उत्तराखण्ड में जनता के मुद्दे गायब


तराई से लेकर नेपाल और तिब्बत की सीमा से जुड़े उच्च हिमालय और टोंस से लेकर काली-शारदा नदियों के बीच तक फैले उत्तराखण्ड में जितनी भौगोलिक और जनसांख्यिकीय विविधताएँ हैं, उतनी ही समस्याएँ और उतनी ही विकास की जरूरतें भी हैं। लेकिन अगर आप उत्तराखण्ड के चुनाव अभियान पर गौर करें तो लगता है कि यहाँ केवल भ्रष्टाचार ही होता है, और असली राज भ्रष्टाचारियों तथा शराब, खनन और वन माफिया का ही चलता है। हैरानी का विषय तो यह है कि कुछ समय पहले तक जिन पर घोटालों के आरोप लगते थे, वे गला फाड़-फाड़ कर भ्रष्टाचार के खिलाफ ज्यादा नारे लगा रहे हैं

उत्तराखण्ड की चौथी निर्वाचित सरकार के चयन के लिये विधान सभा चुनाव की तिथि नजदीक आती जा रही है। मगर राज्य की सत्ता के प्रमुख दावेदारों के प्रचार अभियान में असली मुद्दे अब भी कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। तराई से लेकर नेपाल और तिब्बत की सीमा से जुड़े उच्च हिमालय और टोंस से लेकर काली-शारदा नदियों के बीच तक फैले उत्तराखण्ड में जितनी भौगोलिक और जनसांख्यिकीय विविधताएँ हैं, उतनी ही समस्याएँ और उतनी ही विकास की जरूरतें भी हैं। लेकिन अगर आप उत्तराखण्ड के चुनाव अभियान पर गौर करें तो लगता है कि यहाँ केवल भ्रष्टाचार ही होता है, और असली राज भ्रष्टाचारियों तथा शराब, खनन और वन माफिया का ही चलता है। हैरानी का विषय तो यह है कि कुछ समय पहले तक जिन पर घोटालों के आरोप लगते थे, वे गला फाड़-फाड़ कर भ्रष्टाचार के खिलाफ ज्यादा नारे लगा रहे हैं।

देखा जाए तो उत्तराखण्ड में सबसे बड़ा मुद्दा राजनीतिक अस्थिरता का है। राज्य का भविष्य उन लोगों के हाथों में होता है, जिनका अपना ही भविष्य बहुत अस्थिर होता है। जिन नेताओं को अपने कल का भरोसा न हो उनसे राज्य के कल को संवारने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? पिछले 16 सालों में प्रदेश में आठ सरकारें आ चुकी हैं। नौकरशाही के समक्ष लोकशाही बौनी साबित हो रही है। सरकारों को विपक्ष के बजाय अपने ही पदलोलुप और अवसरवादी लोगों से खतरा उत्पन्न हो रहा है। लेकिन इस गम्भीर मुद्दे पर किसी का ध्यान नहीं है।

पलायन की समस्या जस की तस


राज्य गठन से पहले इस पहाड़ी राज्य में पलायन की जो गम्भीर समस्या थी, वह आज भी जस की तस है। गाँव खाली हो रहे हैं और मैदानी शहरों में पलायन कर पहुँची आबादी का अत्यधिक बोझ सीमित नागरिक सुविधाओं पर पड़ रहा है। शहरों की धारक क्षमता समाप्त होने के साथ ही नगरों का विकास अस्त-व्यस्त हो गया है। पहाड़ी गाँवों में हालत यह है कि किसी वृद्ध के मरने पर शव को शमशान तक ले जाने के लिये चार युवा कन्धे नहीं मिल पा रहे हैं। आदमियों की जगह वीरान गाँवों में वन्यजीव अपना डेरा जमा रहे हैं। मुख्यमन्त्री हरीश रावत ने इस दिशा में मंडुवा-झंगोरा जैसी पहाड़ी उपज को प्रचारित और प्रोत्साहित कर ग्रामीण आर्थिकी को मजबूत करने का प्रयास तो अवश्य किया, मगर यह फिलहाल ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर ही है।

