उत्तर बिहार में बाढ़ के दौरान पीने का पानी सुरक्षित

मेघ पाईन अभियान 2006 से ही उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में कम निवेश और ज्यादा लाभ वाली वर्षा जल संचयन तकनीक का प्रचार करता रहा है। यह तकनीक बहुत आसान है। सफाई के साथ वर्षा जल संचय और भण्डारण करने के लिए पॉलिथीन शीट, बाँस, रस्सी और मिट्टी या प्लास्टिक का बर्तन की जरूरत पड़ती है जो अधिकांशतः स्थानीय रूप से उपलब्ध होते हैंउत्तर बिहार का मौसम कई अर्थों में देश के दूसरे हिस्सों के मौसम से अलग है। भले ही इस मौसम में यहाँ मुश्किलें, तबाही और मौत के दृश्य दिखाई देते हों, लेकिन बाढ़ का मौसम इस इलाके के लोगों के लिए हर साल आने वाली ऋतु बन गई। सदियों से इन हालात का सामना करते-करते स्थानीय लोगों ने अब इसे अपनी नियति मान ली है और इसे जीवन का एक हिस्सा समझने लगे हैं। हर साल पेश आने वाली यह तबाही स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी बनी हुई है। उत्तर बिहार के मैदानी इलाकों में जो आत्मनिर्भर समुदाय रहते हैं, उन्हें भी अब बाहरी तत्वों पर निर्भर करना पड़ रहा है। बाढ़ के दौरान जिन्दा रहने के लिए इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं है।

इस इलाके में बाढ़ का परिदृश्य जारी है। बार-बार तटबन्ध टूट जाते हैं और क्षेत्र में तबाही फैल जाती है। इस प्राकृतिक आपदा के कारण होने वाली बर्बादी का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शुरू-शुरू में 1952 में बिहार में 160 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध थे, जिनसे 25 लाख हेक्टेयर जमीन का बचाव होता था। वर्ष 2002 तक तटबन्धों की लम्बाई बढ़कर 3,430 किलोमीटर हो गई और बाढ़ की आशंका वाला क्षेत्र बढ़कर 68,80,000 हेक्टेयर हो गया। बार-बार बाढ़ आने से जुटाई गई सुविधाएँ बर्बाद हुईं और स्थानीय निवासियों में गरीबी, निर्भरता और अकर्मण्यता बढ़ गई। 2007 में आई बाढ़ से 2 करोड़ 50 लाख लोग तबाही के शिकार बने जबकि 2004 में इसके कारण दो करोड़ 10 लाख लोग मुश्किलों में घिर गए थे। 1987 में बाढ़ के कारण दो करोड़ 82 लाख जनता विस्थापित हुई। 2008 में बाढ़ की चपेट में 993 गाँव और सुपौल, मधेपुरा, अररिया, सहरसा और पूर्णिया जिले के 35 ब्लॉकों की 412 पंचायतें प्रभावित हुईं। कुल मिलाकर तीन करोड़ 30 लाख लोग इस बर्बादी के शिकार हुए।

घटक

इकाई

हर आवास में लोगों की संख्या

5

पेयजल की रोजाना माँग

2 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन

प्रतिदिन पानी की कुल माँग

10 लीटर (2 लीटर × 5 सदस्य)

हर महीने पीने के पानी की माँग

300 लीटर (10 लीटर × 30 दिन)

महीने में बारिश वाले दिनों की संख्या

15

सूखे दिनों की संख्या

15

वर्षा वाले दिनों में पेयजल की जरूरत जिसे किसी बर्तन में रोज-रोज इकट्ठा किया जा सकता है

10 लीटर प्रतिदिन (2 लीटर × 5 सदस्य)

बारिश वाले महीने में सूखे दिनों के दौरान भण्डारण किए जाने वाले पेयजल की जरूरत

2 लीटर × 5 सदस्य × 15 दिन (सूखे दिन यानी 150 लीटर)


भौतिक और आर्थिक नुकसान के अलावा बाढ़ के कारण लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है जो बाढ़ की अवधि के बाद भी जारी रहता है। लोगों के स्वास्थ्य में आईं परेशानियाँ लम्बे समय तक जारी रहती हैं, जिससे उनकी कार्यक्षमता कम होती है और पहले से ही परेशान गृहस्थी की वित्तीय जिम्मेदारियाँ बढ़ जाती हैं। नतीजा यह होता है कि लोग ऋण के दुश्चक्र में फँस जाते हैं और सीमित आमदनी के चलते ऊँची ब्याज वाला कर्ज अदा न कर पाने की चिन्ता में घुलते रहते हैं। दुर्भाग्य की बात है कि यह उत्तर बिहार के लोगों की नियति बन गई है और इस क्षेत्र के लोगों को इन्हीं परेशानियों के साथ जीना पड़ता है।

