उर्वरकों का सन्तुलित प्रयोग करना जरूरी

उर्वरकों के सन्तुलित प्रयोग-उपभोग में वृद्धि तथा दक्ष उपयोग क्षमता को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है कि दीर्घकालीन कार्ययोजना तैयार की जाए। राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि यदि मृदा से पोषक तत्वों के शोषण को कम नहीं किया गया तो भविष्य में खाद्यान्न प्राप्ति की समस्या खड़ी हो सकती है। सन्तुलित उर्वरक उपयोग सन 2025 तक 1.25 बिलियन आबादी की खाद्यान्न सम्बन्धी आवश्यकताओं की कुँजी है। संसार में कोई भी देश बिना उर्वरक उपयोग बढ़ाए कृषि उत्पादकता नहीं बढ़ा सकता।

भारत की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए यह अनुमान लगाया गया है कि सन 2025 तक देश की आबादी 140 करोड़ होगी जिसके लिए लगभग 301 मिलियन टन सालाना खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। ‘बर्ड वाच इंस्टीट्यूट’ के लेस्टर ब्राउन एवं कीनी के अनुसार यदि जनसंख्या एवं कृषि उपज वृद्धि इसी प्रकार रही तो भारत को सन 2025 तक 45 मिलियन टन खाद्यान्न आयात करने की आवश्यकता पड़ सकती है। बढ़ती आबादी के कारण प्रति व्यक्ति कृषि योग्य भूमि की उपलब्धता भी वर्तमान में 0.15 हेक्टेयर से घटकर 0.10 हेक्टेयर रह जाएगी। इसके अलावा तेजी से बढ़ते शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं अन्य आवश्यकताओं के मद्देनजर कृषि-योग्य भूमि की उपलब्धता और भी कम होगी। इन सब बातों के बावजूद कृषि योग्य भूमि की जो गुणवत्ता होगी वह भी खराब होगी। पोषणमान के अनुसार प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन 300 कि.ग्रा. प्रतिवर्ष होना चाहिए। इस हिसाब से 1995-96 में भारत की 94 करोड़ आबादी के लिए खाद्यान्न का उत्पादन 280 मिलियन टन होना चाहिए था जबकि वास्तव में 185 मिलियन टन खाद्यान्न का ही उत्पादन हुआ। हमारी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता भी सन 1994-95 में 210 कि.ग्रा. से घटकर 1995-96 में 198 कि.ग्रा. प्रति व्यक्ति रह गई है। वर्तमान में हमारी जनसंख्या 1.9 प्रतिशत प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ रही है। इसका मतलब यह हुआ कि प्रतिवर्ष हमारी आबादी में 1.8 करोड़ व्यक्ति जुड़ रहे हैं। इस प्रकार हमारी आवश्यकता को देखते हुए हमारा खाद्यान्न उत्पादन 5.4 प्रतिशत प्रति वर्ष के हिसाब से अवश्य बढ़ना चाहिए।

एफ.ए.ओ. एवं इफको द्वारा नवम्बर 1997 में नई दिल्ली में आयोजित समन्वित पादप पोषण प्रबन्ध पर बोलते हुए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डाॅ. आर.एस. परोधा ने कहा था कि पोषक तत्वों के असन्तुलित प्रयोग से भारतीय मृदाओं में पोषक तत्वों की कमी आ रही है। सन 2020-25 तक हमें लगभग 45 मिलियन टन पोषक तत्वों की आवश्यकता होगी जिसमें से 35 मिलियन टन उर्वरकों द्वारा तथा शेष 10 मिलियन टन विभिन्न जैविक स्रोतों द्वारा प्राप्त होगा। नब्बे के दशक से पौधों के पोषक तत्वों का असन्तुलित प्रयोग अधिक बढ़ा है। नाइट्रोजन तत्व का उपयोग 1991-92 में 8.05 मिलियन टन से बढ़कर सन 1996-97 में 10.31 मिलियन टन हो गया जबकि इसी दौरान फास्फेट का उपयोग 3.32 मिलियन टन से घटकर 2.99 मिलियन टन रह गया तथा पोटाश का भी उपयोग 1.36 मिलियन टन से घटकर 1.05 मिलियन टन रह गया। इसकी वजह से नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश के उपयोग का अनुपात सन 1991-92 में 5.9: 2.4:1 से बिगड़कर 1996-97 में 9.9:2.9:1 हो गया। नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1 होना चाहिए। इसका असर खाद्यान्न उत्पादन पर भी पड़ा और खाद्यान्न उत्पादन सन 1994-95 के 191 मिलियन टन से घटकर सन 1995-96 में 185 मिलियन टन रह गया। अकेले गेहूँ के उत्पादन में 3 मिलियन टन की कमी आई।

राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी के वैज्ञानिकों ने आगाह किया है कि यदि मृदा से पोषक तत्वों के वार्षिक शोषण को कम नहीं किया गया तो भविष्य में खाद्यान्न प्राप्ति की समस्या खड़ी हो सकती है। सन्तुलित उर्वरक उपयोग सन 2025 तक 1.25 बिलियन आबादी की खाद्यान सम्बन्धी आवश्यकताओं की कुँजी है। संसार में कोई भी देश ऐसा नहीं है जो बिना उर्वरक उपयोग बढ़ाए कृषि उत्पादकता बढ़ा सके। भारत में हरित क्रान्ति के बगैर उर्वरक उपयोग बढ़ाना सम्भव नहीं था। उर्वरक उपयोग की वजह से ही अधिक उपज देने वाली प्रजातियों की क्षमता का पूर्ण दोहन किया जा सका। भारत में फसलों द्वारा पोषक तत्वों का शोषण और बाह्य स्रोतों द्वारा की गई आपूर्ति में लगभग 10 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश का अन्तर बढ़ता गया तो लगातार उत्पादकता को प्राप्त करना एक कठिन कार्य होगा। पूरे संसार में 50 से 60 प्रतिशत फसलोत्पादन में वृद्धि केवल उर्वरकों के प्रयोग से होती है।

नौवीं पंचवर्षीय योजना 1997-2002 के वर्किंग ग्रुप ऑन फर्टिलाइजर के अनुसार इस योजना के अन्त तक 134 लाख टन नाइट्रोजन 46.7 लाख टन फास्फेट एवं 18.3 लाख टन पोटाश की आवश्यकता होगी। उपर्युक्त अनुमान 220 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया गया है। कार्यदल ने नाइट्रोजन, फास्फोरस एवं पोटाश की मांग की पूर्ति के लिए कई सुझाव दिए हैं जिनमें प्रथम एवं मुख्य सुझाव यह है कि उर्वरकों की असन्तुलित कीमतों को ठीक किया जाए जिसकी वजह से ही असन्तुलित उर्वरक प्रयोग को बढ़ावा मिला है और मृदा से लगातार फास्फेट एवं पोटाश के भण्डारों का दोहन हो रहा है। असन्तुलित उर्वरकों के बढ़ते प्रयोग के कारण अब बहुत से क्षेत्रों की उत्पादकता में गिरावट आ रही है।

जिस प्रकार हमें विभिन्न खाद्य पदार्थों जैसे प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन आदि की आवश्यकता होती है ठीक उसी प्रकार पौधों की वृद्धि एवं विकास के लिए कुछ निश्चित तत्वों की आवश्यकता होती है। यह ‘पोषक तत्व’ कहलाते हैं। पौधों को सोलह आवश्यक पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है जैसे- कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नेशियम, गन्धक, लोहा, मैग्नीज, ताम्बा, जस्ता, बोरोन, मोलिब्डेनम तथा क्लोरीन। इनमें से कुछ जैसे कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम, तथा गन्धक की पौधों को अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है अतः इन्हें ‘मुख्य पोषक तत्व’ कहते हैं। जस्ता, लोहा, मैग्नीज, ताम्बा, बोरोन, मोलिब्डेनम तथा क्लोरीन की पौधों को कम मात्रा में आवश्यकता है अतः इन्हें सूक्ष्म पोषक तत्वों के नाम से जाना जाता है।

