उर्वरक नीति से बर्बाद होते किसान

गौर करने वाली बात यह है कि देश की कुल उर्वरक खपत में यूरिया का हिस्सा 2.7 करोड़ टन है यानी इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में आधे से ज्यादा यूरिया है। यूरिया से इस अत्यधिक मोह के कारण मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों मसलन जिंक, जिप्सम, कॉपर सल्फेट व कैल्शियम की भारी कमी हो गई है। यूरिया की अधिकता से कार्बनिक तत्वों की कमी हो गई है जिससे मिट्टी कड़ी होकर तेजी से अनुपजाऊ मिट्टी में तब्दील होती जा रही है। गंगा के मैदानी इलाकों समेत अधिकांश जगह उत्पादन स्थिर या नकारात्मक हो गया है। रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते दखल से कृषि की लागत में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है, लिहाजा छोटे किसान खेती छोड़ रहे हैं।

गांधीजी ने एक बार अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान तमिलनाडु में एक किसान से पूछा कि आपका राजा कौन है? किसान ने आसमान की तरफ इशारा करते हुए कहा कि चाहे कोई भी हो, लेकिन सबसे बड़ा राजा तो ऊपरवाला ही है। ऐसा लगता है कि वर्षों से गांधीजी के नाम पर देश चला रही कांग्रेस ने किसानों को अंतिम राजा के भरोसे ही छोड़ दिया है। लंबे समय से चर्चा चल रही थी कि किसानों को उर्वरकों पर दी जाने वाली सब्सिडी का तरीका बदला जाएगा, मगर अब किसानों को नकद सब्सिडी का सब्जबाग दिखाया जा रहा है। अब कहा जा रहा है कि वित्त वर्ष 2012-13 से पहले किसानों को सीधे पैसा देना मुश्किल है। जाहिर है कि नकद सब्सिडी और कुछ नहीं, बल्कि किसानों को भरमाए रखने के लिए यूपीए सरकार का एक तीर है। देश में हरित क्रांति की शुरुआत के समय कहा गया था कि रासायनिक उर्वरकों के कम इस्तेमाल का कारण उत्पादन कम हो रहा है। तब न तो देश की मिट्टी की गुणवत्ता की जांच की गई और न ही यह जानने की कोशिश की गई कि किस प्रदेश की मिट्टी में कौन से पोषकतत्व की कमी है।

हरित क्रांति की उस आंधी में यह मान लिया गया कि मशीनों और उर्वरकों का ज्यादा से ज्यादा उपयोग ही विकसित खेती की निशानी है। हालांकि हरित क्रांति के बाद खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी हुई, लेकिन अब इसके अगुवा प्रदेशों मसलन हरियाणा, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है। बंजर में तब्दील होते खेतों से निराश किसान मौत को गले लगाते रहे, लेकिन सत्ताधीशों ने कुछ करोड़ रुपये के पैकेज देकर जनता को बरगलाते रहे। समस्या की तह में जाने का प्रयास किसी ने नहीं किया और अब बंजर होती उपजाऊ जमीन के भयंकर आंकड़े सामने आ रहे हैं। भारतीय कृषि शोध संस्थान ने पिछले दिनों विजन 2030 दस्तावेज प्रकाशित किया है, जिसके मुताबिक। खेती लायक देश की कुल 14 करोड़ हेक्टेयर में से 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि की उत्पादकता घट चुकी है। यही नहीं 84 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि जलप्लावन अथवा खारेपन की समस्या से ग्रसित है। तेजी से घट रहे पेड़-पौधे और खनन कार्यों में हो रही बढ़ोतरी ने भी कृषि योग्य भूमि की कब्र खोदने का काम किया है।

वनावरण घटने से मिट्टी में प्राकृतिक खाद की कमी होती जा रही हैं, वहीं बढ़ते खनन से मिट्टी में उपलब्ध तत्वों का अनुपात गड़बड़ा गया है। मिट्टी में किस पोषक तत्व की कमी है यह जाने बिना ही हमारे किसान सस्ते उर्वरकों का नुकसानदायक इस्तेमाल कर रहे हैं। रासायनिक उर्वरकों के असंतुलित उपयोग के कारण ही खेती लायक भूमि बेजान हो चुकी है। रासायनिक उर्वरकों से किसानों के बर्बाद होने की कहानी को यूरिया पर मिलने वाली सब्सिडी के जरिए आसानी से समझा जा सकता है। यूरिया पर सब्सिडी देने की शुरुआत 1977 में की गई थी। यूरिया की कीमतें सरकार तय करती है और उर्वरक कंपनियां सरकारी दर पर ही यूरिया की बिक्री करती हैं। उर्वरक कंपनियों को लागत मूल्य से कम कीमत पर यूरिया बेचने से होने वाले घाटे की भरपाई के लिए सरकार सब्सिडी जारी करती है। उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी के रूप में ज्यादा पैसा मिले इसके लिए जरूरी था कि किसानों को यूरिया के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जाए।

उर्वरक कंपनियों के दबाव में कृषि वैज्ञानिकों और सरकार ने यूरिया के प्रचार-प्रसार में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखा। मिट्टी में कमी चाहे जिंक, फॉस्फेट या किसी दूसरे किसी पोषक तत्व की रही हो, लेकिन किसानों को केवल यूरिया के छिड़काव की ही सलाह दी गई। नतीजन यूरिया पर दी जाने वाली सब्सिडी का बिल साल दर साल बढ़ता गया और इसके साथ ही उर्वरक कंपनियों के थैले भी भरते रहे। इस लूट से किसान रासायनिक उर्वरकों के जाल में फंसते गए। किसानों के कल्याण के नाम पर रचे गए इस ढोंग ने यूरिया के इस्तेमाल को बढ़ावा दिया, नतीजन देश की उपजाऊ मिट्टी में पोषक तत्वों का अनुपात इस कदर बिगड़ गया कि अब उत्पादन दर नकारात्मक हो गई है। विडंबना यह है कि 2004-05 से लेकर अब तक महज पांच सालों में रासायनिक उर्वरकों की खपत में 40 से 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, लेकिन इस दौरान देश में खाद्यान्न उत्पादन केवल दस फीसदी बढ़ा है। आजादी के बाद से ही जैविक उर्वरकों को हाशिये पर डालकर सरकारें रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने में जुटी रहीं।

1950-51 में रासायनिक उर्वरकों की सालाना खपत 70 हजार टन थी वहीं 2010-11 में यह बढक़र साढ़े पांच करोड़ टन हो गई है। गौर करने वाली बात यह है कि देश की कुल उर्वरक खपत में यूरिया का हिस्सा 2.7 करोड़ टन है यानी इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों में आधे से ज्यादा यूरिया है। यूरिया से इस अत्यधिक मोह के कारण मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों मसलन जिंक, जिप्सम, कॉपर सल्फेट व कैल्शियम की भारी कमी हो गई है। यूरिया की अधिकता से कार्बनिक तत्वों की कमी हो गई है जिससे मिट्टी कड़ी होकर तेजी से अनुपजाऊ मिट्टी में तब्दील होती जा रही है। गंगा के मैदानी इलाकों समेत अधिकांश जगह उत्पादन स्थिर या नकारात्मक हो गया है। रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते दखल से कृषि की लागत में भी अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है, लिहाजा छोटे किसान खेती छोड़ रहे हैं। नाइट्रोजन की अधिकता के कारण यूरिया पर्यावरण की दृष्टि से भी खतरनाक है और हमारी आसपास की आबो-हवा को भी तेजी से बिगाड़ रहा है।

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