बांध के निर्माण में पहाड़ी क्षेत्र का विशाल भूभाग जल-मग्न हो जाता है। लाखों पेड़, दुर्लभ वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो जाती हैं। बांधों से अन्य पर्यावरण संबंधी हानियां जैसे दलदल होना, लवणीयता बढ़ना उत्पन्न होती है। बांध के कारण विस्थापित परिवारों के पुनर्वास तथा उनके आजीविका की समस्या पैदा होती है। इन सबके रहते यह सभी स्वीकारते हैं कि जल-ऊर्जा विद्युत उत्पादन के लिए सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन है। बड़े बांधों के निर्माण में अधिक हानि होती है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में विद्युत की आवश्यकता प्रतिवर्ष लगभग 10 प्रतिशत बढ़ जाती है। बढ़ती जनसंख्या तथा स्थापित हो रहे नए-नए उद्योगों ने विद्युत की मांग बढ़ा दी है। अनुमानतः 2 लाख मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन (1 मेगावाट 10x10x10x10x10x10 वाट) का लक्ष्य लेकर अगले 20 वर्षों में विद्युत की संभावित कमी को पूरा किया जा सकता है। इसको ध्यान में रखते हुए लगभग 52 हजार मेगावाट अतिरिक्त विद्युत उत्पादन का लक्ष्य नवीं पंच-वर्षीय योजना में प्रस्तावित था जिसमें लगभग दो लाख इकतालीस हजार करोड़ रुपयों की लागत आने का अनुमान लगाया गया।
चूंकि इतनी बड़ी धनराशि का खर्च भारत सरकार वहन करने में सक्षम नहीं थी इसलिए प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी तलाशने के प्रयास भी किए गए। पूरे देश की दो-तिहाई ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति मुख्यतः व्यावसायिक स्रोतों से होती है, ये हैं पत्थर का कोयला, भूरा कोयला, 60% कार्बन), तेल, प्राकृतिक गैस, जल स्रोत, तथा नाभिकीय ऊर्जा, शेष एक तिहाई मांग अव्यावसायिक स्रोतों जैसे जलाने की लकड़ी, कृषि से प्राप्त कचरा तथा जीव-जंतुओं से प्राप्त कचरे से पूरी होती है।
नवीनीकरण ऊर्जा प्राप्त करने में विगत कुछ वर्षों में गैर-पारंपरिक स्रोतों जैसे वायु, सूर्य तथा भूतापीय को अपनाने का प्रयास किया गया है परंतु इनका कोई विशेष महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं रहा। व्यावसायिक ऊर्जा-स्रोतों में आज भी तेल ही विश्व के सभी ऊर्जा-स्रोतों में सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल कर सका है। संभवतः अगली शताब्दी में सारे तेल-भंडार सूख जाएंगे। तभी तक तेल आपूर्ति होगी तत्पश्चात् अन्य विकल्पों पर निर्भर रहना हमारी मजबूरी हो जाएगी।
तेल विशेषज्ञों के अनुसार विश्व के लगभग 90 प्रतिशत तेल के कुएं खोजे जा चुके हैं तथा निकट भविष्य में नए तेल के कुओं को खोज पाना संभव नहीं है। हाल में किए गए सर्वेक्षण में इस समय विश्व का कुल तेल भंडार लगभग 1020 बिलियन (1 बिलियन=100 करोड़) बचा है जो अनुमानतः अधिक से अधिक अगले 43 वर्षों में समाप्त हो जाएगा। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष 23.6 बिलियन बैरल तेल की विश्व में खपत हो जाती है। कुछ विशेषज्ञों ने स्वीकारा है कि वर्ष 2005 से 2010 के बीच तेल की आपूर्ति खपत की अपेक्षा बहुत कम रहेगी जिससे तेल की कीमत अप्रत्याशित रूप से बढ़ेगी। भारत तेल का आयात करने वाला देश होने के कारण तेल की कमी से बुरी तरह प्रभावित होगा।
पेट्रोलियम उत्पादक देशों में अमेरिका, इंडोनेशिया, रूस, सऊदी अरब, कुवैत, ईराक, ईरान, कनाडा प्रमुख हैं। पेट्रोल, डीजल तथा मिट्टी के तेल का उपयोग मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में शामिल हो चुका है। वाहनों, उद्योगों में, विद्युत-निर्माण में ईंधन के रूप में इनका महत्व बढ़ता जा रहा है। इनके दहन की प्रक्रिया में उत्सर्जित विषाक्त गैसें वायुमंडल को प्रदूषित कर रही हैं।
कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स वायुमंडल में पहुंचकर उसका तापमान बढ़ा रहे हैं। एक हजार लीटर सीसा युक्त पेट्रोल के जलने पर 350 किग्रा. कार्बन मोनोऑक्साइड, 0.6 किग्रा. सल्फर डाइऑक्साइड, 0.1 किग्रा. लैड तथा 1.6 किग्रा. एस.पी.एम. उत्सर्जित होते हैं। लैड की मात्रा 1.5 पी.पी.एम. से अधिक होने पर गुर्दे खराब होने लगते हैं। पूरे विश्व में प्रतिवर्ष ग्रीन-हाउस गैसें जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड प्रमुख है, वायुमंडल के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि कर देती हैं। इसका दुष्परिणाम ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में प्रकट हो रहा है विश्व के बड़े-बड़े ग्लेशियर तीव्र गति से सिकुड़ रहे हैं।
मानव को बाढ़ के रूप में इसका परिणाम भुगतना पड़ रहा है। तेल के धुएं में उपस्थित नाइट्रोजन के ऑक्साइड ओजोन की परत को क्षीण कर रहे हैं। जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचकर कैंसर जैसी बीमारियों को जन्म दे रही हैं। पर्यावरण की दृष्टि से ऊर्जा का यह स्रोत मानव को लाभ पहुंचाने के साथ-साथ हानि भी पहुंचा रहा है।
जल ऊर्जा का एक जाना माना ऊर्जा स्रोत है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में जल-ऊर्जा से 84044 मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता है। इसमें केवल हिमालय के क्षेत्र में ही 75 प्रतिशत ऊर्जा संग्रहित है। वर्ष 1996-97 तक केवल 20900 मेगावाट जल-विद्युत का उत्पादन हो पाया है। भूकंप के कारण हिमालयी क्षेत्र इतना अस्थिर हो चुका है कि वहां निर्मित या निर्माणाधीन बांध खतरे की घंटी साबित हो रहे हैं। यद्यपि जल-ऊर्जा के अनेक लाभ भी हैं। यह स्वच्छ है तथा नवीकरणीय स्रोत है। इसमें कृषि-योग्य भूमि का बहुत बड़ा भाग सिंचित होता है परंतु इसके दुष्प्रभाव भी हैं।