पौधे कार्बन, हाईड्रोजन तथा ऑक्सीजन हवा तथा पानी द्वारा प्राप्त करते हैं जबकि शेष 13 पोषक तत्व मिट्टी, जैविक तथा कार्बनिक खादों तथा उर्वरकों द्वारा प्राप्त करते हैं। हमारी मृदा हजारों सालों से ये पोषक तत्व पौधों को प्रदान कर रही है। लेकिन अब पौधों द्वारा पोषक तत्वों का लगातार शोषण एवं इनकी आपूर्ति में कमी होने से मृदाओं में इन तत्वों की कमी हो गई है। ईंधन एवं चारे के रूप में प्रयोग होने की वजह से कार्बनिक खादों की उपलब्धता भी एक समस्या है। इसके अलावा कार्बनिक खादों में पोषक तत्व भी काफी कम मात्रा में पाए जाते हैं। अतः यह अधिक उपज देने वाली फसलों की मांग की पूर्ति में सक्षम नहीं है। परिणामतः उर्वरकों द्वारा पोषक तत्वों की पूर्ति अत्यन्त आवश्यक है।

हमारी मृदाओं में नाइट्रोजन की सर्वत्र कमी है तथा फास्फोरस एवं पोटाश की उपलब्धता निम्न से मध्यम श्रेणी की है। आजकल विभिन्न फसलों में गन्धक, जस्ता तथा लोहे की कमी देखने को मिल रही है। फसलोत्पादन बढ़ाने एवं गुणवत्ता बनाए रखने में प्रत्येक पोषक तत्व का सन्तुलित प्रयोग पौधों की पोषक तत्व सम्बन्धी कमी को दूर करता है। उर्वरक उपयोग क्षमता कई बातों जैसे- जलवायु, मृदा, फसल आदि पर निर्भर करती है। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है कि रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ कार्बनिक कम्पोस्ट, जैव उर्वरक तथा हरी खाद का भी समन्वित प्रयोग किया जाए क्योंकि ये सब मृदाओं की कार्बनिक कार्बन की मात्रा में बढ़ोत्तरी करते हैं। वैज्ञानिकों का मत है कि पंजाब एवं हरियाणा में रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग के बावजूद उत्पादकता घट रही है क्योंकि वहाँ मिट्टियों में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा काफी कम है।

भारत में सन 1996-97 में 14.34 मिलियन टन पोषक तत्वों का प्रयोग रासायनिक उर्वरकों के रूप में किया गया। कार्बनिक स्रोतों द्वारा इस मात्रा की भरपाई करना एक कठिन कार्य है क्योंकि कार्बनिक खादें न तो उपलब्ध हैं और न ही पैदा की जा सकती हैं। अतः कार्बनिक खादों द्वारा केवल आंशिक पूर्ति सम्भव है। परन्तु लगातार कृषि उत्पादन में उनकी महत्ता को भी कम करके नहीं आँका जा सकता। देश के विभिन्न कृषि पारिस्थितिकी क्षेत्रों में उर्वरक उपयोग में बड़ी असमानता है। जहाँ पंजाब में 167.3 किग्रा./हे. उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है वहीं असम में यह मात्रा केवल 12.3 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर है। देश के उर्वरक उपयोग का राष्ट्रीय औसत 75 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर भी अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। नीदरलैंड में 544, जापान में 403, चीन में 309 तथा ब्राजील में 93 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर औसत उर्वरक उपयोग होता है। अतः वैज्ञानिकों का मानना है कि शीघ्र ही राष्ट्रीय उर्वरक नीति बनाई जानी चाहिए।

तिलहन, दलहन तथा अधिक उपज देने वाली फसलों में गन्धक का प्रयोग अति आवश्यक हो गया है। वर्तमान में गन्धक की मांग और पूर्ति में 0.5 मिलियन टन की कमी है और ऐसी सम्भावना है कि सन 2025 तक इसकी कमी 2 मिलियन टन तक हो जाएगी। फसलोत्पादन में गन्धक की कमी शीघ्रता से बढ़ रही है और ऐसा लगता है कि भविष्य में यह उपज में गिरावट का एक मुख्य कारक होगा। वैज्ञानिकों का मत है कि उर्वरकों में गन्धक का समावेश किया जाए उर्वरक तथा शर्करा उद्योग से निकले उत्पादों जैसे फास्फोजिप्सम तथा प्रेसमड के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए।