स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के कारण


बाढ़ के दौरान लोगों को तटबन्ध या काम चलाऊ शरणस्थलों में जाना पड़ता है, जिनमें लोगों को अपने मवेशियों के साथ रहना पड़ता है। स्वास्थ्य और सफाई सम्बन्धी समुचित सुविधाओं के अभाव में ग्रामवासियों को अमानवीय दशा में तब तक रहने को मजबूर होना पड़ता जब तक बाढ़ रहती है। पानी उतरने में कम से कम तीन महीने लग जाते हैं।

लोगों के अनुसार उन्हें सबसे गम्भीर समस्या का सामना करना पड़ता है वह है सुरक्षित पेयजल की प्राप्ति। हैण्डपम्प पीने के पानी के मुख्य स्रोत हैं। ज्यादातर मौजूदा हैण्डपम्प बाढ़ के दिनों पानी में डूब जाते हैं या फिर गाद जमने के कारण उनका पानी पीने लायक नहीं रहता। तटबन्धों पर पानी से घिरी अवस्था में भारी संख्या में लोगों को इकट्ठा रहना पड़ता है जिसके कारण उन्हें हैण्डपम्प का पानी भी मिलना दूभर हो जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बाढ़ के कारण निम्नलिखित बीमारियों के फैलने की आशंका होती है :
1. जलजनित बीमारियाँ जैसे- मियादी बुखार, हैजा और हेपटाइटिस-ए।
2. मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियाँ जैसे- मलेरिया, डेंगू और डेंगू सहित हेमरहेजिक बुखार, पीतज्वर और वेस्ट नाइल फीवर।

बैक्टीरिया के कारण पैदा होने वाली बीमारी हैजा बाढ़ के दौरान फैलने वाली सबसे घातक बीमारी है। इसके कारण उल्टी-दस्त और निर्जलीकरण हो जाता है। कई गम्भीर मामलों में लोगों की मौत भी हो जाती है। हैजा एक खास तरह के बैक्टीरिया से फैलता है। यह मुख और मलमार्ग के जरिये जोर पकड़ता है। प्रभावित लोगों के मल में बड़ी संख्या में इस बीमारी के जीवाणु पाए जाते हैं। अगर यह मल बाढ़ के पानी में मिल गया, तो इसके कारण बड़े पैमाने पर संक्रमण फैल जाता है और बहुत तेजी से लोग हैजा के शिकार बन जाते हैं। शरणस्थल के शिविरों में पहले ही साफ-सफाई की कमी होती है, जिससे तीव्र संक्रमणशील यह बीमारी जल्दी ही महामारी बन जाती है।

उत्तर बिहार में बाढ़ के दौरान लोगों को तटबन्धों पर रहना पड़ता है और वे आसानी से जलजनित बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। नतीजा होता है बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि।उत्तर बिहार में बाढ़ के दौरान लोगों को तटबन्धों पर रहना पड़ता है और वे आसानी से जलजनित बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। नतीजा होता है बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि। छोटे बच्चे, महिलाएँ और बुजुर्ग आसानी से इन बीमारियों के शिकार बन जाते हैं। असुरक्षित रहन-सहन की अवस्था में पौष्टिक और साफ-सुथरा भोजन नहीं मिल पाता, जिसके कारण स्वास्थ्य की समस्या और बढ़ती है। कुपोषण और रक्ताल्पता के कारण पहले से ही कमजोर बच्चे और गर्भवती महिलाएँ इसकी चपेट में आ जाती हैं। इस बीमारी के कारण स्थानीय जनसंख्या को जिस हद तक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है उसकी जानकारी वर्ष 2004 की बाढ़ के दौरान खगड़िया जिले के दिगनी गाँव के निम्नलिखित अध्ययन से मिल जाती है :

