पलायन, पहाड़ की पुरानी समस्या है। उत्तराखंड में इसे रोकने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रांतीय इकाई भी आ डटी है। इसके लिए संघ ने ‘मेरा गाँव, मेरा तीर्थ’ योजना बनाई है। 670 न्याय पंचायतों में संयोजक तैनात कर दिए हैं। संयोजकों की भूमिका प्रवासियों को गाँव लौटाने के लिए प्रेरित करने की होगी लेकिन जानकार मानते हैं कि मसला सिर्फ पलायन से निपटने तक सीमित नहीं हैं।
पलायन, उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं। सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं पानी सरीखी बुनियादी जरूरतों और काम-धन्धे की तलाश में लोग कस्बों और शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। एक दशक के दौरान पलायन की जो तस्वीर उभरकर सामने आई है, उसने विकास के मौजूदा मॉडल पर सवालिया निशान लगा दिया है। राज्य गठन के 14 साल बाद सरकार को अब गाँवों से हो रहे पलायन को रोकने के लिए नए सिरे से सोचना पड़ रहा है। सूबे की कमान हाथ में आने के बाद से मुख्यमन्त्री हरीश रावत भी पहाड़ से हो रहे पलायन को रोकने के लिए ग्रामीण खेती और अर्थव्यवस्था की मजबूती पर जोर दे रहे हैं। मगर उनका ये जोर फिलहाल घोषणाओं और योजनाओं से बाहर नहीं निकल पा रहा है। पहाड़ को पलायन के अभिशाप से मुक्त कराने के लिए गैर-सरकारी संगठनों के स्तर पर भी जो प्रयास हो रहे हैं, वे भी बहुत उत्साह जगाने वाले नहीं हैं।अब तो यह बीड़ा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी उठा लिया है। आरएसएस के प्रदेश प्रांत प्रचारक डॉ. हरीश कहते हैं, ‘पलायन की मूल समस्या ग्रामीण आर्थिकी है। जब तक इसे मजबूत नहीं किया जाएगा तब तक समस्या हल नहीं होगी।’ लेकिन संघ की असली चिन्ता पलायन के बाद पैदा होने वाले हालातों को लेकर है। आबादीविहीन हो रहे ज्यादातर गाँव सीमान्त जनपदों में हैं। सरहद के पास गाँव खाली होंगे, तो इससे सामरिक दिक्कतें भी बढ़ेंगी। संघ समाधान के साथ मोर्चे पर है लेकिन इस समाधान पर रोशनी डालने से पहले राज्य में हो रहे पलायन पर निगाह डालते हैं।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार पिछले एक दशक में 78 गाँव गैर-आबाद हो चुके हैं। गैर आबाद गाँवों की संख्या 1143 है। हालाँकि इस आँकड़े पर तस्वीर साफ नहीं है। जनगणना के आँकड़ों के अनुसार पिछले एक दशक के दौरान राज्य के दो, जनपदों अल्मोड़ा और पौड़ी की आबादी बढ़ने के बजाए घट गई है। अल्मोड़ा की आबादी घटने की रफ्तार - 1.73 फीसद और पौड़ी की -1.51 फीसद है। बाकी पहाड़ी जिलों चमोली, रूद्रप्रयाग, टिहरी, पिथौरागढ़ और बागेश्वर की आबादी 5 फीसद से भी कम की रफ्तार से बढ़ी है जबकि देश की आबादी बढ़ने की औसत दशकीय रफ्तार 17 फीसद है। उत्तराखंड के मैदानी जिले ऊधम सिंह नगर की आबादी 33.40 फीसद, हरिद्वार की 33.16 फीसद, देहरादून की 32 फीसद और नैनीताल की आबादी 25 फीसद की रफ्तार से बढ़ी है। मोटे अनुमान के अनुसार, अब तक 35 फीसदी से ज्यादा आबादी राज्य छोड़ चुकी है।
जानकारों का कहना है कि ‘गाँव उजड़ रहे हैं और पूरा पहाड़ इतिहास के सबसे बड़े विस्थापन के मुहाने पर खड़ा है।’ पहाड़ों के प्रति यह उपेक्षा राज्य बनने के बाद ही शुरू हुई है। ये उपेक्षा अर्थव्यवस्था में भी साफ झलक रही है। पलायन राज्य गठन की मूल अवधारणा का मुद्दा था। यह माना गया कि अविभाजित यूपी के समय से इस पर्वतीय भूभाग की उपेक्षा हुई। तब यहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव था। लेकिन 14 साल बाद राज्य के सामने पलायन का वही सवाल खड़ा है। जाहिर है कि यदि गाँव खाली हो रहे हैं तो दिक्कत उन बुनियादी सवालों को लेकर हैं जिनके हल सरकारें नहीं निकाल पाईं।
