सन 1908 में हुई एक वैज्ञानिक खोज ने हमारी दुनिया बदल दी है। शायद किसी एक आविष्कार का इतना गहरा असर इतिहास में नहीं होगा। आज हममें से हर किसी के जीवन में इस खोज का असर सीधा दीखता है। इससे मनुष्य इतना खाना उगाने लगा है कि एक शताब्दी में ही चौगुनी बढ़ी आबादी के लिए भी अनाज कम नहीं पड़ा। लेकिन इस आविष्कार ने हिंसा का भी एक ऐसा रास्ता खोला है, जिससे हमारी कोई निजाद नहीं है। दो विश्व युद्धों से लेकर आतंकवादी हमलों तक। जमीन की पैदावार बढ़ाने वाले इस आविष्कार से कई तरह के वार पैदा हुए हैं, चाहे विस्फोटकों के रूप में और चाहे पर्यावरण के विराट प्रदूषण के रूप में।
दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? इसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा उन कारणों को जानने के लिए, जिनसे हरित क्रांति के उर्वरक तैयार हुए थे।
इस साल 17 अप्रैल को एक बड़ा धमाका हुआ था। इसकी गूंज कई दिनों तक दुनिया भर में सुनाई देती रही थी। अमेरिका के टेक्सास राज्य के वेस्ट नामक गांव में हुए इस विस्फोट से फैले दावानल ने 15 लोगों को मारा था और कोई 180 लोग हताहत हुए थे। हादसे तो यहां-वहां होते ही रहते हैं और न जाने कितने लोगों को मारते भी हैं। लेकिन यह धमाका कई दिनों तक खबर में बना रहा। इससे हुए नुकसान के कारण नहीं, जिस जगह यह हुआ था, उस वजह से। धमाका किसी आतंकवादी संगठन के हमले से नहीं हुआ था। उर्वरक बनाने के लिए काम आने वाले रसायनों के एक भंडार में आग लग गई थी। कुछ वैसी ही जैसी कारखानों में यहां-वहां कभी-कभी लग जाती है। दमकल की गाड़ियां पहुंचीं और अग्निशमन दल अपने काम में लग गया। लेकिन उसके बाद जो धमाका हुआ, उसे आसपास रहने वाले लोगों ने किसी एक भूचाल की तरह महसूस किया। अमेरिका के भूगर्भ सर्वेक्षण के उपकरणों पर यह धमाका 2.1 की प्रबलता के भूकंप की तरह दर्ज किया गया था। धुएं से यहां का जीवन कई रोज तक अस्त-व्यस्त रहा। इससे इतनी गर्मी निकली थी कि आसपास के भवन जले हुए ठूंठ से दिखने लगे थे। यह कोई अणुबम नहीं था।इस कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट नाम के रसायन का भंडार था, जिसका उपयोग यूरिया जैसी खाद बनाने के लिए होता है। इस खाद से फसलों की पैदावार में धमाकेदार बढ़ोतरी होती है। उर्वरक के कारखाने में यह पहला धमाका नहीं था। सन् 2009 में टेक्सास राज्य में ही जुलाई 30 को ‘ब्राएन नामक’ नगर में ऐसे ही एक कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट के भंडार में धमाका हुआ था। किसी की जान नहीं गई थी। पर 80,000 से ज्यादा लोगों को निकाल कर पूरा शहर खाली करवाना पड़ा था, जहरीले धुएं से बचने के लिए। सन् 1947 में टेक्सास सिटी में ऐसे ही एक हादसे में 581 लोगों की जानें गई थीं। दमकल विभाग के कर्मचारियों में केवल एक जीवित बचा था। दो छोटे हवाई जहाज उड़ते-उड़ते नीचे गिर पड़े थे। धमाका इतना भयानक था कि उसकी ध्वनि तरंगों से 65 किलोमीटर दूर के घरों के शीशे टूट गए थे। टेक्सास सिटी डिजास्टर के नाम से कुख्यात यह अमेरिका की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना मानी गई थी। इसे आज तक के सबसे शक्तिशाली धमाकों में गिना जाता है।