सरकारी एजेंसियाँ, विकास संगठन और समाज के अन्य लोग इस समस्या पर विचार करते रहते हैं और इसके निवारण के लिए पानी साफ करने वाली गोलियाँ बाँटते रहे हैं। उथले हैण्डपम्प और पैक किए हुए पानी के वितरण की भी व्यवस्था की गई थी। लेकिन यह उपाय बाहरी लोगों ने किए और बाढ़ के दौरान इस सामग्री को लाने-ले जाने और वितरित करने के काम में बहुत कठिनाई आई। दूसरे, दूरदराज के इलाकों तक पहुँचना बाढ़ के कारण मुश्किल हो गया, जिससे काफी बड़े इलाके में इन उपायों के लाभ नहीं पहुँचे। दूसरी ओर बाहरी सहायता के कारण ग्रामीण समुदाय उन पर बहुत ज्यादा निर्भर हो गया और बाढ़ में जिन्दा रहने की अपनी क्षमता खो बैठा। किसी जमाने में बाढ़ में भी जिन्दा रहने को स्थानीय लोग जीवट का काम समझते थे और इसे वे बाढ़ का सामना करने की क्षमता का भाग मानते थे।

पेयजल की समस्या का स्थानीय समाधान


उत्तर बिहार में हर साल औसतन 1,250 मिलीमीटर वर्षा होने का अनुमान है। यहाँ वर्षा की ऋतु 120 दिन रहती है और आमतौर पर इस इलाके में 56 दिनों तक बारिश होती है। यह अवधि जून और सितम्बर के बीच पड़ती है। सामान्य रूप से इन्हीं दिनों बाढ़ भी आती है। दुर्भाग्य की बात है कि वर्षा का पानी पूरी तरह बेकार बह जाता है और पानी से घिरे ग्रामवासियों को जिन्दा रहने के लिए दूषित जल का इस्तेमाल करने पर मजबूर होना पड़ता है। औसतन सालाना बारिश से संकेत मिलता है कि पीने के लिए वर्षा जल संचयन और भण्डारण करना वर्षा ऋतु में भी सम्भव है और इसके कारण ग्रामवासी पूरे सीजन के लिए काफी पेयजल इकट्ठा कर सकते हैं। इस इलाके के 5 जिलों में औद्योगिक बुनियादी सुविधाएँ नहीं हैं और उद्योगों के कारण वर्षा के पानी को दूषित होने का कम-से-कम खतरा है। इस क्षेत्र में औसत वार्षिक वर्षा और वर्षा ऋतु के कुल दिनों, कम लागत और अस्थायी वर्षा जल संचयन तकनीक को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि बाढ़ के दिनों में भी सुरक्षित रूप से पेयजल की व्यवस्था की जा सकती है।

आवासों की संख्या

200

गाँव के बाढ़ प्रभावित आवासों की संख्या

200

बाढ़ के दौरान पेयजल का स्रोत

वर्षा जल

जलजनित बीमारियों के प्रकार

-

अन्य बीमारियाँ

वायरल इनफेक्शन

बीमार लोगों की कुल संख्या

7 (बच्चे/अवयस्क) एवं 2 प्रौढ

मृतकों की संख्या

1

स्वास्थ्य पर कुल खर्च

5,000 रुपए


मेघ पाईन अभियान एक ऐसा संगठन है जो उत्तर बिहार के बाढ़ सम्भावित इलाकों में इस समस्या को हल करने में लगा हुआ है। इस अभियान की शुरुआत मई 2006 में हुई और अब यह सुपौल, सहरसा, खगड़िया, मधुबनी और पश्चिमी चम्पारण जिलों के 22 पंचायती इलाकों में काम कर रहा है। शुरुआती चरण के दौरान इस अभियान का सारा जोर लोगों में यह भरोसा पैदा करने पर था कि वर्षा जल संचयन के जरिये पीने के सुरक्षित पानी का इन्तजाम किया जा सकता है। बाद में इस अभियान में एक अतिरिक्त घटक जोड़ा गया। यह था वर्षा जल का भण्डारण और इसे वर्षा जल संचयन नीति का एक अंग बना दिया गया। इस अभियान के तहत निम्नलिखित सिद्धान्तों का ध्यान रखा गया जिनका उद्देश्य बाढ़ वाले इलाकों में वर्षा जल संचयन के काम में तेजी लाना था :

1. अपनी सहायता खुद करो की अवधारणा को मजबूत करना।
2. लोगों को यह भरोसा दिलाना कि उनके प्रयासों से अच्छे नतीजे मिलेंगे।
3. सामूहिक प्रयासों पर जोर देना।
4. निर्भरता से ध्यान हटाकर लोगों में नवाचार और व्यवहार में परिवर्तन लाने वाले स्वयं सिद्ध उपायों की सोच पैदा करना।
5. बदलाव के प्रक्रिया शुरू करने के लिए जन समर्थन जुटाना।
6. सामूहिक कार्य के लिए एक ऐसा नया कार्यकारी मॉडल विकसित करना, जिसका इस्तेमाल अन्य विकास अभियानों में भी किया जा सके।