योजना आयोग की रिपोर्ट बताती है कि करीब 9.3 फीसदी की विकास दर से दौड़ रहे राज्य में पहाड़ के करीब 32 लाख 89 हजार ग्रामीण 17 रुपए दैनिक में गुजारा करने को मजबूर हैं। स्वास्थ्य मोर्चे पर स्थिति और भी ज्यादा खराब है। मैदान में इमरजेन्सी में डॉक्टर तक पहुँचने का औसत समय 20 मिनट है, जबकि पहाड़ पर इमरजेन्सी में डॉक्टर तक पहुँचने का समय 4 घंटा 48 मिनट है। दूसरी तरफ, सरकारी नौकरियों में यहाँ के लोगों का अनुपात भी राज्य बनने के बाद से तेजी से गिरा है। इस स्थिति के लिए सरकार के साथ-साथ कहीं न कहीं स्थानीय सामाजिक संगठन भी कुछ हद तक जिम्मेदार हैं।
एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड के 16 हजार गाँवों में करीब 45 हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर पर्यावरण के पैरोकार हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि जमीन पर कुछ हुआ ही नहीं। सरकार के स्तर पर भी प्रयास अब जाकर शुरू हुए हैं। इन प्रयासों के भी जमीन पर उतरने का इन्तजार हो रहा है। मुख्यमन्त्री हरीश रावत का मानना है कि राज्य में विकास तो हुआ लेकिन राज्य का पर्वतीय भू-भाग विकास से अछूता रह गया। रोजगार के संसाधन नहीं जुटाये जा सके। इन सारे मोर्चों पर सरकार गम्भीरता से जुटी है।
लेकिन अब अचानक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रांतीय इकाई भी पलायन रोकने के मोर्चे पर आ डटी है। इसके लिए संघ ने ‘मेरा गाँव मेरा तीर्थ’ योजना बनाई है। योजना यह है कि संघ की ओर से देश-विदेश में बसे प्रवासी उत्तराखंडियों का आह्वान किया जाएगा कि वे साल में कम से कम एक बार अपने पैतृक गाँवों में आएं और कुछ दिन व्यतीत करें। एक ही गाँव के लोग समूह में प्रवास करें। अनुमान है कि उत्तराखंड की डेढ़ गुनी आबादी राज्य से बाहर है। राज्य से पलायन कर गई यही आबादी पलायन रोकने की दवा बन सकती है।
साल में एक बार उनके गाँवों में प्रवास करने से वहाँ पसरा सन्नाटा टूटेगा। गाँवों की आर्थिकी में सुधार होगा। अनुमान है कि इस पहल के तहत यदि पाँच हजार प्रवासी भी गाँवों में आए तो उनकी आवाजाही से 10 से 15 करोड़ रुपये की आर्थिकी विकसित होगी। योजना यहीं तक सीमित नहीं है, बल्कि वह स्थानीय उत्पादों मसलन, कोदा, झंगोरा, गैत, राजमा, तोर, काला भट्ट सरीखी पहाड़ी दालों को भी एक नया बाजार देने की सम्भावनाएँ जगाती है। स्थानीय उत्पादों की खपत बढ़ेगी तो लोग उसका और अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरित होंगे। प्रवासियों के गाँव लौटने की प्रवृत्ति बनेगी तो स्थानीय लोगों का भी गाँवों के प्रति लगाव बढ़ेगा।
दरअसल, जो प्रवासी गाँवों में आएंगे, उन्हें लौटते समय स्थानीय उत्पाद अपने साथ ले जाने के लिए प्रेरित किया जाएगा। ये सब कैसे मुमिकन हो पाएगा, इस बारे में योजना के सूत्रधार संघ के प्रांतीय प्रचारक डॉ. हरिश कहते हैं, ‘संघ ने 670 न्याय पंचायतों में संयोजक तैनात कर दिए हैं। संयोजकों की भूमिका प्रवासियों को गाँव लौटाने के लिए प्रेरित करने की होगी।’ मगर जानकार मानते हैं कि मसला सिर्फ पलायन से निपटने तक सीमित नहीं है। असली मर्ज तो सीमांत गाँवों में तेजी से पसर रहे सन्नाटे को लेकर है। संघ की ये बड़ी चिन्ता है। डॉ. हरीश कहते हैं, सीमा से सटे गाँवों के तेजी से खाली होने की चिन्ता भी इस योजना से जुड़ी है। राष्ट्र की सीमाओं को सुरक्षित बनाने के लिए पलायन रुकना जरूरी है। संघ ने इस दिशा में काफी पहले से मोर्चा सम्भाल रखा है। सीमान्त गाँवों में बच्चों के लिए आवासीय गुरुकुल खोलने की रणनीति भी इसी योजना का हिस्सा मानी जा रही है।
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