दुनिया के कई हिस्सों में ऐसे ही हादसे छोटे-बड़े रूप में होते रहे हैं। इनको जोड़ने वाली कड़ी है उर्वरक के कारखाने में अमोनियम नाइट्रेट। आखिर खेती के लिए इस्तेमाल होने वाले इस रसायन में ऐसा क्या है कि इससे इतनी तबाही मच सकती है? इसके लिए थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा उन कारणों को जानने के लिए, जिनसे हरित क्रांति के उर्वरक तैयार हुए थे। यह किस्सा शुरू होता है बीसवीं शताब्दी के साथ।
औद्योगिक क्रांति की वजह से यह समय यूरोप में उथल-पुथल का था। यूरोप के देशों में राष्ट्रवाद एक बीमारी की तरह फैल चला था और पड़ोसी देशों में उन्मादी होड़ पैदा कर रहा था। आबादी बहुत तेजी से बढ़ी थी, जिसका एक कारण यह था कि विज्ञान ने कई विकट बीमारियों के इलाज ढूंढ़ लिए थे। कारखानों में काम करने के लिए लोग गांवों से शहरों में आ रहे थे। इतने लोगों को खिलाने जितनी पैदावार तब यूरोप के खेतों में नहीं थी। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसंधान से यह पता चल चुका था कि हर तरह के पौधों में खास उर्वरक नाइट्रोजन, फॉसफोरस और पोटेशियम होते हैं। यह भी कि इन्हें पाने में सबसे कठिन नाइट्रोजन के उर्वरक होते हैं। नाइट्रोजन की हवा में तो खूब भरमार है, लेकिन किसी के पास ऐसा तरीका नहीं था जो उसे हवा से खींच कर ऐसे रासायनिक रूप में ले आए जो पौधों के काम आसानी से आ जाए। पौधे उसे अपनी खुराक की तरह सोख लें।
19 वीं शताब्दी में यूरोप की गुआनो की जरूरत ही दक्षिण अमेरिका में यूरोपीय रुचि का खास कारण बन गई। इस क्षेत्र पर इन्हीं सब कारणों से यूरोप के लोगों का कब्जा हुआ। इसके बाद गुआनो का खनन और निर्यात बहुत तेजी से हुआ। सन् 1840 के दशक में गुआनो का व्यापार पेरू की सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत बन गया था। विशाल जहाजों में लाद कर इसे यूरोप के खेतों में डालने के लिए लाया जाता था।खेतों में उर्वरता बढ़ाने के लिए, नाइट्रोजन के उर्वरक पाने के लिए यूरोप दुनिया के कोने-कोने खंगाल रहा था। ऐसा एक स्रोत था ‘गुआनो’। यह आता था दक्षिण अमेरिका के पश्चिमी छोर से दूर, प्रशांत महासागर के द्वीपों से। गुआनो असल में चिड़िया की बीट है। इन निर्जन द्वीपों पर न जाने कब से समुद्री चिड़ियाओं का वास था, जो समुद्र से मछली और दूसरे प्राणियों का शिकार करती हैं। अनगिनत इन चिड़ियों की बीट इन द्वीपों पर जम जाती थी और वहां इनके पहाड़ खड़े हो गए थे। बारिश कम होने के कारण ये पहाड़ जैसे के तैसे बने रहे और इनके उर्वरक गुण धुले नहीं थे। कुछ जगह तो बीट के ये पहाड़ 150 फुट से भी ऊंचे थे।
कोई 1,500 साल पहले पेरू में गुआनो का उपयोग खेती में खाद की तरह होता था। इंका साम्राज्य के समय समारोहों में इस गुआनो बीट का स्थान सोने के बराबर था। गुआनो शब्द की व्युतपत्ति ही पेरू के केचूअ समाज के एक शब्द, ‘हुआनो’ से है। एक जर्मन अंवेषक ने सन् 1803 में गुआनो के गुण जाने और फिर उनकी लिखाई से पूरे यूरोप का परिचय चिड़िया की बीट से निकलने वाली इस खाद से हुआ था।
