साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित सिर्पी बालसुब्रम्हण्यम की तमिल कविता संग्रह ‘ओरू गिराभत्तु नदी’ की चर्चा इसलिये क्योंकि नदी को इस संग्रह में एक नदी की तरह नहीं बल्कि इसे कविता संग्रह की कविताएँ उत्सवधर्मिता, गीत, नृत्य, संगीत, आस्था और विश्वास से भी जोड़ती है। यह कविता संग्रह एक नदी में जीवन के कई रंगों की उपस्थिति को दर्शाता है, जिसमें दुख भी है, त्रासदी भी है और यातना का स्वर भी।
इस संग्रह की कविताएँ दक्षिण भारत के एक छोटे गाँव ओत्तुप्पोल्लाच्चि के ग्रामीणों को प्राण से प्रिय ‘अलियारु’ नदी की धारा में पकी है। सिर्पी की नदी से जुड़ी कविताओं में लोककथा और पौराणिक सन्दर्भ भी मौजूद हैं। अलियारु नदी की महिमा का गान करते हुए कवि लिखते हैं-
‘‘यह जीवनदायिनी है, रमणीय है
और अन्तिम समय
विश्राम के बाद लेटने के लिये
विश्रामस्थली भी
इसमें संगम करती हैं
उघारु (नमकीन नदी) और पालारु (दुधिया नदी) नदियाँ
इसमें है मेरे रक्त का नमक
और माँ का दूध भी...
इसी किनारे रचा हुआ
वह काव्य, जो कभी न पढ़ा गया
वह इतिहास जो अभी तक लिखा नहीं गया।’’
इन पंक्तियों के बाद भी पाठक क्या उस प्राणपन पर सन्देह कर सकते हैं, क्या उसे समझने में कोई बाधा है, जिससे कवि सिर्पी बालसुब्रम्हण्यम अपनी नदी अलियारु को चाहते हैं।
कविता संग्रह पर आगे कुछ लिखने से पहले एक परिचय जरूरी है। वी पद्मावती का। वी पद्मावती की वजह से तमिल से एक श्रेष्ठ कविता संग्रह ‘ओरू गिराभत्तु नदी’ का हिन्दी में अनुवाद ‘एक ग्रामीण नदी’ शीर्षक के साथ हो पाया। पद्मावती को श्रेष्ठ अनुवाद के लिये नल्लि तिसै एट्टुम अनुवाद पुरस्कार, 2007 में मिल चुका है। वे वर्तमान में पीएसजीआर कृष्णम्माल महिला महाविद्यालय, पीलमेडू, कोयम्बटूर में हिन्दी की विभागाध्यक्ष हैं। सिर्पी बालसुब्रम्हण्यम भी कोयम्बटूर के ही भरतियार विश्वविद्यालय तमिल विभाग के आचार्य पद से सेवानिवृत हुए। सिर्पी बालसुब्रम्हण्यम के कविता संग्रह की पहली कविता नदी की कथा की पंक्तियाँ हैं-
‘‘पालघाट दर्रे के,
दक्खिनी दालान में
बुजुर्गों के शेष अवशेषों सहित
अब भी जीवित है
मेरा गाँव
मेरे भीतर सदा जीवित है
अपना गाँव
अलियारु के तट पर स्थित
आत्तुप्पोल्लाच्चि गाँव
नदी रूपी कन्या के गाल पर
नजर से बचाने की इक बिंदी सदृश’’
इस तरह उनका गाँव और उनके गाँव के पास की नदी दोनों उनकी कविता के पात्र बन जाते हैं। जिसके साथ उनकी संवेदनाएँ जुड़ी हैं। आज जब हम अपने जीवन में इतने मशरूफ हो गए हैं कि हमें अपने पड़ोसी तक का दर्द अपना नहीं लगता। हम धीरे-धीरे अपने परिवार के सुख-दुख तक में सिमटते जा रहे हैं। ऐसे समय में एक कवि अपनी पानीदार कविताओं से हमें झकझोर रहा है। जगाने की कोशिश कर रहा है।
तीन दिन लगातार
गुनगुनाने वाली वर्षा
अचानक रुक गई।
कविता के शब्द-शब्द हमारे संवदेना के नसों को टटोलती सी प्रतीत होती है। इसी संग्रह की कविता ‘प्यास’ में सिर्पी कहते हैं-
‘‘चैंकते हुए
हाथ से नीचे गिरा दिया तो
सुनाई दी
मेरी आवाज!’’
एक दक्षिण भारतीय कवि अपने गाँव की नदी का किस्सा कहता है और उसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि वह हम उत्तर भारतीयों के एहसास को भी शब्द दे रहा है। साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत तमिल कविता संग्रह के इस हिन्दी अनुवाद को आप भी पढ़ सकते हैं और पढ़ते हुए उत्तर दक्षिण के अन्तर को मिटता हुआ महसूस भी कर सकते हैं।
Path Alias
/articles/utatara-jaaisai-dakasaina-kai-eka-garaamaina-nadai
Post By: RuralWater