। अचानक अपने गृह जनपद अल्मोड़ा जाना हुआ। पर्वत शृंखलाओं, हरे-भरे पेड़-पौधों, सीढ़ीनुमा खेत-खलिहानों और हिमालय की तस्वीर अनायास दिमाग में कौंधने लगी थी। एक उत्सुकता सी बन गई थी, आसमान छूते पर्वत शृंखलाओं, हिम से ढके पर्वतों, खेत-खलिहानों को देखने की। इस उत्सुकता में यह भूल गया था कि पहाड़ के जंगल तो आग से धधक रहे हैं।

जब हल्द्वानी से आगे का सफर शुरू हुआ तो पर्वत शृंखलाओं और हिमालय को देखने की उत्सुकता जैसे काफूर-सी हो गई थी। आँखें चौंधिया-सी गई थी। दिमाग में जंगलों में लगी भीषण आग का मंजर कौंधने लगा। ये क्या तस्वीर हो गई है खूबसूरत पहाड़ की? कहाँ खो गई है नैसर्गिक सुन्दरता? कहाँ ओझल हो गई है हिम से ढके पर्वतों की शृंखला? कुछ ऐसे सवालों की झड़ी दिमाग में उठने लगी।

बस धुंध की गाढ़ी रेखाएं चोरों ओर फैली हुई नजर आ रही थी। सच में, नैसर्गिक सुन्दरता आग से पैदा हुए धुंध में ओझल-सी हो गई थी। एक अजीब-सी बेरुखी शांत और स्तब्धता को चीर रही थी जैसे। पर्वत शृंखलाओं को देखने के लिये भी आँखों को जबरदस्त संघर्ष करना पड़ रहा था। सामने बस नजर आ रही थी तो काली डामर की अजगर जैसी सड़क। उसमें दौड़ती गाड़ियाँ। कई बार तो रफ्तार में ही गाड़ियाँ ठिठक कर रुक जाती, क्योंकि सड़कें भी कंकड़-पत्थरों से पूरी तरह पट चुकी थीं। कहीं ऊपर से पत्थर न आए.... संभाल के.... जैसी बातें जब अनायास ही लोगों के मुँह से निकलती तो एक जोर के ब्रेक के साथ गाड़ी सहम-सी जाती। धुंध में काली राख और धूल के ऐसे कण तैर रहे थे, जिसने नैसर्गिकता से मिलने वाली ताजगी को उलाहना और व्याकुलता में तब्दील कर दिया था। कई किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद मुश्किल से पहाड़ नजर भी आ रहे थे तो वे जर्जर, वीरान, काले और बदसूरत लग रहे थे। पेड़-पौधे व झाड़ियाँ दम तोड़ती हुई नजर आ रही थी। जगह-जगह पानी के टैंकर खड़े थे, सड़कों को घेरे हुए। जिनसे जुड़ा लंबा सा पाइप प्राकृतिक स्रोतों में घुसाया गया था पानी भरने के लिये हेलीकॉप्टर में नैनीताल झील और भीमताल से पानी भरने की और उस पानी को आग से धधकते हुए जंगलों में छिड़कने की जद्दोजहद भी खूब दिख रही थी।

पर्वत शृंखलाओं, हरे-भरे पेड़-पौधों, सीढ़ीनुमा खेत-खलिहानों और हिमालय की तस्वीर अनायास ही दिमाग में कौंधने लगी थी। एक उत्सुकता सी बनी हुई थी, आसमान छूते पर्वत शृंखलाओं, हिम से ढके पर्वतों, और खेत-खलिहानों को देखने की।

कई हजार लीटर पानी भरा गया नैनी झील और भीमताल से जिसके चलते झील में भी पानी बेहद कम हो गया था। झील के किनारे भी सपाट और सूखे नजर आ रहे थे। झील से हेलीकॉप्टर में पानी भरने का क्षण भी लोगों के लिये एक अलग कौतूहल उत्पन्न कर रहा था। आग की विभीषिका हर जगह नजर आ रही थी। आग की भयानकता का अंदाजा इसी से लग रहा था कि लगभग 2269 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया। लोग यही बता रहे थे कि पौड़ी, नैनीताल, रूद्रप्रयाग और टिहरी के जंगल तो कुछ ज्यादा ही वीरान हो गए हैं। और वीरानी के बीच फैली धुंध एक अजीब सा डर पैदा करने लगी है। जले पेड़ खामोश हो गए हैं। पहाड़ में बारिश न हुई होती तो शायद आग जंगलों को और भी बदसूरत कर देती। नुकसान कई गुना ज्यादा हुआ होता। लोगों ने बताया कि केन्द्र और राज्य सरकार की टीमें भी आग बुझाने में हांफती हुई नजर आई। उनमें यह शिकायत आम दिखी कि जिन्हें पहाड़ों में चलना नहीं आता वे क्या आग बुझाते? अगर इस काम में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाता तो शायद आग पहले ही बुझा ली जाती। यह तो शुक्र रहा कि बारिश हो गई, जिसमें आग बुझ गई।