बांध के निर्माण में पहाड़ी क्षेत्र का विशाल भूभाग जल-मग्न हो जाता है। लाखों पेड़, दुर्लभ वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो जाती हैं। बांधों से अन्य पर्यावरण संबंधी हानियां जैसे दलदल होना, लवणीयता बढ़ना उत्पन्न होती है। बांध के कारण विस्थापित परिवारों के पुनर्वास तथा उनके आजीविका की समस्या पैदा होती है। इन सबके रहते यह सभी स्वीकारते हैं कि जल-ऊर्जा विद्युत उत्पादन के लिए सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन है। बड़े बांधों के निर्माण में अधिक हानि होती है। इस कारण छोटे-छोटे जल विद्युत संयंत्र जिनकी विद्युत उत्पादन क्षमता 3 से 15 मेगावाट के बीच है, के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
अन्य ऊर्जा स्रोतों में पत्थर का कोयला प्रमुख है जो अधिकतर उद्योगों में व्यावसायिक ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे जीवाश्म ईंधन भी कहते हैं। कोयले में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व जैसे सल्फर, आर्सेनिक, बैरीलियम, कैडनियम, तांबा, सीसा, मरकरी, नाइट्रोजन, सिलीनियम तथा जिंक उपस्थित होते हैं। बिजली घरों में कोयले की कितनी अधिक खपत होती है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यू.पी. के ताप बिजली घर प्रतिदिन 24 हजार मीट्रिक टन से अधिक कोयला फूंक डालते हैं।
अनपरा बिजली घर में ही प्रतिदिन 16 हजार मीट्रिक टन कोयला जलाया जाता है तथा ओबरा में 8 हजार मीट्रिक टन कोयला फुंकता है। ओबरा और अनपरा बिजली घरों को कोयले की आपूर्ति सिंगरौली की खदानों से की जाती है जबकि पनकी, पारीछा और टांडा बिजली घरों को कोयला बिहार की खदानों से पहुंचता है। इतनी बड़ी मात्रा में कोयले के दहन से वातावरण में पहुंचने वाले नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स, कणीय पदार्थ की मात्रा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जो चिंता का विषय है। ओजोन परत के क्षरण में नाइट्रोजन के ऑक्साइड का बहुत बड़ा हाथ है।
अम्लीय वर्षा उत्पन्न करने में सल्फर तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड प्रमुख माने जाते हैं। एन.टी.पी.सी. (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) द्वारा साढ़े पांच वर्ष की अवधि में प्रस्तावित तापीय विद्युत गृह उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में रिहंद जलाशय के दक्षिणी और स्थित भू-भाग पर निर्मित हो रहा है। इसकी अनुमानित लागत 4049 करोड़ रुपए हैं तथा 1000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित है। इससे प्राप्त विद्युत में से 400 मे.वा. पंजाब को, 365 मे.वा. उत्तर प्रदेश को 95 मे.वा. राजस्थान को तथा 35 मे.वा. हिमाचल प्रदेश को दी जाएगी।
पूरी परियोजना कोयले पर आधारित होगी। इन उपलब्धियों के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी फैलेगा। कोयले की तीन किस्में 1. Anthracite (80% carbon) 2. Bituminous (80% carbon) 3. lignite (60% carbon) उपलब्ध हैं। Anthracite coal सख्त कोयला है जो अत्यधिक काले रंग का तथा घरेलू ईंधन के रूप में अधिक उपयुक्त माना जाता है। यह धीरे-धीरे जलता है तथा धुआं कम देता है। इसका ताप बहुत अधिक होता है। Bituminous coal लोहा पिघलाने में प्रयुक्त होता है। Lignite ब्राउन रंग का होता है। इसकी उत्पत्ति भूमिगत स्रोतों से है। कोयला विश्व के सभी देशों में मिलता है। विश्व में कोयले का उत्पादन विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है जैसे अमेरिका (23%), चीन (20%), यू.के. (8%), पोलैंड (6%) पश्चिमी जर्मनी (5%), भारत (3%), अन्य देश (15%)।
कोयले के दहन में कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बनडाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, हाइड्रोकार्बन जैसी विषाक्त गैसें निकलती हैं जो वायुमंडल की जल की मात्रा से मिलकर अम्ल का निर्माण करती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड से सल्फ्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड से नाइट्रिक अम्ल बनता है। ये अम्ल बारिश के पानी के साथ पृथ्वी पर आकर स्थानीय एवं जलीय जीव-जंतुओं को हानि पहुंचाते हैं। मिट्टी में रासायनिक क्रिया से दलदल बन जाती है तथा मिट्टी के ऑक्सीजन की मात्रा क्षीण होने से ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव जंतु एवं बैक्टीरिया मर जाते हैं तथा पानी सड़ जाता है।
प्राकृतिक गैस आज के रसोईघर का मुख्य ऊर्जा स्रोत है। इसे एल.पी.जी. भी कहते हैं। इस गैस में ब्यूटेन (C4H10) प्रोपेन (C3H8) तथा पैन्टेन (C2H12) उपस्थित हैं। इसे (Pressured) दबाव युक्त गैस सिलेंडर में भरकर अनेक गैस एजेंसियों द्वारा बेचा जा रहा है। अधिक दबाव पर गैस द्रवीभूत हो जाती है तथा हवा के सम्पर्क में आकर जलने लगती है। एल.पी.जी. से कारें भी चलाई जा रही हैं तथा वायुप्रदूषण नहीं होता। एल.पी.जी. ने लकड़ी, कोयला तथा मिट्टी के तेल की खपत काफी हद तक कम कर दी है। इस गैस को पर्यावरण का मित्र कहा जा सकता है। धुआं-रहित ईंधन के रूप में इसका उपयोग सफलता से हो सकता है। यह गैस बिजली से सस्ती साबित हो रही है। (C.N.G (compresses natural gass) का उपयोग वाहनों के ईंधन के रूप में दिल्ली तथा अन्य महानगरों में होने लगा है। इससे वायु प्रदूषण कम हुआ है।
