उत्तराखण्ड के मंडुआ की पहुँच विदेशों तक

मंडुआ (कोदो)
मंडुआ (कोदो)

मंडुआ (कोदो)जैसे-जैसे खाद्य पदार्थों में कीटनाशक पदार्थों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे लोगों का शरीर बीमारियों का घर बन गया है। मेडिकल रिपोर्ट्स के अनुसार सर्वाधिक बीमारी लोगों को खान-पान में मौजूद रासायनिक पदार्थों की मौजूदगी के कारण हो रही है। इस खतरे से बचने के लिये लोग फिर एक बार वर्षों पूर्व भुला दिये गए पारम्परिक मोटे अनाजों की तरफ लौटना शुरू कर दिया है। उत्तराखण्ड में तो मंडुवे के आटे से रोटी के अलावा बर्फी और बिस्कुट भी बनना शुरू हो गया है। साफ है कि उत्तराखण्ड में धीरे-धीरे मण्डुवा जैसे मोटे अनाज की माँग बढ़ती जा रही है और यह यहाँ के किसानों की आमदानी का भी जरिया बनता जा रहा है।

उत्तराखण्ड में मोटे अनाजों की 12 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिसे आम बोल-चाल की भाषा में बारहनाजा कहते हैं। इनमें शामिल मण्डुवा कभी बच्चों के अन्नप्रास में प्रयोग में लाया जाने वाला मुख्य आहार था। समय बदला, देश के सभी क्षेत्रों में खेती के पैटर्न में बदलाव हुए और मोटे अनाज की जगह नए अनाजों ने ले लिया। उत्तराखण्ड की वादियों में रचे-बसे किसान भी पारम्परिक अनाजों को त्यागकर गेहूँ का उत्पादन करने लगे।

इस तरह गेहूँ के उत्पादन में इजाफा हुआ और मण्डुवा की जगह गेहूँ की रोटी ने ले ली। समय के साथ गेहूँ के उत्पादन में तेजी आई लेकिन उत्पादन में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग के कारण इसके सेवन से लोग विभिन्न प्रकार की बिमारियों की चपेट में आने लगे। इन्हीं सब कारणों से यहाँ के लोग मण्डुवा सहित अन्य मोटे अनाजों की तरफ फिर से मुड़ गए। इस तरह उत्तराखण्ड में धीरे-धीरे मोटे अनाजों की मंडी में तब्दील होने लगा। राज्य में मंडुआ का बाजार काफी तेजी से विकसित हुआ है।

टिहरी गढ़वाल के रानीचौरी में दो युवकों ने मण्डुवा की बर्फी बनाने का काम शुरू किया है। अब बाजार में उनकी बनाई बर्फी की खूब माँग है। स्थिति अब ऐसी है कि मण्डुवा से बने उत्पाद जैसे ही बाजार का रुख करते हैं तुरन्त ही बिक जाते हैं क्योंकि माँग की तुलना में उत्पादन कम है। उत्पादन कम होने का एक बड़ा कारण बीज के उपलब्धता की समस्या भी है।

बनेगा कोदो का बिस्कुट

यदि सब कुछ ठीक रहा तो उत्तराखण्ड का कोदो यानी मंडुआ लोगों को नगदी फसल के रूप में आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाएगा। अतएव अब कोदो एक बार फिर से उत्तराखण्डियों के खेतों में लहलहाएगा। इसकी शुरुआत केन्द्र सरकार की तरफ से हो गई है। इस पहल से फिलहाल बागेश्वर जनपद के मोनार गाँव सहित 20 गाँवों के 952 परिवार जुड़ गए हैं। ये लोग मण्डुवा के आटे से बिस्कुट बनाएँगे।

इस बिस्किट को हिलांस नाम से बाजार में उतारा जाएगा। भारत सरकार के अनुसूचित जनजाति मंत्रालय की टीम ने मोनार में कोदो से बनने वाले उत्पाद का परीक्षण भी कर लिया है। खबर है कि इसी महीने मंत्रालय का ‘माँ चिल्टा आजीविका स्वायत्त सहकारिता लोहारखेत’ के साथ अनुबन्ध होगा। आपको बता दें कि मन की बात में पीएम मोदी खुद कोदो की तारीफ कर चुके हैं। क्षेत्र के लोग इस पहल से खासे उत्साहित हैं और कहते हैं कि इस प्रकार यदि स्थानीय स्तर पर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध होंगे तो स्वतः ही पलायन पर रोक लग जाएगी।

केन्द्र सरकार की नई पहल

केन्द्र सरकार देश भर में 56 आउटलेट तैयार कर रही है। ये महज एक शुरुआत होगी। इनमें मंडुआ से बने उत्पादों को रखा जाएगा। बताया जा रहा है कि मंत्रालय से सम्बन्धित लोगों द्वारा बिस्किट का सैम्पल भी कलेक्ट किया गया है।

फिलहाल इस मुहिम में प्रत्यक्ष रूप से 8 सदस्य काम कर रहे हैं। उन्हें चार हजार से 12 हजार रुपए तक वेतन मिल रहा है। इसके अलावा इस मुहिम में अप्रत्यक्ष रूप से 20 गाँवों के 952 लोग जुड़े हुए हैं। बताया जा रहा है कि सहकारिता के माध्यम से हर साल लगभग पाँच लाख से ज्यादा की आय अर्जित होने की सम्भावना है। मंडुआ के साथ मक्का और चौलाई (मार्छा-रामदाना) के बिस्किट भी बनाए जा रहे हैं। खास बात ये है कि स्वास्थ्यवर्धक होने की वजह से लोग मंडुवे के उत्पादों को खूब पसन्द कर रहे हैं। 250 ग्राम के एक बिस्किट के पैकेट की कीमत 25 रुपए तय की गई है।

ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के बागेश्वर जिले के लोहारखेत में 10 हेक्टेयर में मंडुआ का उत्पादन होगा। इसके अलावा 10 हेक्टेयर में कुछ क्लस्टर भी डेवेलप किये गए हैं और जिनमें मंडुआ की खेती कराई जा रही है। इसके लिये लोगों के बीच लगभग डेढ़ क्विंटल बीज का वितरण किया गया है। बताया जा रहा है कि 10 हेक्टेयर में लगभग 160 क्विंटल मंडुवे का उत्पादन होगा।

इधर कपकोट ब्लॉक के 20 गाँवों के ग्रामीण मण्डुवा और मार्छा का उत्पादन सदियों से कर रहे हैं। इसे अब दोगुना करने का लक्ष्य सरकार द्वारा तैयार किया गया है। लोहारखेत के आउटलेट में ढाई लाख लागत की नैनो पैकेजिंग यूनिट की स्थापना भी की जाएगी। केन्द्र सरकार की मदद से इसे विकसित किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पलायन तो रुकेगा ही, साथ ही स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार भी मिलेगा।

बढ़ रही है माँग

उतराखण्ड के मंडुवे की माँग विदेशों में भी है। अब मण्डुवा लोगों की आजीविका का साधन बनने जा रहा है। मंडुवे की रोटी लोगों के घरों में फिर से जगह बनाने लगी है। इसका इस्तेमाल दवा के रूप में भी किया जाता है। उदाहरण के तौर पर दूधमुहें बच्चों को जब जुकाम आदि की समस्या होती है तो मंडुवे के आटे को गर्म पानी में डालकर उसका भाप लेने से आराम मिलता है।

कभी मंडुवे के आटे से स्थानीय स्तर पर सीड़े, डिंडके जैसे पारम्परिक नामों से कई प्रकार के व्यंजन तैयार होते थे जो ना तो तैलिय होती और ना ही स्पाईसी होती थीं। लोग इसे अतिपौष्टिक मानते थे। इन्हें हल्की आँच के सहारे दो बर्तनों में रखकर भाप से पकाया जाता है। इसमें चीनी गुड़ और मंडुवे के आटे के अलावा और अन्य किसी चीज का प्रयोग नहीं किया जाता था। अब उम्मीद यह की जा रही है कि ये व्यंजन जल्द ही प्रचलन में आएँगे।

स्थानीय लोग और वैज्ञानिक संस्थाएँ मंडुवे के आटे और मंडुवे के दाने को लेकर विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं। देहरादून स्थित कटियार एकमात्र बेकरी है जहाँ मंडुवे के आटे से बनी डबल रोटी आपको मिल जाएगी। कटियार बेकरीवालों का कहना है कि मंडुवे के आटे से बनी डबल रोटी की माँग तेजी से बढ़ रही है और वे माँग के अनुरूप पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। इसके अलावा कृषि विज्ञान केन्द्र रानीचौरी ने मंडुवे के आटे से बर्फी बनाने का सफल प्रयोग किया है।

केन्द्र से प्रशिक्षण लेकर शिक्षित बेरोजगार संदीप सकलानी और कुलदीप रावत ने मंडुवे की बर्फी को पिछली दीपावली के दौरान बाजार में उतारा है। औषधीय गुणों से भरपूर इस जैविक बर्फी की कीमत 400 रुपए प्रति किलो है जिसकी ऑनलाइन डिलीवरी हो रही है।

मंडुवे का वैज्ञानिक नाम इल्यूसीन कोराकाना है। वैज्ञानिक और पकवान बनाने के शौकीन लोगों ने मंडुवे के औषधीय गुण ढूँढ निकाले हैं। इसकी पौष्टिकता को देखते हुए कुछ वर्षों से रोटी के अलावा बिस्कुट और माल्ट यानि मंडुवे की चाय के रूप में भी इसका उपयोग हो रहा है। कृषि विज्ञान केन्द्र, रानीचौरी की विशेषज्ञ एवं मुख्य प्रशिक्षक कीर्ति कुमारी ने बताया कि उनका ध्येय पारम्परिक अनाजों को बढ़ावा देकर किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारना है। इसी को ध्यान में रखते हुए मंडुआ, झंगोरा आदि मोटे अनाजों के कई उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं। मंडुआ की बर्फी इसी का एक हिस्सा है।

ऐसे हुई बर्फी बनाने की शुरुआत

26 वर्षीय संदीप सकलानी ने बीटेक करने के बाद दो साल अकाउंट इंजीनियर के रूप में राजस्थान में नौकरी की। लेकिन, वहाँ मन न रमने के कारण वह घर लौट आये और कुछ हटकर करने का निर्णय लिया। इसी दौरान 25 वर्षीय कुलदीप रावत से उसकी दोस्ती हो गई, जो स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। दोनों के विचार मिले तो दो वर्ष पूर्व देवकौश नाम से एक कम्पनी का गठन किया। इसके माध्यम से उन्होंने फलों व सब्जियों पर आधारित उत्पाद बनाने शुरू किये। इसी दौरान उन्हें पता चला कि केवीके रानीचौरी उत्पाद बनाने का प्रशिक्षण दे रहा है तो उन्होंने भी इसमें भाग लिया और वहाँ मंडुआ की बर्फी बनानी सीखी।

 

 

 

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