19वीं शताब्दी में यूरोप की गुआनो की जरूरत ही दक्षिण अमेरिका में यूरोपीय रुचि का खास कारण बन गई। इस क्षेत्र पर इन्हीं सब कारणों से यूरोप के लोगों का कब्जा हुआ। इसके बाद गुआनो का खनन और निर्यात बहुत तेजी से हुआ। इस बीट से सैकड़ों बरसों में बने पहाड़ देखते ही देखते कटने लगे। सन् 1840 के दशक में गुआनो का व्यापार पेरू की सरकार की आमदनी का सबसे बड़ा स्रोत बन गया था। विशाल जहाजों में लाद कर इसे यूरोप के खेतों में डालने के लिए लाया जाता था। फिर दुनिया के कई और हिस्सों से इसका निर्यात यूरोप में होने लगा। इसे निकालने के लिए चीन से मजदूर भी लाए गए क्योंकि पेरू के लोग इस काम के लिए ठीक नहीं माने गए। गुआनो पर कब्जा बनाए रखने के लिए युद्ध तक लड़े गए थे।
यह पदार्थ ज्वलनशील होता है, खासकर नाइट्रोजन से मिलने के बाद। गुफाओं में चमगादड़ों की बीट में आग लगने के प्रमाण भी मिलते हैं। गुआनो का उपयोग विस्फोटक बनाने में भी होने लगा था। पेरू और पड़ोसी देश चिली में ही सॉल्टपीटर, यानि पोटेशियम नाइट्रेट नाम के खनिज मिल गए थे। अब गुआनो और सॉल्टपीटर यूरोप के लिए खाद ही नहीं, विस्फोटक बनाने के लिए कच्चे माल का स्रोत भी बन गए थे। दोनों के लिए नाइट्रोजन लगता है, पर युद्ध और खाद के नाइट्रोजन संबंध की बात बाद में।
इन दोनों पदार्थों को जहाज पर लाद कर यूरोप ले जाना बहुत खर्चीला सौदा था। और धीरे-धीरे गुआनो के पहाड़ भी खतम होने लगे थे। चिड़ियां बीट अपने लिए करती थीं, यूरोप के लिए थोड़े ही करती थीं! इसीलिए 19वीं सदी के अंत में यूरोप में होड़ लगी हुई थी खाद और विस्फोटक बनाने के कोई नए सस्ते तरीके खोजने की, नाइट्रोजन के स्रोत की। कई देशों के वैज्ञानिक इस पर शोध कर रहे थे। फिर सन् 1908 में जर्मन रसायनशास्त्री फ्रिट्ज हेबर ने हवा से नाइट्रोजन खींच कर अमोनिया बना कर दिखाया। सन् 1913 तक इस प्रक्रिया को बड़े औद्योगिक स्तर पर करने का तरीका भी खोज लिया गया था। बीएएसएफ नाम के एक जर्मन उद्योग में काम कर रहे कार्ल बॉश ने यह कर दिखाया था। प्रसिद्ध इंजीनियर और गाड़ियों में लगने वाले स्पार्क प्लग के आविष्कारी रॉबर्ट बॉश उनके चाचा थे। कई तरह की मशीनों पर आज भी चाचा बॉश का नाम चलता है। आज यह कंपनी भारत में भी आ गई है। आगे चल कर इस प्रक्रिया को दोनों वैज्ञानिकों के नाम पर ‘हेबर-बॉश प्रॉसेस’ कहा गया।
इस समय यूरोप में राष्ट्रवाद का बोलबाला था जर्मनी और इटली जैसे देश कई छोटी रियासतों के विलय से ताकतवर बन चुके थे। राष्ट्रवाद की धौंस ही सन् 1914 में पहले विश्व युद्ध का कारण बनी थी। इंग्लैंड की नौसेना ने जर्मनी की नाकेबंदी कर ली थी इसलिए जर्मनी को अब गुआनो और सॉल्टपीटर मिलना बंद हो गया था। तब हवा से अमोनिया बनाने वाली हेबर-बॉश पद्धति से न केवल जर्मनी में यह बनावटी खाद बनती रही, युद्ध में इस्तेमाल होने वाला उनका असला और विस्फोटक भी इसी अमोनिया से बनने लगा। ऐसा माना जाता है कि अमोनिया बनाने का यह तरीका अगर जर्मनी के पास न होता तो पहला विश्व युद्ध काफी पहले खत्म हो जाता।