राज्य के एक पूर्व कृषि मंत्री का दावा था कि राज्य के गठन के बाद के 16 सालों में ही 50 हजार हेक्टेयर से अधिक जमीन छोड़ कर लोग मैदानों में चले गए। वैसे भी राज्य में 12 प्रतिशत भूभाग ही कृषि योग्य था। ये बंजर खेत कैसे आबाद होंगे, इस पर किसी का ध्यान नहीं है, जबकि जमीन वह संसाधन है, जोकि युगों-युगों तक और पीढ़ी-दर-पीढ़ी तक आजीविका का स्थायी स्रोत है। हम पहाड़ी दालों, मंडुवा, झंगोरा, भट्ट, रामदाना जैसे अनाजों और जैविक खेती के मामले में एकाधिकार कर सकते हैं, लेकिन करते नहीं। जमीन ही क्यों? जंगल और जल भी उत्तराखण्ड के सबसे बड़े संसाधन हैं। इनके बारे में राजनीतिक नेतृत्व की सोच सामने नहीं आ पा रही। उत्तराखण्ड एक वन प्रदेश ही है, जिसका 64 प्रतिशत भाग वन विभाग के अधीन है तथा 45 प्रतिशत से अधिक भूभाग में वनावरण है। इन वनवासियों के लिये प्रकृति की यह अनुपम धरोहर पर्यावरण सम्बन्धी कानूनों के कारण वरदान के बजाय अभिशाप साबित हो रही है। ग्रामीण आर्थिकी को वनोपज और संजीवनी बूटियों से सुदृढ़ किया जा सकता था, लेकिन इन चुनावों में यह मुद्दा गायब है। इसी तरह जल संसाधन पर भी राजनीतिक नेतृत्व मौन है।

एक वक्त था जब कहा जाता था कि यह राज्य केवल बिजली बेच कर भी मालामाल हो सकता है, और देश को बिजली की रोशनी से आलोकित कर सकता है। इस अपार जल सम्पदा का उपयोग अगर बिजली बनाने के लिये किया जाए तो पर्यावरणवादी झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं और उनके धर्म के ठेकेदार लामबंद हो जाते हैं। इस संसाधन पर भी राजनीतिक दलों को अपनी राय साफ करनी चाहिए।

असुरक्षित होता जा रहा जनजीवन


राज्य गठन के समय नवम्बर, 2000 से पहले उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों के स्कूलों में मास्टर न होने और अस्पतालों में डॉक्टर न होने की समस्या थी, जोकि आज भी बरकरार है। पहाड़ों से पलायन का एक प्रमुख कारण वहाँ शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अभाव माना जाता रहा है। ये दोनों ही जिम्मेदारियाँ पूरी तरह सरकार पर निर्भर हैं और अब तक की सरकारें इन समस्याओं का सही समाधान नहीं निकाल पाईं। वहाँ 108 जैसी आपातकालीन सेवा अवश्य ही शुरू की गई तथा अस्पतालों का उच्चीकरण भी हुआ। वहाँ नये अस्पताल भी खुले मगर डॉक्टर फिर भी नहीं पहुँचे। निशंक और हरीश रावत सरकार के प्रयासों से गम्भीर घायलों को हेलीकॉप्टर से देहरादून लाने की व्यवस्था तो हुई मगर शेष गम्भीर बीमारों के जीवन की रक्षा अब भी भगवान भरोसे है।

मौसम परिवर्तन के कारण पहाड़ों में जीवन असुरक्षित होता जा रहा है। कभी उत्तरकाशी और चमोली के जैसे भूकम्प तो कभी मालपा और केदारनाथ जैसी त्वरित बाढ़ तथा ऊपर से बादल फटने और भूस्खलन की आपदाओं ने पहाड़वासियों को बेचैन कर रखा है। आपदाओं की दृष्टि से तीस सौ से अधिक गाँव संवेदनशील घोषित किए गए हैं। मगर उनके पुनर्वास पर किसी का ध्यान नहीं है। 2013 में केदार घाटी में हजारों लोगों की मौत का सबक कोई भी सीखने को तैयार नहीं है। उत्तराखण्डवासियों को अपना भाग्य तय करने के लिये अपना राज्य तो मिल गया मगर 16 साल बाद भी अपने राज्य की स्थाई राजधानी नहीं मिली। चमोली जिले के गैरसैण में तीसरी बार विधान सभा का सत्र आहूत हो गया। वहाँ भराड़ीसैण में एक भव्य विधान सभा भवन और सचिवालय भवन तैयार हो गए फिर भी कोई भराड़ीसैण को स्थायी या ग्रीष्मकालीन राजधानी कहने को तैयार नहीं है। 2012 के विधान सभा चुनावों के समय भाजपा ने प्रदेश में चार नये जिले बनाकर जिलों की संख्या 17 तक पहुँचाने की घोषणा की थी। कांग्रेस ने भी नये जिलों के गठन का वायदा किया था। लेकिन 5 साल गुजरने के बाद भी नये जिलों का कहीं नामोनिशान नहीं है। फिजूलखर्ची के चलते राज्य पर कर्ज का बोझ 46 हजार करोड़ तक पहुँच गया है। ब्याज ही हजारों करोड़ में देना पड़ रहा है। कर्मचारियों का वेतन देने के लिये भी उधार लेना पड़ रहा है। भाजपा ने कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार को मुद्दा बना रखा है, तो कांग्रेस जवाब देती है। जो घोटालेबाज उसके साथ थे, वे अब भाजपा में ही हैं।

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