गाँवों के नजदीक पहुँचने पर तो हरे-भरे सीढ़ीनुमा खेतों के प्रति उठने वाला कौतूहल भी कहीं खो सा गया था, क्योंकि सख्त, जर्जर हो आए खेतों से बस सफेद राखनुमा धूल उड़ रही थी, हवा के हल्के झोंके के साथ। धूल भी दूर तलक उड़ती और क्षण भर में ही जैसे धुंध में विलीन हो जाती।

देवभूमि की यह तस्वीर नैसर्गिकता से कितनी अलग थी। निराश और उदास करने वाली। जंगलों की वीरानी, उदासी एक अजीब-सी बेरुखी को प्रदर्शित कर रही थी। जंगलों में हरी घास का नामो-निशान नहीं था। दूर तक बस उजाड़ से जंगल और भीषण आग में नष्ट हो गए पेड़-पौधे ही नजर आ रहे थे।

सूखे के चलते नदियों का कल-कल छल-छल कर बहने वाला पानी भी बस रेंग रहा था, एक संकुचित दिशा में नदियों के चौड़े किनारे भी व्यथित से लग रहे थे। बड़े-बड़े पत्थरों और रेतीली मिट्टी के सिवा कुछ न था चौड़े किनारों पर। नदियों के पानी की रफ्तार भी अपनी निरंतरता को भूलती नजर आ रही थी। सूखे नौले और नौलों पर पानी भरने के लिये लगी कतार, सूखे की अजब कहानी बयां कर रही थीं। नदियों के उद्गम स्थल में इस तरह पानी का संकट। यह सब विश्वास करना कितना मुश्किल था। पहाड़ों में पानी का संकट, सूखे की मार झेल रहे विदर्भ और बुंदेलखंड की याद दिला रहा था। टैंकरों के आगे पानी भरने के लिये जुटी भीड़। लोगों के चेहरों पर थकान और उदासी के अजीब-से भाव, जो एक पीड़ा को प्रदर्शित कर रहे थे।

वैसे तो उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की घटनाएँ हर साल आम रहती हैं, लेकिन इस बार तो आग के अलावा सूखे की भी कुछ अलग ही स्थिति दिखी। सूखे खेतों के अलावा पहाड़ भी हरियाली विहीन हो गए। पीने के पानी और मवेशियों के लिये चारे संकट अलग से। इस पीड़ा में डूबे लोग यही कहते दिखे, पता नहीं क्या होगा इस पहाड़ का? ऐसे में शहरों को पलायन नहीं करेंगे तो और क्या? मजबूरी है यहाँ के लोगों की?

सूखे से जूझ रहे लोगों को वास्तव में उत्तराखण्ड के जंगलों में लगी भीषण आग ने एक अलग अनुभव दिया। जूझने का और जीवन के संघर्ष को जारी रखने का। उनके चेहरों पर मायूसी और उदासी के बीच भी एक आत्मविश्वास की लकीर छुपी हुई नजर आ रही थी। एक उत्सुकता, एक उमंग, एक लालसा उनके संघर्ष में छुपी हुई थी। जर्जर, सूख चुकी थाती पर फिर से खेती करने की लालसा। एक अलग सा संघर्ष ही सही, पर एक उम्मीद की किरण भी। इस बात को लेकर कि फिर से पहाड़ हरियाली से खिल उठेंगे। पेड़-पौधों, खेत-खलिहानों और पर्वतों शृंखलाओं का यौवन फिर से लौट आएगा। फिर से नैसर्गिक सुन्दरता से भरपूर पर्वत शृंखलाओं की वादियों में ताजगी विचरण करने लगेगी। पहले की तरह.....।

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