पहली बार युद्ध के दौरान जहरीली गैस का उपयोग 22 अप्रैल सन् 1915 को हुआ था। और इसके निर्देशन के लिए श्री फ्रिट्ज खुद बेलजियम गए थे। वापस लौटने पर इसे लेकर उनकी पत्नी क्लॅरा से उनकी खूब बहस हुई थी। सुश्री क्लॅरा रासायनिक हथियारों को अमानवीय मानती थीं और इसलिए इसे बनाने और दूसरे पक्ष पर इसका उपयोग वे एक अक्षम्य अपराध मानती थीं।युद्ध के बाद वैज्ञानिक श्री फ्रिट्ज और श्री बॉश को उनकी खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया। इसमें कोई विरोधाभास नहीं था क्योंकि जिन अलफ्रेड नोबेल के नाम से यह पुरस्कार दिया जाता है, उन्होंने खुद डाएनामाइट ईजाद किया था और बोफोर्स नाम की कंपनी को इस्पात के कारोबार से हटाकर विस्फोटक के उत्पादन में लगा दिया था। पुरस्कार पाते वक्त श्री फ्रिट्ज ने अपने भाषण में कहा था कि इस आविष्कार के पीछे उनका ध्येय उस नाइट्रोजन को मिट्टी में वापस पहुंचाना है जो फसल के साथ बाहर निकल आती है। लेकिन यह सभी को पता था कि उनका एक ध्येय और भी था। अपने प्रतिक्रियाशील रूप में नाइट्रोजन विस्फोटकों को भी बनाती है। इसका कारण था श्री फ्रिट्ज का राष्ट्रवाद। उन्होंने कहा था कि शांति के समय वैज्ञानिक सभी लोगों के भले के लिए काम करता है पर युद्ध के समय में तो वह केवल अपने देश का होता है!
सन् 1871 में जर्मन भाषा बोलने वाले देशों में सबसे बड़ा क्षेत्र प्रशिया फ्रांस के साथ युद्ध लड़ रहा था। इस युद्ध के दौरान दूसरी जर्मन भाषा बोलने वाले देश भी प्रशिया के झंडे के नीचे एक साम्राज्य के रूप में जुड़ गए थे और इस तरह जर्मन राष्ट्र का उदय हुआ था। इस युद्ध ने यूरोप की राजनीति ही बदल दी थी। इकट्ठे होने से जर्मन राज्यों में राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी। श्री फ्रिट्ज भी इससे अछूते नहीं थे। उनका शोध केवल हवा से नाइट्रोजन खींचने तक सीमित नहीं था। उन्हीं की एक और ईजाद थी युद्ध में इस्तेमाल होने वाली जहरीली गैस। उनका कहना था कि वे ऐसा हथियार ईजाद करना चाहते थे जो उनके देश को जल्दी से जीत दिला सके।
ऐसा ही एक हथियार था क्लोरीन गैस। इसका इस्तेमाल करके श्री फ्रिट्ज ने रासायनिक युद्ध की शुरूआत की थी। उन्हें आज भी रासायनिक हथियारों के जनक की तरह याद किया जाता है। पहली बार युद्ध के दौरान जहरीली गैस का उपयोग 22 अप्रैल सन् 1915 को हुआ था । और इसके निर्देशन के लिए श्री फ्रिट्ज खुद बेलजियम गए थे। वापस लौटने पर इसे लेकर उनकी पत्नी क्लॅरा से उनकी खूब बहस हुई थी। सुश्री क्लॅरा रासायनिक हथियारों को अमानवीय मानती थीं और इसलिए वे इसे बनाने और दूसरे पक्ष पर इसका उपयोग एक अक्षम्य अपराध मानती थीं। इस घटना के दस दिन बाद ही सुश्री क्लॅरा ने अपने पति की पिस्तौल को अपने पर चलाकर आत्महत्या कर ली थी और अपने 13 साल के बेटे हरमॅन की गोदी में प्राण त्याग दिए थे। लेकिन श्री फ्रिट्ज अगले ही दिन रासायनिक हथियारों को रूस की सेना पर इस्तेमाल करवाने के लिए लड़ाई के मोर्चे पर चले गए थे!
