उर्वरकों का दीर्घकालीन प्रभाव एवं वैज्ञानिक अनुशंसायें

ईख (गन्ने) की खेती
ईख (गन्ने) की खेती


ईख (गन्ने) की खेती भारत सरकार के भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा किसानों के लिये कई उपयोगी योजनाएँ चलाई जा रही है। इस कड़ी में झारखंड राज्य के अंतर्गत उर्वरक शोध परियोजना 1972-73 से सोयाबीन एवं गेहूँ फसल-चक्र पर चलाई जा रही है।

झारखण्ड में छोटानागपुर एवं संथाल परगाना के ऊपरी भूमि की लाल एवं पीली मिट्टियों में आवश्यक भास्मिक तत्व जैसे-कैल्शियम एवं मैग्नेशियम काफी कम मात्रा में उपस्थित रहते हैं। अम्लियता के कारण सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे-लोहा, ताँबा, जस्ता, मैंगनीज का सान्द्रण बढ़ जाता है जो पौधों की वृद्धि के लिये हानिकारक होता है एवं साथ ही साथ इससे बोरॉन एवं मोलिब्डीनम की उपलब्धता घट जाती है। अल्यूमीनियम एवं लौह-तत्व का सांद्रण बढ़ जाने के फलस्वरूप फास्फेट या स्फूर की उपलब्धता घट जाती है। नत्रजन, स्फूर एवं पोटाश मिट्टी में रहने पर भी उपलब्ध नहीं हो पाता। मिट्टियों में जैविक पदार्थ एवं कैल्शियम की कमी के कारण मिट्टी की जलधारण क्षमता काफी कम होती है।

फसलों पर उर्वरकों के दीर्घकालीन प्रयोग का उद्देश्य है कि ऐसी मिट्टियों में उर्वरकों का समुचित प्रबंधन किस तरह किया जाए ताकि इनके लगातार उपयोग से उपज में ह्रास न हो एवं मिट्टी में पोषक तत्वों का स्तर बना रहे। साथ ही साथ पर्यावरण को कोई क्षति न पहुँचे।

पिछले 33 वर्षों से उर्वरक, खाद एवं चूना के लगातार व्यवहार से सोयाबीन एवं गेहूँ फसल पर प्रभाव का अध्ययन करने में पाया गया है कि शत प्रतिशत नत्रजन, स्फूर, पोटाश गोबर खाद के प्रयोग से फसल उत्पादकता को अधिकतम स्तर पर रखा जा सकता है। इससे मृदा उर्वरता एवं भूमि की अम्लियता नियंत्रित रहती है।

प्रयोग में यह भी पाया गया कि उर्वरक एवं खाद विहीन फसलों में पौधों की बढ़त शत-प्रतिशत नत्रजन की अपेक्षा काफी अच्छी है। लगातार नत्रजन के प्रयोग से बीज अंकुरित नहीं हो पाता है और अंकुरण होता भी है तो पौधे मर जाते हैं। नत्रजन मात्र के व्यवहार से भूमि की अम्लियता अत्यंत ही उच्च स्तर पर पहुँच जाती है जिसके फलस्वरूप स्फूर, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नेशियम एवं सल्फर की कमी भूमि में हो जाती है। साथ ही कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व खास कर लोहा, जस्ता, मैंगनीज और ताँबा का सांद्रण स्तर बढ़ जाता है बोरॉन एवं मोलिब्डेनम की कमी हो जाती है।

ध्यान देने योग्य बात है की नत्रजन, स्फूर, पोटाश के व्यवहार से भी उपज में कमी होते चली जा रही है। यह भी पाया गया कि उर्वरकों, खादों की अनुशंसित मात्रा का डेढ़ गुणा लगातार डालने पर भी पौधों के बढ़ोतरी में कोई विशेष असर नहीं पड़ता है और उपज में भी कोई वृद्धि नहीं होती है।

इस आधार पर कहा जा रहा है कि किसानों को खेतों में कभी भी अनुशंसित मात्रा से अधिक उर्वरक नहीं डालना चाहिए। क्योंकि इससे कोई अधिक लाभ नहीं मिलने वाला है। अतः संतुलित उर्वरक के साथ-साथ चूना अथवा गोबर खाद डालना आम्लिक मिटि्टयों में अत्यंत ही आवश्यक है।

पौधों के वृद्धि को उर्वरक, चूना, अथवा गोबर खाद दोनों की तुलना करने पर फसल वृद्धि लगभग बराबर पाई गई जो शत-प्रतिशत नत्रजन, स्फूर एवं पोटाश से अधिक है। चूना मिट्टी की अम्लियता को घटाता है एवं स्फूर तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता को सामान्य बनाए रखने के साथ-साथ मिट्टी की संरचना भी बनाए रखने में मदद करता है।

