देहरादून, 19 अप्रैल। उत्तराखण्ड में जंगलों में लगने वाली आग की समस्या से सूबे के वन विभाग को निजात नहीं मिल पा रही है। पिछले दो-तीन सालों से वन विभाग को सूबे के जंगलों में आग की विभीषिका से दो-चार होना पड़ रहा है। हर साल उत्तराखण्ड में 2 हजार दो सौ हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की लपटों में सुलगता है। पिछले साल उत्तराखण्ड के जंगलों में भीषण आग फैलने से जहाँ विशालकाय पेड़ और कई जड़ी बूटियाँ जलकर खाक हो गई थी वहीं उनका नामों निशान तक मिट गया था। वहीं दूसरी ओर इस भीषण आग के कारण कई जीव जन्तुओं की परजातियाँ ही जलकर मर गई थी और उनका वंश तक इस भीषण आग की भेंट चढ़ गया था।
उत्तराखण्ड में इस साल पिछले पचास दिनों में 2 सौ 37 हेक्टेयर जंगल आग की भेंट चढ़ गया है। बीते वित्तीय वर्ष में उत्तराखण्ड में पिछले दस सालों में सबसे भीषण आग लगी थी और उत्तराखण्ड का 4 हजार 434 हेक्टेयर जंगल जलकर खाक हो गया था। और जंगल की यह आग गढ़वाल और कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्रों के अलावा देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर के जंगलों में भी फैल गई थी।
उत्तराखण्ड का भौगोलिक क्षेत्र 53 हजार 483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 37 हजार 975 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। इस तरह उत्तराखण्ड में 64.79 फीसद वन क्षेत्र है। इस तरह देश और दुनिया के लिये उत्तराखण्ड वन क्षेत्र के हिसाब से अत्यंत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। उत्तराखण्ड का अधिकांश हिस्सा मध्य हिमालय, उच्च हिमालय और शिवालिक वृत माला के अन्तर्गत आता है। उत्तराखण्ड पूरे देश और दुनिया को स्वच्छ वायु देने के लिये प्रसिद्ध है। उत्तराखण्ड को इसीलिये पूरी दुनिया के फेफड़ों की संज्ञा दी गई है।
गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर दिनेश चंद्र भट्ट के मुताबिक पिछले साल उत्तराखण्ड के जंगलों में आग की विभीषिका के चलते इन जंगलों में रहने वाले 80 फीसद वन्य जीव-जन्तु नष्ट हो गए थे। इनके घोसलें, अंडे और बच्चों सहित जलकर खाक हो गए थे। इनमें उड़ने वाले पक्षी तीतर, बटेर, तितलियाँ और अन्य दुर्लभ जन्तु शामिल हैं। इसके अलावा जमीन के नीचे रहने वाले कई जीव-जन्तुओं की तो प्रजातियाँ ही समूल नष्ट हो गई। नष्ट होने वाली इन प्रजातियों की तादाद बीस से तीस प्रतिशत आँकी गई है।
प्रोफेसर भट्ट के मुताबिक उत्तराखण्ड के जिन हिस्सों में आग लगी उन हिस्सों से ब्राह्मी, जटामासी, चिंगला, हिसरा जैसी कई महत्त्वपूर्ण जड़ी बूटियाँ जलकर खाक हो गई। इनमें से कई जड़ी बूटियाँ जीव-जन्तुओं के भोजन के रूप में काम आती थी। राजाजी टाइगर रिजर्व पार्क के वन्य जीव प्रतिपालक कोमल सिंह के मुताबिक आने वाले 70 से 80 दिन उत्तराखण्ड के जंगलों के लिये बेहद चुनौतीपूर्ण होने हैं। अप्रैल, मई और जून के इन तीन महीनों में जंगलों में आग लगने का सबसे बड़ा खतरा रहता है। उन्होंने बताया कि उत्तराखण्ड के जंगलों में कई दुर्लभ जीव-जन्तुओं का अवैध रूप से शिकार करने के लिये वन्य जीव तस्कर और कई जंगल माफिया जंगलों में आग लगवा देते हैं। ताकि उन्हें शिकार करने में आसानी हो सके। और इसके अलावा इन वन क्षेत्रों में भ्रमण पर आने वाले पर्यटकों और जंगलों में लकड़ी बीनने वाले और घास-फूस काटने वाले लोग भी बीड़ी सिगरेट और जलती माचिस की तिल्ली इन जंगलों में फेंक देते हैं। इससे भीषण गर्मी के चलते जंगलों में आग विकराल रूप पकड़ लेती है।
उत्तराखण्ड के मध्य हिमालय के क्षेत्र में फरवरी से लेकर जुलाई तक का महीना वन्य जीव-जन्तुओं के लिये प्रजनन काल माना जाता है। ऐसे में इन जंगलों में आग लगने से सबसे ज्यादा खतरा जीव-जन्तुओं की प्रजाति के नष्ट होने का बना रहता है। पिछले दस सालों में उत्तराखण्ड में जंगलों के जलने की घटनाएँ सबसे ज्यादा घटती है। उत्तराखण्ड के वन मंत्री डॉक्टर हरक सिंह रावत के मुताबिक उत्तराखण्ड के जंगलों को आग से बचाने के लिये विश्व बैंक की मदद से सात सौ करोड़ रुपए की एक परियोजना तैयार की गई है। इसके तहत वनों की सुरक्षा और वनीकरण के क्षेत्र में अहम कार्य किया जाएगा। उत्तराखण्ड में फायर सीजन फरवरी माह से शुरू होता है और 15 जून तक चलता है।
उत्तराखण्ड में बीस फीसद जंगल चीड़ का है। चीड़ के पेड़ का लीसा और पिरुल अत्यंत ज्वलनशील होता है। इसीलिये उत्तराखण्ड के जंगलों में आग फैलने की शुरुआत चीड़ के जंगलों से शुरू होती है और जो अन्य पेड़ पौधों के जंगलों में फैल जाती है। राज्य सरकार कई वर्षों से केंद्र से चीड़ के पेड़ों के कटान की अनुमति माँग रही है परंतु अब तक कोई अनुमति नहीं मिली।
वन्य जीव प्रतिपालक कोमल सिंह ने बताया इस बार उत्तराखण्ड में जंगलों को आग से बचाने के लिये सूबे के सभी 13 जिलों में फायर मॉक ड्रिल किया जा रहा है। ताकि जंगलों की आग से समय रहते निपटा जा सके। इस तरह उत्तराखण्ड के जंगलों की आग का बुरा असर उत्तराखण्ड के पर्यटन पर भी पड़ रहा है।
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