सन् 1918 में जर्मनी की हार हो गई। विश्वयुद्ध खत्म हुआ। लेकिन अब अमोनिया बनाने के कई कारखाने यूरोप और अमेरिका में खुल चुके थे। यूरोप का माहौल राष्ट्रवादी ही बना रहा और फिर बीस साल में दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया। हेबर-बॉश पद्धति को अब तक हर कहीं अपना लिया गया था और विस्फोटक बनाने के लिए ढेर सारा अमोनिया हर देश के हाथ लग गया था। दूसरा विश्व युद्ध भी समाप्त हुआ। लेकिन इन कारखानों को बंद नहीं किया गया। यह तो सबको पता था कि अमोनिया से बनावटी उर्वरक भी बनाए जा सकते हैं। इन कारखानों को यूरिया की खाद बनाने में लगा दिया गया।
इसी दौरान गेहूं की ऐसी फसलें भी ईजाद हुईं जो इस यूरिया को मिट्टी से उठाने में सक्षम थीं। ये फसलें बहुत तेजी से बढ़ती थीं और इनमें अनाज की पैदावार बहुत ज्यादा थी। इन फसलों और यूरिया के संयोग से ही हरित क्रांति हुई और खेती में उत्पादन इतना बढ़ गया जितना पहले कभी नहीं बढ़ पाया था। इन फसलों को ईजाद करने वाले कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बोरलॉग को भी फ्रिट्ज की ही तरह नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
एक मोटा अंदाज बताता है कि हेबर-बॉश पद्धति से जिस जमीन से कोई 20 लोगों का अनाज पैदा होता था, उतनी ही जमीन आज 40 लोगों का अनाज पैदा करती है। एक विख्यात वैज्ञानिक का अनुमान है कि दुनिया की कुल आबादी का 40 फीसदी आज इसी पद्धति से उगा कर खाना खाता है। इतने भोजन के होने से और जानलेवा बीमारियों के इलाजों की खोज होने से मनुष्य को इतनी शक्ति मिली जितनी उसे पहले कभी नहीं मिली थी। 20वीं शताब्दी में मनुष्य की आबादी चौगुनी बढ़ गई। बी.ए.एस.एफ. नाम की जिस कंपनी के लिए श्री कार्लबॉश काम करते थे, वह आज दुनिया की सबसे बड़ी रसायन बनाने वाली कंपनी मानी जाती है।
श्री फ्रिट्ज की इस खोज ने दुनिया बदल दी है। कारखानों में पैदा होने वाले यूरिया के असर को कई वैज्ञानिक बीसवीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण आविष्कार मानते हैं। हवा से नाइट्रोजन खींचने के लिए बहुत तेज तापमान और दबाव में पानी से हाइड्रोजन निकाला जाता था। इतना दबाव और गर्मी बनाने के लिए बहुत सी ऊर्जा खर्च होती थी। आज इस पद्धति को और कारगर बनाया गया है और अब पानी की जगह प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल होता है।
इस तरह उर्वरता बढ़ाने वाली खाद ने अनाज का उत्पादन तो बढ़ाया ही लेकिन साथ ही उसने एक और हिंसक रूप भी धारण किया था। हिंसा की जमीन भी उसने पहले से कुछ ज्यादा उर्वरक बना दी है।लेकिन आज नाइट्रोजन का जिक्र पैदावार के संदर्भ में कम और प्रदूषण के कारण ज्यादा होता है। हमारे देश में ही सस्ते यूरिया के ताबड़तोड़ इस्तेमाल से जमीन के रेतीले और तेजाबी होने का खतरा बढ़ता जा रहा है। किसानों को सस्ते बनावटी उर्वरकों का इतना नशा हो चुका है कि जमीन बिगड़ती दिख रही हो फिर भी वे यूरिया डालते ही जाते हैं। यूरिया से लंबे हुए पौधों पर फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े ज्यादा आते हैं। इसलिए उन पर कीटनाशकों का छिड़काव भी उतना ही ज्यादा किया जाता है।
