उत्तराखण्ड में पानी

उत्तराखण्ड में पानी
उत्तराखण्ड में पानी

उत्तराखण्ड में पानी का भयानक संकट विगत एक दशक से बना हुआ है। बारिश कम हो रही है। नदियों का जल स्तर लगातार घट रहा है। प्राचीन जल स्रोतो की स्थिति बद से बद्तर हो चुकी है। पहाड़ के नौले, धारे लगभग सूख चुके हैं।

एक आकंड़े के अनुसार उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में सौ से अधिक नौले हैं। आज अल्मोड़ा पानी के लिए कोसी नदी पर पूरी तरह आश्रित है और कोसी नदी का जल स्तर सूख रहा है। उत्तराखण्ड में नदियों की हालत पल-पल खराब हो रही है। पिछले वर्ष टौंस नदी का डिस्चार्ज 392 क्यूसेक्स था। इस बार यह डिस्चार्ज मात्र 129 क्यूसेक्स पर सिमट कर रह गया है। अगस्त 2008 में मनेरीभाली में यमुना का डिस्चार्ज 539 क्यूसेक्स था, जो अब घटकर 306 क्यूसेक्स रह गया है।

नदी की सदानीरा प्रवृत्ति यकायक कहीं खो गई है जो भविष्य के लिए शाप हो सकती है। गंगा और शारदा नदियों की स्थिति तो और भी दयनीय है। पहले बनबसा में शारदा नदी का डिस्चार्ज 2285 क्यूसेक्स था जो अब 946 क्यूसेक्स रह गया है। नदियों का लगातार सूखना हमारे लिए चेतावनी है।

अब जबकि हम भली-भांति जानते हैं कि पानी ही जीवन का मूल आधार है तो व्यक्तिगत स्तर पर हमारी आगामी तैयारी क्या है और सरकारी प्रयास कहां तक सफल हो रहे हैं यह जानना जरूरी है। सरकारी और गैर सरकारी ऐजेन्सियों के पास तो दो ही हल हैं। पहला किसी स्रोत से पाइप द्वारा पानी को गांव-गांव तक पहुंचाना। दूसरा सड़क के किनारे-किनारे हैण्ड-पम्पों का विस्तार करना। जनपद बागेश्वरगरूड़ विकास खण्ड में किसी संस्था ने पीने के पानी के स्रोतों की जांच पंचायत स्तर पर की तो परिणाम चौंकाने वाले थे। करीब 90 प्रतिशत स्रोतों का पानी पीने योग्य नहीं था। जिन हैण्डपम्पों में फिल्टर लगे हुए थे उनकी हालत भी बहुत बेहतर नहीं थी।पहाड़ में पीने के पानी का इतना भयावह संकट आज तक नहीं आया। पर्यटन के क्षेत्र में मशहूर बैजनाथ धाम में गांव की महिलाएं और पुरुष अपनी दिनचर्या का अधिकांश हिस्सा पानी एकत्र करने में लगाते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो लोग दोहरे संकट से जूझ रहे हैं। एक ओर प्रदूषित पानी पीने से टाइफाइड जैसे जानलेवा रोग हो रहे हैं तो दूसरी ओर पानी के चक्कर में समय और ऊर्जा दोनों ही नष्ट हो रही है। हाल ही में मीडिया से एक खबर आयी थी कि देश की महत्वपूर्ण नदियो का पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि अब खेती के योग्य भी नहीं बचा है। पानी के इस संकट का समाधान क्या होगा?

जैसे-जैसे विकास का पहिया पहाड़ की ओर आया, पहाड़ विकास की तरफ तो जरूर गया पर इस विकास के साइड इफैक्ट भी तेजी से हुए। जैसे तमाम छोटी-बड़ी बस्तियां और बाजारों के समीप से गुजरने वाली नदियां कूड़े से पट गईं। बाजार का सारा प्लास्टिक और घरों की गंदगी सब नदी-नालों में प्रवाहित की जाने लगी। लोगो के घर अंदर-बाहर चकाचक हो गये पर जीवन का आधार कही जाने वाली नदियां गंदगी से सराबोर हो गयीं।

आज जब बड़ी नदियों की सफाई के सरकारी इतंजाम बौने साबित हो रहे हैं तो ग्रामीण क्षेत्रो की छोटी नदियों का हाल क्या होगा? पहाड़ी क्षेत्रों का जीवन पूर्णत: नदियों पर आधारित है। इसकी पुष्टि इस बार के धान रोपाई वाले सीजन में हो चुकी है। धान रोपाई का लगभग दो महीने पिछड़ना इस बात की ओर ध्यान दिलाता है कि सिंचाई के लिए नदियों का पानी जरूरी है। नदी के बचे हुए पानी को पम्प द्वारा अपने-अपने खेतो में पहुंचाने और धान की रोपाई लगाने की होड़ पूरे बागेश्वर जनपद में देखी गई। गरीब किसान तो इस खेल में भी पीछे रहा।

इस कारण प्राचीन स्रोतों पर दुबारा से लोगो का विश्वास बढ़ा है। लोग मान चुके हैं कि हैण्डपम्पों से उनका कुछ भला नहीं होने वाला है। लोगों ने नौलों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। सदियो से खड़े नौले साधारण सफाई और देखरेख से ठीक-ठाक पानी देने लगे।आम-तौर पर पहाड़ के प्रत्येक गांव में नौला या कोई धारा होती ही है। नौले-धारे की सामाजिक और धार्मिक आस्था आज तक जीवित है। गांव में जब भी कोई नई दुल्हन आती है तो उसे नौले तक ले जाते हैं। शंख ध्वनि की जाती है। नौले की पूजा की जाती है। इस तरह होता है दुल्हन का प्रथम साक्षात्कार नौले के साथ। उसे समझाया जाता है कि आज से ये पानी से लबालब भरा नौला तेरी जिन्दगी का अहम् हिस्सा बन गया है। अत: इसकी सुरक्षा का जिम्मा अब तेरा भी है। इसी सीख के कारण नौले-धारे सदियो से अब तक जिन्दा हैं।

नदियों की सिमटती कहानी को हम यूं ही देखते रहेंगे तो समाधान कैसे निकलेगा? आज और फिर अभी से हमें स्वयं निर्णय लेना होगा कि हम पानी को मात्रा संसाधन मानने की भूल नहीं करेंगे। यह एक तरह से हमारी जिंदगी है।
 

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