वर्षा जल संचयन—सम्भावनाएँ और तकनीक


मेघ पाईन अभियान 2006 से ही उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में कम निवेश और ज्यादा लाभ वाली वर्षा जल संचयन तकनीक का प्रचार करता रहा है। यह तकनीक बहुत आसान है। सफाई के साथ वर्षा जल संचय और भण्डारण करने के लिए पॉलिथीन शीट, बाँस, रस्सी और भण्डारण सुविधा (मिट्टी या प्लास्टिक का बर्तन) की जरूरत पड़ती है जो अधिकांशतः स्थानीय रूप से उपलब्ध होते हैं।

तटबन्धों या ऊँचाई वाले इलाकों में वर्षा जल संचयन


बाढ़ के दिनों में लोग तटबन्धों या इसी तरह के ऊँचाई वाले इलाकों में चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में जब जगह की कमी हो, वर्षा जल संचयन के लिए अतिरिक्त ढाँचे के निर्माण की बात करना व्यर्थ होगी। अतः ऐसी स्थिति में छतों पर पॉलिथीन शीट के सहारे वर्षा जल का संचय किया जाए। अधिकांश ग्रामीण इन शीटों का इस्तेमाल अस्थायी निवास बनाने के लिए करते हैं।

गाँव के अन्दर अलग-थलग घरों में वर्षा जल संचयन


बाढ़ के दिनों में जब लोग ऊँचाई वाले इलाकों को चले जाते हैं अथवा अपने ही घरों में रहना जारी रखते हैं तो बाढ़ की तीव्रता या भरे हुए पानी की गहराई निर्णायक कारक बन जाती है। जब ग्रामवासी घरों में रह रहे हों तो वे अधिकांशतः बाढ़ के पानी से घिरे होते हैं। अतः पीने का पानी जुटाना उनके लिए भी एक बड़ी समस्या बन जाती है।

बाढ़ के दौरान आवास की व्यवस्था करना मौजूदा तटबन्धों पर रहने की अपेक्षा कुछ मुश्किल काम होता है। जो लोग गाँवों में ही रहना जारी रखते हैं उनके लिए तब तक अस्थायी शिविरों में जाना जरूरी नहीं होता जब तक कि बाढ़ का पानी बहुत ज्यादा न हो जाए और उनके घरों में न घुस जाए। अतः ऐसे लोगों के लिए अस्थाई तौर पर वर्षा जल संचयन के लिए एक ढाँचा बना लेना सम्भव होता है।

इस तरह की अस्थायी व्यवस्था किसी खुली जगह— अहाते या घर के बाहर अथवा छत पर (यदि मकान पक्का है) या मकान के सामने कोई चबूतरा बनाकर की जा सकती है। इसके ऊपर पॉलीथीन की एक शीट फैलाई जा सकती है ताकि उस पर गिरने वाला वर्षा का पानी नीचे रखे गए भण्डारण पात्र में गिरे।

वर्षा जल संचयन उपायों के परिणाम : वर्षा जल संचयन के उपायों के लिए चलाए गए अभियान के कारण निम्नलिखित नतीजे प्राप्त हुए :

1. वर्षा जल को बहुत बड़े जनसमुदाय ने पीने के सुरक्षित पानी के रूप में स्वीकार किया। वर्ष 2006 में 4 पंचायतों के 46,000 में से करीब 13,000 लोगों ने वर्षा का पानी पिया। वर्ष 2007 के दौरान 5 जिलों में कुल 36,352 आवासों ने वर्षा जल का इस्तेमाल किया। खगड़िया में लगभग 6,255 लोगों ने, जो अभियान में शामिल नहीं थे, बाढ़ के दिनों वर्षा जल संचयन से लाभ उठाया। वर्ष 2007 में बाढ़ के बाद खगड़िया जिले में किए गए मूल्यांकन से जाहिर हुआ कि बाढ़ के दौरान प्रभावित लोगों ने वर्षा का पानी इस्तेमाल किया जिसका उनके स्वास्थ्य पर काफी अच्छा असर पड़ा। उदाहरण के लिए दिगनी गाँव में जलजनित बीमारियों के कारण काफी कम लोग बीमार पड़े।