इस तरह हम आज नाइट्रोजन की भरमार के युग में रह रहे हैं। विज्ञान हमें बता रहा है कि नाइट्रोजन के प्राकृतिक चक्र में मनुष्य ने इतना बदलाव ला दिया है कि यह कार्बन के उस चक्र से भी ज्यादा बिगड़ गया है, जिसकी वजह से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। जमीन पर छिड़के नाइट्रोजन के यूरिया जैसे उर्वरकों का अधिकांश हिस्सा पौधों में नहीं जाता। आज हेबर-बॉश पद्धति से बने उर्वरक का खेती में इस्तेमाल 10 करोड़ टन है। इसमें से लोगों के भोजन में केवल 1.7 करोड़ टन वापस आता है। बाकी भाग पर्यावरण को दूषित करता है।
यह पानी के साथ बह कर जल स्रोतों में पहुंचता है, जहां इसकी मौजूदगी जहरीली काई का रूप लेती है। यह पानी से प्राणवायु खींच लेती है और नीचे के समस्त जीवन का दम घुटता है। ऐसे ही बर्बाद होने वाले नाइट्रोजन का एक अंश प्रतिक्रियाशील होकर वातावरण में जाता है और जलवायु परिवर्तन करता है।
लेकिन हेबर-बॉश पद्धति का एक और असर है। अमोनिया के कारखाने बनाने में हर देश के सैनिक का ध्येय भी होता है। युद्ध के समय यही कारखाने विस्फोटक और हथियार बनाने के काम आ सकते हैं। हेबर-बॉश पद्धति ईजाद हुए अब 100 साल हो गए हैं। एक वैज्ञानिक अनुमान से कहता है कि इस शताब्दी में विस्फोटक बनाने का आधार भी हेबर-बॉश पद्धति ही रही है। वे मानते हैं कि इस पद्धति से बने असले ने दुनिया भर के सशस्त्र संघर्षों में सीधे-सीधे कोई 15 करोड़ लोगों की जानें ली हैं।
इस पद्धति के जितने नाटकीय असर दुनिया पर रहे हैं, उनसे श्री फ्रिट्ज भी बच नहीं पाए। उन्हें नोबेल पुरस्कार जैसे सम्मान मिले, उन्होंने फिर से शादी की, पर वे खुश नहीं रह पाए। इस दौरान जर्मन राष्ट्रवाद ने एडॉल्फ हिटलर की नाजी पार्टी का रूप ले लिया था। नाजी शासन की रासायनिक हथियारों में बहुत रुचि थी। उसने श्री फ्रिट्ज के सामने और अधिक शोध के लिए धन और सुविधाओं का प्रस्ताव रखा। पर इस दौरान नाजी पार्टी की यहूदियों के प्रति नफरत उजागर हो चुकी थी। कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक जर्मनी छोड़कर इंग्लैंड और अमेरिका जा रहे थे। श्री फ्रिट्ज ने ईसाई धर्म कबूल कर लिया था, लेकिन सब जानते थे कि वे यहूदी थे। सन् 1933 में वे जर्मनी छोड़कर इंग्लैंड में केम्ब्रिज आ गए। वहां से वे यहूदियों को दी गई जमीन पर रहने के लिए फिलिस्तीन की ओर निकल पड़े थे। रास्ते में ही स्विट्जरलैंड में उनका निधन हो गया।
उनकी मृत्यु के बाद उनका परिवार भी जर्मनी छोड़कर भागा। उनकी दूसरी पत्नी और दो बच्चे इंग्लैंड आ गए थे। उनका बड़ा बेटा हरमॅन अमेरिका चला गया। सन् 1946 में उसने भी खुदकुशी कर ली। अपनी मां की ही तरह हरमॅन को भी श्री फ्रिट्ज के रासायनिक हथियार बनाने की शर्मिंदगी थी। रासायनिक हथियारों पर श्री फ्रिट्ज के शोध को नाजी सरकार ने बहुत आगे बढ़ाया। उसी से जाएक्लॉन-बी नाम की गैस बनी, जिसका इस्तेमाल बाद में नजरबंदी शिविरों में यहूदियों को मारने के लिए होता था। ऐसा कहा जाता है कि श्री फ्रिट्ज के परिवार, समाज के कई लोग इन शिविरों में इसी गैस से मारे गए थे।
इस तरह उर्वरता बढ़ाने वाली खाद ने अनाज का उत्पादन तो बढ़ाया ही लेकिन साथ ही उसने एक और हिंसक रूप भी धारण किया था। हिंसा की जमीन भी उसने पहले से कुछ ज्यादा उर्वरक बना दी है।
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लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में ‘जल, थल और मल’ विषय पर शोध कर रहे हैं।
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