हिमालय में आने वाले भूकम्पों की स्थिति देखें तो प्रतीत होता है कि अधिकांशतः भूकम्प मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के दक्षिण में एक क्षेत्र में सीमित हैं तथा भूकम्पों का यह क्षेत्र हिमालयी चाप की तरह ही सुदूर पूर्व से पश्चिम तक विद्यमान है। भूकम्पों के इस क्षेत्र को हिमालयी भूकम्प पट्टिका के नाम से जाना जाता है। पूर्व से पश्चिम तक इस हिमालयी भूकम्प पट्टिका में यद्यपि भूकम्प की सघनता असमान है और यह असमानता हिमालय की पूर्व से पश्चिम की ओर भूगर्भीय संरचना में जटिलता के कारण तो है ही परन्तु इसका एक अन्य कारण दोनों प्लेटों के बीच अभिसरण के कारण उत्पन्न दबाव का असमान वितरण भी है।
भूकम्पीय जोखिमों के अध्ययन से संभावित विभिन्न भूकम्पों के कारण भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जमीनी सतह के कम्पन का आकलन किया जाता है। जमीनी सतह के इन कम्पनों का प्राकृतिक तथा मानव निर्मित संरचनाओं पर क्या प्रभाव पड़ सकता है इसका भी अध्ययन इसी के अन्तर्गत किया जाता है। इन अध्ययन के फलस्वरूप क्षेत्र विशेष के स्तर पर तैयार संभावित जोखिम के नक्शे तैयार किये जाते हैं। जिनके आधार पर उस क्षेत्र में बुनियादी ढाँचों, छोटी, मध्यम तथा ऊँची इमारतों के लिये संरचना मानक लागू किये जाते हैं। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि क्षेत्र विशेष के भूकम्पीय जोखिमों के अध्ययन के लिये सर्वप्रथम उस क्षेत्र की भू-वैज्ञानिक संरचना, चट्टानों का अध्ययन तथा क्षेत्र व आस-पास आने वाले भूकम्पों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।हिमालय में भूकम्प के कारण
संसार की नवीनतम पर्वत श्रृंखला हिमालय में स्थित उत्तराखण्ड राज्य, प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम से उतना ही ग्रसित है जितना कि अन्य हिमालयी राज्य। हिमालय की उत्पत्ति से लेकर उसके जीवन काल में अनवरत चलने वाली भूगर्भीय क्रियायें हिमालय में स्थित सभी क्षेत्रों को प्राकृतिक आपदाओं के जोखिम हेतु संवेदनशील बनाती हैं। प्लेट विवर्तनिकी सिद्धांत के अनुसार भारतीय प्लेट दक्षिणी ध्रुव से उत्तर पूर्व की ओर गतिमान थी। अपनी इस यात्रा में लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट एशियन प्लेट से टकरायी और इस टक्कर के कारण ही हिमालय की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात भारतीय प्लेट अपने मुहाने पर स्थित टिथीस सागरीय प्लेट के खिचाव के कारण एशियन प्लेट के नीचे जाने लगी। जिसे सबडक्शन कहते हैं। जी.पी.एस. अध्ययन बताता है कि दोनों प्लेटों के टकराने के बाद भी भारतीय प्लेट लगभग 50 मिमी प्रति वर्ष उत्तर पूर्व दिशा में खिसक रही है तथा वर्तमान में दोनों प्लेटों के बीच अभिसरण दर 1 सेमी प्रति वर्ष है।
दोनों प्लेटों के बीच होने वाले अभिसरण के कारण ही हिमालय की भूगर्भीय चट्टानों पर अनवरत दबाव पड़ रहा है। हिमालय की भूगर्भीय संरचना में विविधता के कारण यह दबाव जब चट्टानों की तन्यता की सीमा से बाहर हो जाता है तो चट्टानें टूट जाती हैं। चट्टानों के टूटने से उनमें वर्षों से संरक्षित हो रही तन्य ऊर्जा चारों ओर बिखरने लगती है तथा भूकम्पीय तरंगों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान को परिगमित करती है। इस प्रकार हिमालयी क्षेत्रों में आने वाले भूकम्पों का मुख्य कारण, भारतीय और एशियन प्लेटों के मध्य होने वाला अभिसरण ही है।
उत्तराखण्ड में भूकम्प की स्थिति एवं भूकम्पीय जोखिम आकलन
हिमालय में आने वाले भूकम्पों की स्थिति देखें तो प्रतीत होता है कि अधिकांशतः भूकम्प मुख्य केन्द्रीय भ्रंश के दक्षिण में एक क्षेत्र में सीमित हैं तथा भूकम्पों का यह क्षेत्र हिमालयी चाप की तरह ही सुदूर पूर्व से पश्चिम तक विद्यमान है। भूकम्पों के इस क्षेत्र को हिमालयी भूकम्प पट्टिका के नाम से जाना जाता है। पूर्व से पश्चिम तक इस हिमालयी भूकम्प पट्टिका में यद्यपि भूकम्प की सघनता असमान है और यह असमानता हिमालय की पूर्व से पश्चिम की ओर भूगर्भीय संरचना में जटिलता के कारण तो है ही परन्तु इसका एक अन्य कारण दोनों प्लेटों के बीच अभिसरण के कारण उत्पन्न दबाव का असमान वितरण भी है। यदि हम सन 1800 से आज तक आये भूकम्पों को उनके आकार के आधार पर अध्ययन करें तो हम देखते हैं कि 2500 किमी लम्बे हिमालयी चाप में बहुत बड़े भूकम्प सन 1897 में शिलांग में (M~8.1), सन 1905 में कांगड़ा में (M~7.8 ), सन 1934 में बिहार-नेपाल में (M~8.3) तथा सन 1950 में असम में (M~8.7) आये हैं।