रेडियोधर्मी कचरा ऐसा नहीं है जो अन्य कचरे की तरह कहीं भी खुला फेंक दिया जाए। यह अत्यधिक खतरनाक होता है। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या है। ठोस कचरे में धातु की छीलन, राल, पौंछा, दस्ताने, प्लास्टिक ऐप्रिन प्रमुख हैं। मद्रास एटॉमिक पावर स्टेशन जो 470 Mwe विद्युत उत्पादन करता है, से 100 m3 (100 घन मीटर) कचरा निकालता है। यह लगभग प्रति दिन 50 घन मीटर के आयतन में निकलता है। भारत कोयले का प्रयोग व्यावसायिक ईंधनों में तापीय-ऊर्जा के रूप में सर्वाधिक होता है। भारत में कोयले का भंडार 2 लाख 6 हजार 2 सौ उन्तालीस बिलियन (1 बिलियन = 100 करोड़) टन माना जाता है। भविष्य में अधिक से अधिक 100 बिलियन टन कोयला और प्राप्त होने का अनुमान है। वर्तमान में प्रतिवर्ष 300 मिलियन टन (1 मिलियन = 10 लाख) कोयला प्राप्त हो रहा है। यदि यांत्रिकी में सुधार तथा पर्याप्त धन उपलब्ध हुआ तो वर्ष 2011 तक वार्षिक उत्पादन 500 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। हमारे कोयले के सीमित भंडार हैं जो अधिक से अधिक 100 वर्ष तक कोयला दे पाएंगे। यद्यपि कोयला ऊर्जा का विश्वसनीय स्रोत है फिर भी विश्वव्यापी तापमान वृद्धि जैसा भयानक अभिशाप इसे अधिक समय तक ऊर्जा स्रोत के रूप में अपनाने में अवरोध डाल सकता है। अतः किसी ऐसे विकल्प को अपनाना उपयुक्त होगा जो ऊर्जा की मांग तथा उत्पादन के बीच की खाई को पाट सके।
वैज्ञानिकों के अनुसार नाभिकीय ऊर्जा इसका समुचित स्थान ले सकती हैं। भारत में ऊर्जा भिन्न-भिन्न स्रोतों से प्राप्त होती है जैसे coal (186 बिलियन टन), lignite (5060 मिलियन टन), कच्चा तेल (728 मिलिय टन), प्राकृतिक गैस (686 बिलियन क्यूबिक मीटर), यूरेनियम (7800 टन), थोरियम (3 लाख तीन हजार टन), जलीय (8499 Mw at 60% PLE), Biomass (6000 Mwe), Wind (वायु) Solar (सूर्य से प्राप्त) etc. (20000 Mwe)
न्यूक्लियर ऊर्जा का मुख्य स्रोत यूरेनियम है। थोरियम को यूरेनियम के (समस्थानिक) आइसोटोप में परिवर्तन कर ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। वर्ष 1993 में देश का यूरेनियम भंडार 66,300 टन था वर्ष 1998 में आणविक ऊर्जा विभाग के Atomic mineral division ने कर्नाटक के गुलबर्गा जिले के गोगी स्थित भीम बेसिन में यूरेनियम के विशाल भंडार की खोज की है। यहां बिहार के सिंहभूमि पट्टी पर स्थित यूरेनियम की खानें जाइगुड़ा, भाटीन तथा नवां पहाड़ पर कार्य कर रही हैं।
हाल ही में यूरेनियम के विशाल भंडार मेघालय के Domiasat Wakyn तथा आंध्र प्रदेश के लम्बापुर क्षेत्र में खोजे गए हैं। देश में कार्यरत न्यूक्लियर रियेक्टर्स में 400 टन यूरेनियम की कम से कम आवश्यकता आवश्यकता है। केवल 200 टन यूरेनियम UCII (Uranium Corporation of India L.t.d.) द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है। UCIL द्वार उपलब्ध कराया जा रहा यूरेनियम Nuclear fuel coplex में यूरेनियम ऑक्साइड में परिवर्तित किया जा रहा है। इस समय कार्यरत न्यूक्लियर रियेक्टर्स द्वारा देश में 1840 MW विद्युत जा रही है। यह मात्रा पूरे देश में विभिन्न ऊर्जा स्रोतों से निर्मित 95000 MW विद्युत की केवल 2 प्रतिशत है।
पूरे विश्व में नाभिकीय ऊर्जा समस्त ऊर्जा स्रोतों की 17 प्रतिशत है। परमाणु ऊर्जा विभाग का वर्ष 2020 तक 20,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य है जो कि यूरेनियम उत्पादन क्षमता पर निर्भर करता है। आंध्र प्रदेश के नालगोंडा जिले में स्थित यूरेनियम की खान आज भी चर्चा का विषय बनी हुई है। खान से उत्सर्जित विकिरण नालगोंडा जिले के रहने वालों को ही प्रभावित नहीं करेगा अपितु विकिरणकारी अवशिष्ट जल तथा हवा के माध्यम से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित Lambada Pedaguttu यूरेनियम खान के क्षेत्र से केवल पांच कि.मी. दूर स्थित है। हवा के माध्यम से रेडियोधर्मी धूल नागार्जुन सागर के जल ग्रहण क्षेत्र में पहुंच जाएगी। यह सब हवा की गति तथा दिशा पर निर्भर करेगा।
Indian Institute of Chemical technology के वैज्ञानिक डॉ. बाबू राव के अनुसार रेडियोधर्मी अनुपचारित कचरा अक्कमपल्ली जलाशय में पहुंच कर जल को प्रदूषित कर देगा। कृष्णा नदी जल परियोजना अप्रैल 2004 तक पूरी हो चुकी हैं। UCIL यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) की योजना के अनुसार प्रतिदिन लगभग 1250 टन Uranim Ore (कच्चा यूरेनियम) निकाला जा रहा है तथा Processary संयंत्रों में भेज दिया जाता है। परिष्कृत यूरेनियम लगभग 125 टन प्राप्त होगा जो लगभग 70 प्रतिशत शुद्ध होगा। यूरेनियम कचरे के निस्तारण की समस्या से विशेषज्ञ चिंतित है। रेडियोधर्मिता-युक्त जल पृथ्वी में प्रवेश करके भूमिगत जल को प्रदूषित कर देगा। EIA (Environmental Impact Assesment) रिपोर्ट के अनुसार यूरेनियम के कचरे से युक्त तालाब की तली को अधिक घनत्व वाली पौलीएथीलीन की चादरों से ढंक कर रेडियोधर्मिता को पृथ्वी के अंदर जाने से रोका जा सकेगा। तेज बारिश तथा आंधी विकिरण के प्रभाव को बढ़ा सकती है।
नाभिकीय ऊर्जा का स्रोत यूरेनियम खतरे की घंटी साबित हो सकता है। यूरेनियम के अतिरिक्त भारत में थोरियम के भंडार केरल beach के monazite रेत में उपलब्ध हैं। इस रेत में 8-10 थोरियम ऑक्साइड उपस्थित है जो विश्व के अन्य स्थानों से अधिक है। भारत में अनुमानित 5.45 मिलियन टन थोरियम ऑक्साइड विद्यमान है। थोरियम स्वयं में न्यूक्लियर ईंधन नहीं है परंतु रियेक्टर में इसे यूरेनियम 233 में परिवर्तित करके ईधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। भारत में न्यूक्लियर ऊर्जा के उत्पादन का प्रारंभ वर्ष 1969 में सर्वप्रथम महाराष्ट्र में तारापुर में हुआ। यहां स्थापित संयंत्र में दो 160 मेगावाट क्षमता के boiling water reactors हैं जो अमेरिका से प्राप्त परिष्कृत यूरेनियम को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं। बाद में निर्मित संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं बाद में निर्मित संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में तथा भारी जल सामान्यकर्ता के रूप में इस्तेमाल होता है।