2. बाढ़ के दौरान विस्थापित लोगों में होने वाली तकलीफों की तीव्रता और बारम्बारता में काफी कमी आई। पहले वे बदहजमी, पेट की खराबी आदि सहित जटिल गैस्ट्रिक समस्याओं और पेट की बीमारियों से पीड़ित होते थे।

3. आमतौर पर लोगों की राय है कि अगर भोजन वर्षा जल में बनाया जाए या वर्षा जल के साथ किया जाए तो वह आसानी से हजम होता है। इस अभियान से जुड़े लोगों ने पाया कि वर्षा जल में तैयार किया गया भोजन बहुत अच्छा था।

4. दुखती आँखों में वर्षा का पानी डालने से राहत मिलती है। यह जानकारी सहरसा जिले के महिशी गाँव की रंजना देवी ने दी।

5. निम्नलिखित पंचायतों के विभिन्न लोगों ने खबर दी कि वर्षा जल के इस्तेमाल के बाद अतिसार, उल्टी-दस्त और आँतों की अन्य बीमारियों से अपेक्षाकृत कम लोग पीड़ित हुए। पहले बाढ़ के दिनों इनके कारण ज्यादा लोग बीमार होते थे। जिन पंचायत क्षेत्रों में यह बात देखी गई वे हैं- दक्षिण तेलहुआ पंचायत (पश्चिम चम्पारण), दहमा खैरी खुटहा पंचायत (खगरिया), महशी उत्तरी पंचायत (सहरसा) और बलवा पंचायत (सुपौल)।

6. बाढ़ के दिनों खगड़िया की सरसावा पंचायत की रामदुलारी देवी ने सूचना दी कि उन्हें और उनके परिवार को वर्षा का संचित पानी पीना हैण्डपम्प के पानी से स्वाद में बेहतर लगा और इसको पीने की आदत डालना भी आसान है। बाढ़ के दिनों रामदुलारी देवी को अपने परिवार के साथ मकान की छत पर रहना पड़ा था। मेघ पाईन अभियान के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने कहा कि उनके परिवार ने वर्षा का पानी इकट्ठा करके पिया और तब से उन्होंने लगातार 10 दिनों तक वर्षा के पानी से काम चलाया। लगातार वर्षा हो रही थी अतः उन्हें काफी मात्रा में पानी मिल गया और ज्यादा दिन तक चला। जब यह पानी खत्म हो गया तो उनके परिवार के बच्चे वर्षा के पानी का इन्तजार करने लगे।

7. खगड़िया जिले की सरसावा पंचायत के खर्रा टोल के धनराज सादा ने बताया कि आमतौर पर बाढ़ के बाद उनके गाँव के करीब सभी 75 परिवारों के कम से कम दो-तीन लोग बीमार पड़ते थे लेकिन ताज्जुब की बात है कि इस वर्ष बाढ़ की तबाही के बावजूद कोई भी बीमार नहीं हुआ। उन्होंने इसका कारण बाढ़ के बीत जाने के बाद भी वर्षा के संचित पानी को पीना बताया। उन्होंने कहा कि बाढ़ के बाद भी उन्हें इसका लाभ जान पड़ा।

8. सहरसा जिले की एक महिला द्रौपदी देवी ने कहा कि वर्षा जल संचयन पर उन्होंने जो पैसा और समय लगाया, उसके अच्छे नतीजे रहे। उन्होंने कहा कि इसके लिए उन्हें अपने पति को विश्वास दिलाने में काफी समय लगाना पड़ा। लेकिन बाद में वह भी इस बात से खुश थे कि लगाया गया धन बेकार नहीं गया। उन्होंने यह जवाब मेघ पाईन अभियान द्वारा यह पूछने पर दिया कि क्या वह वर्षा जल संचयन को बाढ़ के दिनों सुरक्षित पेयजल पाने की व्यावहारिक और लागत प्रभावी तकनीक मानती हैं।

लोगों की सोच में आए इस बदलाव को दो कारणों से मेघ पाईन अभियान ने महत्त्वपूर्ण माना। एक, यह कि वर्षा जल संचयन को 2006 से पहले लोग पीने का सुरक्षित पानी प्राप्त करने का कोई विकल्प नहीं मानते थे। दूसरे यह कि लोगों में फैला यह भ्रम टूट गया कि संचित किए गए वर्षा जल को पीने से घेघा की बीमारी हो जाती है।

(लेखक मेघ पाईन अभियान से सम्बद्ध हैं)
ई-मेल : graminunatti@gmail.com

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