नत्रजन, स्फूर,पोटाश के साथ चूना डालने से उर्वरकों की क्षमता बढ़ जाती है। गोबर खाद थोड़े मात्रा में सभी पोषक तत्व पौधों को प्रदान करता है। यह सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता को सामान्य बनाए रखने के साथ-साथ मिट्टी की संरचना को भी सही बनाए रखने में मदद करता है नत्रजन के रूप में अमोनियम सल्फेट के प्रयोग से पौधों की बढ़त बिल्कुल ही कम पाई गई है। अतः किसानों को झारखंड की ऊपरी आम्लिक मिट्टियों में अमोनियम सल्फेट का व्यवहार नहीं करना चाहिए।

स्थाई खाद एवं उर्वरक उपयोग संबंधी प्रयोग में 1956 से सिर्फ गोबर की खाद को लगभग 40 टन प्रति हेक्टेयर प्रतिवर्ष की दर से डाला जा रहा है। जिसमें उत्पादकता का स्तर काफी अच्छा पाया गया है, परन्तु सभी खेतों में इतना गोबर खाद प्रति हेक्टेयर की दर से प्रति वर्ष डालना असंभव सा जान पड़ता है इस परिप्रेक्ष्य में उत्पादकता बढ़ाने के लिये समेकित पोषक तत्व प्रबंधन की ओर जाने की सलाह दी जाती है। जहाँ संतुलित उर्वरकों के साथ गोबर की खाद का उपयोग किया जाता है और यदि दलहनी फसल जैसे-सोयाबीन इत्यादि ले रहे हैं तो राइजोबियम कल्चर और खाद्यान वाली फसल जैसे-गेहूँ, मकई में अजोटोबेक्टर कल्चर का प्रयोग कर अच्छी उपज पाई जा सकती है।

निष्कर्षः
- फसलों के उत्पादन को बढ़ाने में उर्वरकों का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण योगदान है, परन्तु उर्वरक के उपयोग का पूरा लाभ तभी मिल सकता है जब मिट्टी जाँच के आधार पर संतुलित उर्वरक के प्रयोग पर ध्यान दिया जाए। नत्रजन या नाइट्रोजन धारी उर्वरकों के असंतुलित व्यवहार से पैदावार एवं मिट्टी के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

- अनुशंसित मात्रा की आधी मात्रा डालने से फसलों का उत्पादन काफी कम होता है।

- अनुशंसित उर्वरकों को मात्रा से अधिक डालने पर उत्पादकता में वृद्धि नहीं होती साथ ही साथ यह लाभकारी नहीं होता है।

- झारखण्ड की आम्लिक मिट्टीयों के अम्लियता के निराकरण के लिये चूने का व्यवहार आवश्यक हैं। चूने के प्रयोग के पश्चात ही संतुलित उर्वरक का व्यवहार लाभकारी होता है।

- जैविक खाद या कम्पोस्ट के साथ-साथ संतुलित उर्वरकों के प्रयोग करने पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे मिट्टी की उर्वरता बनी रहे एवं वर्षों तक अच्छी उपज प्राप्त की जा सके।

किसानों के लिये सुझाव
- उर्वरकों के अनुशंसित मात्रा का ही व्यवहार करना चाहिए।
- यह अत्यन्त आवश्यक है कि फसल बोने के पूर्व ही उर्वरकों की दी जाने वाली मात्रा का निर्धारण मिट्टी परीक्षण मिट्टी जाँच के आधार पर कर ली जाए।
- मिट्टी का स्वास्थ्य फसलों की उत्पादकता को टिकाऊ बनाए रखने में अहम भूमिका अदा करता है।
- प्रमुख तत्वों के अलावे गौण एवं सूक्ष्म तत्व जैसे- सल्फर, बोरॉन, मोलिब्डेनम एवं जस्ता इत्यादि के उपलब्धता का निर्धारण समय-समय पर करवाना आवश्यक है, जिससे इनके अभाव से उत्पादकता पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को रोका जा सके।

तालिका-1 उर्वरक, खाद एवं चूना के दीर्घकालीन व्यवहार से सोयाबीन एवं गेहूँ के उपज

व्यवहार

सोयाबीन

गेहूँ

उपज क्वि./हे.

परिवर्तन प्रतिशत

अखंड उपज सूचकांक

उपज क्वि./हे.

परिवर्तन प्रतिशत

अखंड उपज सूचकांक

  1. उर्वरक के बिना

6.170

-87

0.213

6.65

-87

0.213

2. शत-प्रतिशत नत्रजन

2.959

-96

0.009

3.40

-96

0.009

3. शत-प्रतिशत नत्रजन, स्फूर

8.609

-87

0.196

24.40

-87

0.196

4. शत-प्रतिशत नत्रजन, स्फूर, पोटाश

14.964

-

0.475

28.10

-

0.475

5. शत-प्रतिशत नत्रजन, स्फूर, पोटाश, चूना

17.656

+10.0

0.589

32.10

+10.0

0.589

6. शत-प्रतिशत नत्रजन, स्फूर, पोटाश, गोबर की खाद

18.319

+18.3

0.603

33.70

+18.3

0.603

 


उर्वरकों का मृदा उर्वरता एवं अम्लियता पर प्रभावउर्वरकों का मृदा उर्वरता एवं अम्लियता पर प्रभाव

 

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