इस समय देश में छः बड़े न्यूक्लियर पावर प्लांटस तारापुर (महाराष्ट्र), राउतभाटा (राजस्थान) कल्पक्कम (तमिलनाडु), कैगा (कर्नाटक, नरोरा (यू.पी.), काकरापार (गुजरात) में कार्य कर रहे हैं। इनकी न्यूक्लियर पावर जनित विद्युत उत्पादन क्षमता 2250 मेगावाट है जो कुल देश की उत्पादन क्षमता की 2.6% है। फ्रांस, न्यूक्लियर पावर उत्पाद में आज अग्रणी है। नाभिकीय ऊर्जा शक्ति के उपयोग में सबसे बड़ा खतरा रेेडियोधर्मिता का है। इन संयंत्रों के संचालन में थोड़ी सी लापरवाही चैरनोबिल जैसी घटनाओं को जन्म दे सकती है। भारतीय रियेक्टरों में रेडियोधर्मिता रोकने के लिए पांच अवरोध बनाए गए हैं।
रेडियोधर्मी कचरा ऐसा नहीं है जो अन्य कचरे की तरह कहीं भी खुला फेंक दिया जाए। यह अत्यधिक खतरनाक होता है। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या है। ठोस कचरे में धातु की छीलन, राल, पौंछा, दस्ताने, प्लास्टिक ऐप्रिन प्रमुख हैं। मद्रास एटॉमिक पावर स्टेशन जो 470 Mwe विद्युत उत्पादन करता है, से 100 m3 (100 घन मीटर) कचरा निकालता है। यह लगभग प्रति दिन 50 घन मीटर के आयतन में निकलता है। जो ईंधन रियेक्टर से निकलता है उसमें प्लूटोनियम के अतिरिक्त जली हुई अवस्था में यूरेनियम उपस्थित होता है। पुनः चक्रीकरण द्वारा यूरेनियम तथा प्लूटोनियम एकत्रित कर लिया जाता है। ठोस कचरे में यदि कम रेडियो-सक्रिय तत्व होते हैं तो नियंत्रित स्थिति में जला कर नष्ट कर देते हैं।
धुआं तथा ईंधन की गैसें अलग कर ली जाती है। अज्वलनशील रेडियोएक्टिव पदार्थों को मोटी स्टील की परतयुक्त कंक्रीट की खाइयों में दबा दिया जाता है। भूमिगत जल की समय-समय पर जांच की जाती है। Liquid waste (द्रव कचरा) को समुद्र में पानी में 1:100 के अनुपात में मिला कर प्रवाहित कर दिया जाता है। इतनी सावधानी बरतने पर भी यदि दुर्घटनावश रेडियोधर्मिता रिस जाए तो परिणाम बहुत भयंकर होते हैं। वर्ष 1979 में अमेरिका में Three Mile Island Nuclear Power plant रिसाव तथा वर्ष 1986 में Chernoby Nuclear Power Plant के melt down में रेडियो न्यूक्लाइड्स वायुमंडल के माध्यम से मनुष्यों एवं अन्य जीवों में प्रवेश कर गए। जापान से 160 कि.मी. दूर उत्तर पूर्व स्थित Tokonmura के Uranium Processing संयंत्र में 29 सितंबर 1999 को रिसाव होने के कारण सामान्य विकिरण से विकरण स्तर में 4000 गुना वृद्धि आंकी गई। विकिरण का रिसाव इसका कारण बताया जाता है।
इसी स्थान पर वर्ष 1997 में विकिरण प्रदूषण से सैकड़ों लोग प्रभावित हुए थे। नाभिकीय ईंधन इकाइयों में विस्फोट की संभावनाएं समाप्त होनी चाहिए। इस सीमा तक सावधानी बरती गई कि जापान में प्रभावित क्षेत्र से 300 मील दूर तक के प्रत्येक जीव-जंतु पर रेडियोधर्मिता शून्य पाई गई। एक आकलन के अनुसार 36 मेगाग्राम (10x10x10x10x10x10) प्रति मेगावाट (10x10x10x10x10x10 thousand million) न्यूक्लियर ईंधन प्रतिवर्ष Pressurised water reactor से पर्यावरण में छोड़ दिया जाता है। शरीर में रेडियोधर्मी तत्व ठोस, गैसीय या द्रवीभूत अवस्था में पहुंचकर मोतियाबिंद ब्लड-कैंसर, malignant tumours (विद्वेषी गिल्टी), हृदय की बीमारी, समय से पहले वृद्ध होना जैसे रोग उत्पन्न करते हैं। रेडियो एक्टिविटी के कारण डी.एन.ए. में विकृति उत्पन्न हो जाने के कारण कैंसर जैसे असाध्य रोग जन्म ले सकते हैं।
यदि रेडियोधर्मिता क नियंत्रित करने की सारी व्यवस्था ठीक रखी जाए तो न्यूक्लियर पावर से सस्ती तथा पर्यावरण से मित्रता रखने वाली कोई अन्य विधा नहीं हो सकती। न्यूक्लियर पावर प्लांटस से कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित नहीं होती। पर्यावरण में हरित गृह प्रभाव (green house effect) उत्पन्न नहीं होता। अम्लीय वर्षा की संभावना भी समाप्त हो जाती है। न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने के लिए अधिक भूमि की भी आवश्यकता नहीं होती।
न्यूक्लियर शक्ति हमें स्वच्छ पर्यावरण दे सकती है बशर्ते रेडियोधर्मी कचरे का निस्तारण अत्यंत सुरक्षित तरीके से हो तथा वहां की भूमि, जल तथा वायु में रेडियोधर्मी तत्वों को उत्सर्जित होने से रोकने की पूरी व्यवस्था हो। एक ही दुर्घटना प्रलय का बोध करा सकती है। रेडियोधर्मिता शरीर में प्रवेश करते समय महसूस नहीं होती यही कारण है कि शरीर के अत्यंत संवेदनशील अंगों जैसे-आंत-लीड्स, तिल्ली तथा Bone marrow (अस्थि मज्जा) तुरंत प्रभावित हो जाते हैं ऊर्जा स्रोतों का मानव-कल्याण एवं मानव-संहार दोनों में ही वर्चस्व है। इनके द्वारा की जाने वाली भलाई में बुराई भी छिपी है, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।
हाइड्रोजन ईधन वाशिंगटन से प्राप्त जानकारी के अनुसार हाइड्रोजन ईंधन को एक स्वच्छ ईंधन के रूप में अपनाया जा सकता है। हाल ही में किए गए अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाइड्रोजन ईंधन का अधिक उपयोग ओजोन क्षरण की समस्या उत्पन्न कर सकता है जिसके फलस्वरूप पराबैंगनी किरणों का विकिरण पृथ्वी पर पहुंचने लगेगा। साइंस नामक शोध पत्रिका में कहा गया है कि हाइड्रोजन ईंधन के इस्तेमाल में मितव्ययिता बरतनी होगी। पर्यावरण का मित्र नहीं कहा जा सकता है क्योंकि हाइड्रोजन गैस का पाइप लाइन से 10 से 20 प्रतिशत रिसाव कार में प्रयुक्त Fuel Cells से तथा ऊर्जा संयंत्रों से होना अवश्यंभावी है। स्ट्रेटोस्पीयर (समताप-मंडल) में पहुंचकर हाइड्रोजन के अनु ऑक्सीजन के परमाणुओं से मिलकर पानी के असंख्य अणु बना देंगे। यह प्रक्रिया इस प्रकार से होगी।