सघन फसलोत्पादन की वजह से पिछले कुछ वर्षों से मिट्टी में सूक्ष्मपोषक तत्वों की कमी भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। देखा गया है कि 47 प्रतिशत मृदाओं में जस्ता, 4.8 प्रतिशत मृदाओं में ताम्बा, 11.5 प्रतिशत मृदाओं में लोहा तथा 4 प्रतिशत मृदाओं में मैंग्नीज की कमी है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सन 2025 तक 324 हजार टन जस्ता, 130 टन लोहा, 11 हजार टन ताम्बा, 22 हजार टन मैंग्नीज तथा 3.9 हजार टन बोरोन नामक सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होगी।

क्षारीय भूमियों के लिए जिप्सम तथा अम्लीय मृदाओं के लिए चूना आवश्यक भूमि सुधारक है। इन भूमि सुधारकों की समय पर उपलब्धता होनी चाहिए तथा इसकी परिवहन सुविधा में सुधार होना चाहिए। सरकार द्वारा किसानों को इन भूमि सुधारकों का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना भी आवश्यक है। मृदा परीक्षण प्रयोगशालाओं को आधुनिक बनाने की दिशा में कदम उठाया जाए एवं उनके द्वारा प्रदत्त सेवा की गुणवत्ता में भी सुधार किया जाए।

देश के अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों जैसे असम, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु तथा पूर्वोत्तर प्रदेश में सिंचिंत गन्ने, धान तथा आलू वाले क्षेत्रों में हरी खाद पर विशेष बल देना है। हरी खाद के प्रयोग से 40-60 कि.ग्रा./हेक्टेयर तक नाइट्रोजन की बचत की जा सकती है। इसके अलावा वायुमण्डल से नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने वाले जीवाणुओं जैसे राइजोबियम, नील हरित शैवाल, एजोस्पाइरीलम, एजीटोबैक्टर आदि द्वारा 20-40 कि.ग्रा./हेक्टेयर नाइट्रोजन की बचत की जा सकती है। सामान्यतः एजोस्पाइरीलम अनाज वाली फसलों तथा एजीटोबैक्टर बगैर अनाज वाली फसलों जैसे गन्ना, आलू, कपास तथा सब्जियों के लिए उपयुक्त है। जलमग्न धान के खेतों में अजोला द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण किया जा सकता है। जैव-उर्वरकों से लगातार अच्छा परिणाम लेने के लिए यह आवश्यक है कि उनका प्रयोग ऐसे क्षेत्रों में किया जाए जहाँ की कृषि जलवायु जैव-उर्वरकों के अच्छे परिणाम देने के लिए अनुकूल हो।

उर्वरकों के सन्तुलित प्रयोग, उपभोग में वृद्धि तथा दक्ष उपयोग क्षमता को बढ़ावा देने के लिए यह आवश्यक है कि दीर्घकालीन कार्ययोजना तैयार की जाए। मृदा में आन्तरिक तथा बाह्य स्रोतों से लगातार पोषक तत्वों को प्रदान करने के लिए अच्छी कार्ययोजना एवं नीतियाँ अपनाई जाएँ। लम्बे समय से लगातार असन्तुलित उर्वरक प्रयोग से मृदा में होने वाले नुकसान के बारे में भी ख्याल रखना चाहिए। उर्वरकों के सन्तुलित एवं समन्वित प्रयोग से मृदा स्वास्थ्य में कोई खराबी होने एवं भूमिगत जल के प्रदूषित होने के कोई प्रमाण नहीं हैं। अतः भविष्य में बढ़ती आबादी के लिए खाद्यान्न उत्पादन में उर्वरकों का सन्तुलित एवं समन्वित प्रयोग जरूरी है।

(लेखक भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल में वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं)

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