इन भूकम्पों से जन-धन की काफी क्षति हुई थी। इन भूकम्पों की स्थिति का वितरण देखें तो प्रतीत होता है कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड तथा पूर्वी हिमाचल में विगत में कोई बहुत बड़ा भूकम्प नहीं आया है। इस क्षेत्र को बहुत बड़े भूकम्पों के आने की दृष्टि में केन्द्रीय भूकम्प अभाव क्षेत्र (सेन्ट्रल सीज्मिक गैप) भी कहते हैं। यद्यपि कुछ पुराभूकम्पविद ऐतिहासिक आधार पर सन 1803 में गढ़वाल (M~7.7) के भूकम्प का वर्णन करते हैं तथा केन्द्रीय भूकम्प अभाव क्षेत्र को नकारते हैं। परन्तु सटीक आंकड़ों के अभाव में इस भूकम्प की स्थिति व आकार में अनिश्चितता के कारण अधिकांश भूकम्पविद इस पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। प्रोफेसर खत्री ने सन 1987 के शोधपत्र में केन्द्रीय भूकम्प अभाव क्षेत्र की पहचान की तथा इस क्षेत्र में बड़े भूकम्प की संभावना व्यक्त की है। कुछ इसी प्रकार की संभावनायें रोजर बिलहम, विनोद कुमार गौड़ एवं पीटर मोलनार ने सन 2001 में साईंस मैग्जीन के शोधपत्र में प्रस्तुत की हैं। उन्होंने अपनी संभावनाओं का आधार, दोनों प्लेटों के बीच अभिसरण के कारण उत्पन्न दबाव के समायोजन तथा पूर्व में आये बड़े भूकम्पों के रपचर क्षेत्र के अध्ययन पर किया है। यदि केवल उत्तराखण्ड की बात करें तो इस क्षेत्र में पिछली शताब्दी से आज तक M>6 के लगभग 13 भूकम्प आये हैं। जिनमें दो मुख्य भूकम्प नब्बे के दशक में ही आये हैं। डॉ. रस्तोगी के सन 2000 में छपे शोधपत्र में इस श्रेणी के भूकम्पों का आवृत्तिकाल आठ वर्ष निर्धारित किया है।
यद्यपि हिमालय के प्रत्येक क्षेत्र में भूकम्प की संभावनायें विद्यमान हैं परन्तु उत्तराखण्ड की विशेष स्थिति के कारण यहाँ भूकम्पीय जोखिम का समग्र आंकलन आवश्यक हो जाता है। यद्यपि इस दिशा में कुछ प्रयास किये गये हैं। इस दिशा में कपिल मोहन, आनन्द जोशी एवं आर सी पटेल के सन 2008 के शोधपत्र का उल्लेख करना आवश्यक है जिसमें उन्होंने जोखिम आंकलन की विशिष्ट विधियों एवं गणितीय सूत्रों के प्रयोग से उत्तराखण्ड का भूकम्पीय जोखिम नक्शा तैयार किया है। उन्होंने उत्तराखण्ड के अधिकांशतः क्षेत्रों को भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी IV व भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी V में वर्गीकृत किया है। भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी V में हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, धारचूला, मुनस्यारी, बागेश्वर, कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग, ऊखीमठ, उत्तरकाशी व आस-पास के इलाके हैं। जबकि गोपेश्वर को भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी IV में रखा गया है। माणा व आस-पास के क्षेत्र भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी II व III में बताये गये हैं।
भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी V के क्षेत्रों में महत्तम जमीनी त्वरण (PGA) 400 सेमी/सेकण्ड2 तथा भूकम्पीय क्षेत्र श्रेणी IV में 250 सेमी/सेकण्ड2 से 400 सेमी/सेकण्ड2 तक महत्तम जमीनी त्वरण हो सकता है। उत्तराखण्ड में अधिकांश आवासीय संरचनाओं की स्थिति इतने जमीनी त्वरण को सहने की स्थिति में नहीं है। अतः इस क्षेत्र में भूकम्पीय जोखिमों के सटीक आकलन की आवश्यकता है। यद्यपि उपरोक्त अध्ययन मुख्यतया सैद्धांतिक है परन्तु जिस प्रकार से विभिन्न संस्थानों ने इस क्षेत्र में भूकम्पमापी तथा त्वरण मापी यंत्रों का जाल बिछाया है उससे भविष्य में उत्तराखण्ड में भूकम्पों पर अधिक जानकारी होने के साथ ही, जोखिम आकलनों की सटीकता भी बढ़ने की संभावनाएं हैं।
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गौतम रावत
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून
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