हाइड्रोजन अणु H2+O ऑक्सीजन परमाणु =H2O (पानी के अणु)
उक्त प्रक्रिया में ओजोन (O3) के विखंडन से उत्पन्न ऑक्सीजन परमाणु प्राप्त होगा। समताप की निचली परत अधिक ठंडी होकर ओजोन की संरचना को प्रभावित करेगी तथा ओजोन छिद्र को और बढ़ा तथा अधिक समय तक स्थिर रहने वाला बना देगी। प्रत्यक्ष रूप से हाइड्रोजन ईंधन पर्यावरण में प्रदूषण की समस्या तो अवश्य कम करेगा परंतु परोक्ष रूप से ओजोन की परत में छिद्र उत्पन्न कर विकिरण के दुष्प्रभावों को बढ़ा देगा।
चूंकि इतनी बड़ी धनराशि का खर्च भारत सरकार वहन करने में सक्षम नहीं थी इसलिए प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी तलाशने के प्रयास भी किए गए। पूरे देश की दो-तिहाई ऊर्जा की आवश्यकता की पूर्ति मुख्यतः व्यावसायिक स्रोतों से होती है, ये हैं पत्थर का कोयला, भूरा कोयला, 60% कार्बन), तेल, प्राकृतिक गैस, जल स्रोत, तथा नाभिकीय ऊर्जा, शेष एक तिहाई मांग अव्यावसायिक स्रोतों जैसे जलाने की लकड़ी, कृषि से प्राप्त कचरा तथा जीव-जंतुओं से प्राप्त कचरे से पूरी होती है।
नवीनीकरण ऊर्जा प्राप्त करने में विगत कुछ वर्षों में गैर-पारंपरिक स्रोतों जैसे वायु, सूर्य तथा भूतापीय को अपनाने का प्रयास किया गया है परंतु इनका कोई विशेष महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं रहा। व्यावसायिक ऊर्जा-स्रोतों में आज भी तेल ही विश्व के सभी ऊर्जा-स्रोतों में सबसे अधिक लोकप्रियता हासिल कर सका है। संभवतः अगली शताब्दी में सारे तेल-भंडार सूख जाएंगे। तभी तक तेल आपूर्ति होगी तत्पश्चात् अन्य विकल्पों पर निर्भर रहना हमारी मजबूरी हो जाएगी।
तेल विशेषज्ञों के अनुसार विश्व के लगभग 90 प्रतिशत तेल के कुएं खोजे जा चुके हैं तथा निकट भविष्य में नए तेल के कुओं को खोज पाना संभव नहीं है। हाल में किए गए सर्वेक्षण में इस समय विश्व का कुल तेल भंडार लगभग 1020 बिलियन (1 बिलियन=100 करोड़) बचा है जो अनुमानतः अधिक से अधिक अगले 43 वर्षों में समाप्त हो जाएगा। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार प्रतिवर्ष 23.6 बिलियन बैरल तेल की विश्व में खपत हो जाती है। कुछ विशेषज्ञों ने स्वीकारा है कि वर्ष 2005 से 2010 के बीच तेल की आपूर्ति खपत की अपेक्षा बहुत कम रहेगी जिससे तेल की कीमत अप्रत्याशित रूप से बढ़ेगी। भारत तेल का आयात करने वाला देश होने के कारण तेल की कमी से बुरी तरह प्रभावित होगा।
पेट्रोलियम उत्पादक देशों में अमेरिका, इंडोनेशिया, रूस, सऊदी अरब, कुवैत, ईराक, ईरान, कनाडा प्रमुख हैं। पेट्रोल, डीजल तथा मिट्टी के तेल का उपयोग मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में शामिल हो चुका है। वाहनों, उद्योगों में, विद्युत-निर्माण में ईंधन के रूप में इनका महत्व बढ़ता जा रहा है। इनके दहन की प्रक्रिया में उत्सर्जित विषाक्त गैसें वायुमंडल को प्रदूषित कर रही हैं।
कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स वायुमंडल में पहुंचकर उसका तापमान बढ़ा रहे हैं। एक हजार लीटर सीसा युक्त पेट्रोल के जलने पर 350 किग्रा. कार्बन मोनोऑक्साइड, 0.6 किग्रा. सल्फर डाइऑक्साइड, 0.1 किग्रा. लैड तथा 1.6 किग्रा. एस.पी.एम. उत्सर्जित होते हैं। लैड की मात्रा 1.5 पी.पी.एम. से अधिक होने पर गुर्दे खराब होने लगते हैं। पूरे विश्व में प्रतिवर्ष ग्रीन-हाउस गैसें जिसमें कार्बन डाइऑक्साइड प्रमुख है, वायुमंडल के तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि कर देती हैं। इसका दुष्परिणाम ग्लेशियरों के पिघलने के रूप में प्रकट हो रहा है विश्व के बड़े-बड़े ग्लेशियर तीव्र गति से सिकुड़ रहे हैं।
मानव को बाढ़ के रूप में इसका परिणाम भुगतना पड़ रहा है। तेल के धुएं में उपस्थित नाइट्रोजन के ऑक्साइड ओजोन की परत को क्षीण कर रहे हैं। जिससे पराबैंगनी किरणें पृथ्वी पर पहुंचकर कैंसर जैसी बीमारियों को जन्म दे रही हैं। पर्यावरण की दृष्टि से ऊर्जा का यह स्रोत मानव को लाभ पहुंचाने के साथ-साथ हानि भी पहुंचा रहा है।
जल ऊर्जा का एक जाना माना ऊर्जा स्रोत है। एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में जल-ऊर्जा से 84044 मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता है। इसमें केवल हिमालय के क्षेत्र में ही 75 प्रतिशत ऊर्जा संग्रहित है। वर्ष 1996-97 तक केवल 20900 मेगावाट जल-विद्युत का उत्पादन हो पाया है। भूकंप के कारण हिमालयी क्षेत्र इतना अस्थिर हो चुका है कि वहां निर्मित या निर्माणाधीन बांध खतरे की घंटी साबित हो रहे हैं। यद्यपि जल-ऊर्जा के अनेक लाभ भी हैं। यह स्वच्छ है तथा नवीकरणीय स्रोत है। इसमें कृषि-योग्य भूमि का बहुत बड़ा भाग सिंचित होता है परंतु इसके दुष्प्रभाव भी हैं।
बांध के निर्माण में पहाड़ी क्षेत्र का विशाल भूभाग जल-मग्न हो जाता है। लाखों पेड़, दुर्लभ वनस्पतियों तथा जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो जाती हैं। बांधों से अन्य पर्यावरण संबंधी हानियां जैसे दलदल होना, लवणीयता बढ़ना उत्पन्न होती है। बांध के कारण विस्थापित परिवारों के पुनर्वास तथा उनके आजीविका की समस्या पैदा होती है। इन सबके रहते यह सभी स्वीकारते हैं कि जल-ऊर्जा विद्युत उत्पादन के लिए सबसे सस्ता तथा सुलभ साधन है। बड़े बांधों के निर्माण में अधिक हानि होती है। इस कारण छोटे-छोटे जल विद्युत संयंत्र जिनकी विद्युत उत्पादन क्षमता 3 से 15 मेगावाट के बीच है, के निर्माण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
अन्य ऊर्जा स्रोतों में पत्थर का कोयला प्रमुख है जो अधिकतर उद्योगों में व्यावसायिक ईंधन के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे जीवाश्म ईंधन भी कहते हैं। कोयले में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन तथा अन्य तत्व जैसे सल्फर, आर्सेनिक, बैरीलियम, कैडनियम, तांबा, सीसा, मरकरी, नाइट्रोजन, सिलीनियम तथा जिंक उपस्थित होते हैं। बिजली घरों में कोयले की कितनी अधिक खपत होती है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि यू.पी. के ताप बिजली घर प्रतिदिन 24 हजार मीट्रिक टन से अधिक कोयला फूंक डालते हैं।
अनपरा बिजली घर में ही प्रतिदिन 16 हजार मीट्रिक टन कोयला जलाया जाता है तथा ओबरा में 8 हजार मीट्रिक टन कोयला फुंकता है। ओबरा और अनपरा बिजली घरों को कोयले की आपूर्ति सिंगरौली की खदानों से की जाती है जबकि पनकी, पारीछा और टांडा बिजली घरों को कोयला बिहार की खदानों से पहुंचता है। इतनी बड़ी मात्रा में कोयले के दहन से वातावरण में पहुंचने वाले नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स, कणीय पदार्थ की मात्रा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है जो चिंता का विषय है। ओजोन परत के क्षरण में नाइट्रोजन के ऑक्साइड का बहुत बड़ा हाथ है।
अम्लीय वर्षा उत्पन्न करने में सल्फर तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड प्रमुख माने जाते हैं। एन.टी.पी.सी. (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) द्वारा साढ़े पांच वर्ष की अवधि में प्रस्तावित तापीय विद्युत गृह उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में रिहंद जलाशय के दक्षिणी और स्थित भू-भाग पर निर्मित हो रहा है। इसकी अनुमानित लागत 4049 करोड़ रुपए हैं तथा 1000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य निर्धारित है। इससे प्राप्त विद्युत में से 400 मे.वा. पंजाब को, 365 मे.वा. उत्तर प्रदेश को 95 मे.वा. राजस्थान को तथा 35 मे.वा. हिमाचल प्रदेश को दी जाएगी।
पूरी परियोजना कोयले पर आधारित होगी। इन उपलब्धियों के साथ-साथ पर्यावरण प्रदूषण भी फैलेगा। कोयले की तीन किस्में 1. Anthracite (80% carbon) 2. Bituminous (80% carbon) 3. lignite (60% carbon) उपलब्ध हैं। Anthracite coal सख्त कोयला है जो अत्यधिक काले रंग का तथा घरेलू ईंधन के रूप में अधिक उपयुक्त माना जाता है। यह धीरे-धीरे जलता है तथा धुआं कम देता है। इसका ताप बहुत अधिक होता है। Bituminous coal लोहा पिघलाने में प्रयुक्त होता है। Lignite ब्राउन रंग का होता है। इसकी उत्पत्ति भूमिगत स्रोतों से है। कोयला विश्व के सभी देशों में मिलता है। विश्व में कोयले का उत्पादन विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न है जैसे अमेरिका (23%), चीन (20%), यू.के. (8%), पोलैंड (6%) पश्चिमी जर्मनी (5%), भारत (3%), अन्य देश (15%)।
कोयले के दहन में कार्बन मोनोऑक्साइड, कार्बनडाइऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, हाइड्रोजन सल्फाइड, हाइड्रोकार्बन जैसी विषाक्त गैसें निकलती हैं जो वायुमंडल की जल की मात्रा से मिलकर अम्ल का निर्माण करती हैं। सल्फर डाइऑक्साइड से सल्फ्यूरिक अम्ल तथा नाइट्रोजन के ऑक्साइड से नाइट्रिक अम्ल बनता है। ये अम्ल बारिश के पानी के साथ पृथ्वी पर आकर स्थानीय एवं जलीय जीव-जंतुओं को हानि पहुंचाते हैं। मिट्टी में रासायनिक क्रिया से दलदल बन जाती है तथा मिट्टी के ऑक्सीजन की मात्रा क्षीण होने से ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव जंतु एवं बैक्टीरिया मर जाते हैं तथा पानी सड़ जाता है।
प्राकृतिक गैस आज के रसोईघर का मुख्य ऊर्जा स्रोत है। इसे एल.पी.जी. भी कहते हैं। इस गैस में ब्यूटेन (C4H10) प्रोपेन (C3H8) तथा पैन्टेन (C2H12) उपस्थित हैं। इसे (Pressured) दबाव युक्त गैस सिलेंडर में भरकर अनेक गैस एजेंसियों द्वारा बेचा जा रहा है। अधिक दबाव पर गैस द्रवीभूत हो जाती है तथा हवा के सम्पर्क में आकर जलने लगती है। एल.पी.जी. से कारें भी चलाई जा रही हैं तथा वायुप्रदूषण नहीं होता। एल.पी.जी. ने लकड़ी, कोयला तथा मिट्टी के तेल की खपत काफी हद तक कम कर दी है। इस गैस को पर्यावरण का मित्र कहा जा सकता है। धुआं-रहित ईंधन के रूप में इसका उपयोग सफलता से हो सकता है। यह गैस बिजली से सस्ती साबित हो रही है। (C.N.G (compresses natural gass) का उपयोग वाहनों के ईंधन के रूप में दिल्ली तथा अन्य महानगरों में होने लगा है। इससे वायु प्रदूषण कम हुआ है।
रेडियोधर्मी कचरा ऐसा नहीं है जो अन्य कचरे की तरह कहीं भी खुला फेंक दिया जाए। यह अत्यधिक खतरनाक होता है। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या है। ठोस कचरे में धातु की छीलन, राल, पौंछा, दस्ताने, प्लास्टिक ऐप्रिन प्रमुख हैं। मद्रास एटॉमिक पावर स्टेशन जो 470 Mwe विद्युत उत्पादन करता है, से 100 m3 (100 घन मीटर) कचरा निकालता है। यह लगभग प्रति दिन 50 घन मीटर के आयतन में निकलता है। भारत कोयले का प्रयोग व्यावसायिक ईंधनों में तापीय-ऊर्जा के रूप में सर्वाधिक होता है। भारत में कोयले का भंडार 2 लाख 6 हजार 2 सौ उन्तालीस बिलियन (1 बिलियन = 100 करोड़) टन माना जाता है। भविष्य में अधिक से अधिक 100 बिलियन टन कोयला और प्राप्त होने का अनुमान है। वर्तमान में प्रतिवर्ष 300 मिलियन टन (1 मिलियन = 10 लाख) कोयला प्राप्त हो रहा है। यदि यांत्रिकी में सुधार तथा पर्याप्त धन उपलब्ध हुआ तो वर्ष 2011 तक वार्षिक उत्पादन 500 मिलियन टन तक पहुंच सकता है। हमारे कोयले के सीमित भंडार हैं जो अधिक से अधिक 100 वर्ष तक कोयला दे पाएंगे। यद्यपि कोयला ऊर्जा का विश्वसनीय स्रोत है फिर भी विश्वव्यापी तापमान वृद्धि जैसा भयानक अभिशाप इसे अधिक समय तक ऊर्जा स्रोत के रूप में अपनाने में अवरोध डाल सकता है। अतः किसी ऐसे विकल्प को अपनाना उपयुक्त होगा जो ऊर्जा की मांग तथा उत्पादन के बीच की खाई को पाट सके।
वैज्ञानिकों के अनुसार नाभिकीय ऊर्जा इसका समुचित स्थान ले सकती हैं। भारत में ऊर्जा भिन्न-भिन्न स्रोतों से प्राप्त होती है जैसे coal (186 बिलियन टन), lignite (5060 मिलियन टन), कच्चा तेल (728 मिलिय टन), प्राकृतिक गैस (686 बिलियन क्यूबिक मीटर), यूरेनियम (7800 टन), थोरियम (3 लाख तीन हजार टन), जलीय (8499 Mw at 60% PLE), Biomass (6000 Mwe), Wind (वायु) Solar (सूर्य से प्राप्त) etc. (20000 Mwe)
न्यूक्लियर ऊर्जा का मुख्य स्रोत यूरेनियम है। थोरियम को यूरेनियम के (समस्थानिक) आइसोटोप में परिवर्तन कर ईंधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। वर्ष 1993 में देश का यूरेनियम भंडार 66,300 टन था वर्ष 1998 में आणविक ऊर्जा विभाग के Atomic mineral division ने कर्नाटक के गुलबर्गा जिले के गोगी स्थित भीम बेसिन में यूरेनियम के विशाल भंडार की खोज की है। यहां बिहार के सिंहभूमि पट्टी पर स्थित यूरेनियम की खानें जाइगुड़ा, भाटीन तथा नवां पहाड़ पर कार्य कर रही हैं।
हाल ही में यूरेनियम के विशाल भंडार मेघालय के Domiasat Wakyn तथा आंध्र प्रदेश के लम्बापुर क्षेत्र में खोजे गए हैं। देश में कार्यरत न्यूक्लियर रियेक्टर्स में 400 टन यूरेनियम की कम से कम आवश्यकता आवश्यकता है। केवल 200 टन यूरेनियम UCII (Uranium Corporation of India L.t.d.) द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा है। UCIL द्वार उपलब्ध कराया जा रहा यूरेनियम Nuclear fuel coplex में यूरेनियम ऑक्साइड में परिवर्तित किया जा रहा है। इस समय कार्यरत न्यूक्लियर रियेक्टर्स द्वारा देश में 1840 MW विद्युत जा रही है। यह मात्रा पूरे देश में विभिन्न ऊर्जा स्रोतों से निर्मित 95000 MW विद्युत की केवल 2 प्रतिशत है।
पूरे विश्व में नाभिकीय ऊर्जा समस्त ऊर्जा स्रोतों की 17 प्रतिशत है। परमाणु ऊर्जा विभाग का वर्ष 2020 तक 20,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन का लक्ष्य है जो कि यूरेनियम उत्पादन क्षमता पर निर्भर करता है। आंध्र प्रदेश के नालगोंडा जिले में स्थित यूरेनियम की खान आज भी चर्चा का विषय बनी हुई है। खान से उत्सर्जित विकिरण नालगोंडा जिले के रहने वालों को ही प्रभावित नहीं करेगा अपितु विकिरणकारी अवशिष्ट जल तथा हवा के माध्यम से चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित Lambada Pedaguttu यूरेनियम खान के क्षेत्र से केवल पांच कि.मी. दूर स्थित है। हवा के माध्यम से रेडियोधर्मी धूल नागार्जुन सागर के जल ग्रहण क्षेत्र में पहुंच जाएगी। यह सब हवा की गति तथा दिशा पर निर्भर करेगा।
Indian Institute of Chemical technology के वैज्ञानिक डॉ. बाबू राव के अनुसार रेडियोधर्मी अनुपचारित कचरा अक्कमपल्ली जलाशय में पहुंच कर जल को प्रदूषित कर देगा। कृष्णा नदी जल परियोजना अप्रैल 2004 तक पूरी हो चुकी हैं। UCIL यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) की योजना के अनुसार प्रतिदिन लगभग 1250 टन Uranim Ore (कच्चा यूरेनियम) निकाला जा रहा है तथा Processary संयंत्रों में भेज दिया जाता है। परिष्कृत यूरेनियम लगभग 125 टन प्राप्त होगा जो लगभग 70 प्रतिशत शुद्ध होगा। यूरेनियम कचरे के निस्तारण की समस्या से विशेषज्ञ चिंतित है। रेडियोधर्मिता-युक्त जल पृथ्वी में प्रवेश करके भूमिगत जल को प्रदूषित कर देगा। EIA (Environmental Impact Assesment) रिपोर्ट के अनुसार यूरेनियम के कचरे से युक्त तालाब की तली को अधिक घनत्व वाली पौलीएथीलीन की चादरों से ढंक कर रेडियोधर्मिता को पृथ्वी के अंदर जाने से रोका जा सकेगा। तेज बारिश तथा आंधी विकिरण के प्रभाव को बढ़ा सकती है।
नाभिकीय ऊर्जा का स्रोत यूरेनियम खतरे की घंटी साबित हो सकता है। यूरेनियम के अतिरिक्त भारत में थोरियम के भंडार केरल beach के monazite रेत में उपलब्ध हैं। इस रेत में 8-10 थोरियम ऑक्साइड उपस्थित है जो विश्व के अन्य स्थानों से अधिक है। भारत में अनुमानित 5.45 मिलियन टन थोरियम ऑक्साइड विद्यमान है। थोरियम स्वयं में न्यूक्लियर ईंधन नहीं है परंतु रियेक्टर में इसे यूरेनियम 233 में परिवर्तित करके ईधन के रूप में प्रयोग में लाया जा सकता है। भारत में न्यूक्लियर ऊर्जा के उत्पादन का प्रारंभ वर्ष 1969 में सर्वप्रथम महाराष्ट्र में तारापुर में हुआ। यहां स्थापित संयंत्र में दो 160 मेगावाट क्षमता के boiling water reactors हैं जो अमेरिका से प्राप्त परिष्कृत यूरेनियम को ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं। बाद में निर्मित संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में प्रयोग करते हैं बाद में निर्मित संयंत्रों में प्राकृतिक यूरेनियम ईंधन के रूप में तथा भारी जल सामान्यकर्ता के रूप में इस्तेमाल होता है।
इस समय देश में छः बड़े न्यूक्लियर पावर प्लांटस तारापुर (महाराष्ट्र), राउतभाटा (राजस्थान) कल्पक्कम (तमिलनाडु), कैगा (कर्नाटक, नरोरा (यू.पी.), काकरापार (गुजरात) में कार्य कर रहे हैं। इनकी न्यूक्लियर पावर जनित विद्युत उत्पादन क्षमता 2250 मेगावाट है जो कुल देश की उत्पादन क्षमता की 2.6% है। फ्रांस, न्यूक्लियर पावर उत्पाद में आज अग्रणी है। नाभिकीय ऊर्जा शक्ति के उपयोग में सबसे बड़ा खतरा रेेडियोधर्मिता का है। इन संयंत्रों के संचालन में थोड़ी सी लापरवाही चैरनोबिल जैसी घटनाओं को जन्म दे सकती है। भारतीय रियेक्टरों में रेडियोधर्मिता रोकने के लिए पांच अवरोध बनाए गए हैं।
रेडियोधर्मी कचरा ऐसा नहीं है जो अन्य कचरे की तरह कहीं भी खुला फेंक दिया जाए। यह अत्यधिक खतरनाक होता है। न्यूक्लियर कचरे का निस्तारण बहुत बड़ी समस्या है। ठोस कचरे में धातु की छीलन, राल, पौंछा, दस्ताने, प्लास्टिक ऐप्रिन प्रमुख हैं। मद्रास एटॉमिक पावर स्टेशन जो 470 Mwe विद्युत उत्पादन करता है, से 100 m3 (100 घन मीटर) कचरा निकालता है। यह लगभग प्रति दिन 50 घन मीटर के आयतन में निकलता है। जो ईंधन रियेक्टर से निकलता है उसमें प्लूटोनियम के अतिरिक्त जली हुई अवस्था में यूरेनियम उपस्थित होता है। पुनः चक्रीकरण द्वारा यूरेनियम तथा प्लूटोनियम एकत्रित कर लिया जाता है। ठोस कचरे में यदि कम रेडियो-सक्रिय तत्व होते हैं तो नियंत्रित स्थिति में जला कर नष्ट कर देते हैं।
धुआं तथा ईंधन की गैसें अलग कर ली जाती है। अज्वलनशील रेडियोएक्टिव पदार्थों को मोटी स्टील की परतयुक्त कंक्रीट की खाइयों में दबा दिया जाता है। भूमिगत जल की समय-समय पर जांच की जाती है। Liquid waste (द्रव कचरा) को समुद्र में पानी में 1:100 के अनुपात में मिला कर प्रवाहित कर दिया जाता है। इतनी सावधानी बरतने पर भी यदि दुर्घटनावश रेडियोधर्मिता रिस जाए तो परिणाम बहुत भयंकर होते हैं। वर्ष 1979 में अमेरिका में Three Mile Island Nuclear Power plant रिसाव तथा वर्ष 1986 में Chernoby Nuclear Power Plant के melt down में रेडियो न्यूक्लाइड्स वायुमंडल के माध्यम से मनुष्यों एवं अन्य जीवों में प्रवेश कर गए। जापान से 160 कि.मी. दूर उत्तर पूर्व स्थित Tokonmura के Uranium Processing संयंत्र में 29 सितंबर 1999 को रिसाव होने के कारण सामान्य विकिरण से विकरण स्तर में 4000 गुना वृद्धि आंकी गई। विकिरण का रिसाव इसका कारण बताया जाता है।
इसी स्थान पर वर्ष 1997 में विकिरण प्रदूषण से सैकड़ों लोग प्रभावित हुए थे। नाभिकीय ईंधन इकाइयों में विस्फोट की संभावनाएं समाप्त होनी चाहिए। इस सीमा तक सावधानी बरती गई कि जापान में प्रभावित क्षेत्र से 300 मील दूर तक के प्रत्येक जीव-जंतु पर रेडियोधर्मिता शून्य पाई गई। एक आकलन के अनुसार 36 मेगाग्राम (10x10x10x10x10x10) प्रति मेगावाट (10x10x10x10x10x10 thousand million) न्यूक्लियर ईंधन प्रतिवर्ष Pressurised water reactor से पर्यावरण में छोड़ दिया जाता है। शरीर में रेडियोधर्मी तत्व ठोस, गैसीय या द्रवीभूत अवस्था में पहुंचकर मोतियाबिंद ब्लड-कैंसर, malignant tumours (विद्वेषी गिल्टी), हृदय की बीमारी, समय से पहले वृद्ध होना जैसे रोग उत्पन्न करते हैं। रेडियो एक्टिविटी के कारण डी.एन.ए. में विकृति उत्पन्न हो जाने के कारण कैंसर जैसे असाध्य रोग जन्म ले सकते हैं।
यदि रेडियोधर्मिता क नियंत्रित करने की सारी व्यवस्था ठीक रखी जाए तो न्यूक्लियर पावर से सस्ती तथा पर्यावरण से मित्रता रखने वाली कोई अन्य विधा नहीं हो सकती। न्यूक्लियर पावर प्लांटस से कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइ-ऑक्साइड जैसी विषैली गैसें उत्सर्जित नहीं होती। पर्यावरण में हरित गृह प्रभाव (green house effect) उत्पन्न नहीं होता। अम्लीय वर्षा की संभावना भी समाप्त हो जाती है। न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने के लिए अधिक भूमि की भी आवश्यकता नहीं होती।
न्यूक्लियर शक्ति हमें स्वच्छ पर्यावरण दे सकती है बशर्ते रेडियोधर्मी कचरे का निस्तारण अत्यंत सुरक्षित तरीके से हो तथा वहां की भूमि, जल तथा वायु में रेडियोधर्मी तत्वों को उत्सर्जित होने से रोकने की पूरी व्यवस्था हो। एक ही दुर्घटना प्रलय का बोध करा सकती है। रेडियोधर्मिता शरीर में प्रवेश करते समय महसूस नहीं होती यही कारण है कि शरीर के अत्यंत संवेदनशील अंगों जैसे-आंत-लीड्स, तिल्ली तथा Bone marrow (अस्थि मज्जा) तुरंत प्रभावित हो जाते हैं ऊर्जा स्रोतों का मानव-कल्याण एवं मानव-संहार दोनों में ही वर्चस्व है। इनके द्वारा की जाने वाली भलाई में बुराई भी छिपी है, इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता।
हाइड्रोजन ईधन वाशिंगटन से प्राप्त जानकारी के अनुसार हाइड्रोजन ईंधन को एक स्वच्छ ईंधन के रूप में अपनाया जा सकता है। हाल ही में किए गए अध्ययन से निष्कर्ष निकला है कि हाइड्रोजन ईंधन का अधिक उपयोग ओजोन क्षरण की समस्या उत्पन्न कर सकता है जिसके फलस्वरूप पराबैंगनी किरणों का विकिरण पृथ्वी पर पहुंचने लगेगा। साइंस नामक शोध पत्रिका में कहा गया है कि हाइड्रोजन ईंधन के इस्तेमाल में मितव्ययिता बरतनी होगी। पर्यावरण का मित्र नहीं कहा जा सकता है क्योंकि हाइड्रोजन गैस का पाइप लाइन से 10 से 20 प्रतिशत रिसाव कार में प्रयुक्त Fuel Cells से तथा ऊर्जा संयंत्रों से होना अवश्यंभावी है। स्ट्रेटोस्पीयर (समताप-मंडल) में पहुंचकर हाइड्रोजन के अनु ऑक्सीजन के परमाणुओं से मिलकर पानी के असंख्य अणु बना देंगे। यह प्रक्रिया इस प्रकार से होगी।
हाइड्रोजन अणु H2+O ऑक्सीजन परमाणु =H2O (पानी के अणु)
उक्त प्रक्रिया में ओजोन (O3) के विखंडन से उत्पन्न ऑक्सीजन परमाणु प्राप्त होगा। समताप की निचली परत अधिक ठंडी होकर ओजोन की संरचना को प्रभावित करेगी तथा ओजोन छिद्र को और बढ़ा तथा अधिक समय तक स्थिर रहने वाला बना देगी। प्रत्यक्ष रूप से हाइड्रोजन ईंधन पर्यावरण में प्रदूषण की समस्या तो अवश्य कम करेगा परंतु परोक्ष रूप से ओजोन की परत में छिद्र उत्पन्न कर विकिरण के दुष्प्रभावों को बढ़ा देगा।
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