उफरैखाल में जल और जंगल की खेती

हिमालयी पर्वतमालाओं की बर्फीली वादियों के हिमनदों और जल से लदे बादलों से जितना जीवन-रक्षक जल मिलता है वह नीचे जाकर मैदानी क्षेत्रों को तो उर्वर और खुशहाल बनाता है परंतु खुद पहाड़ी इलाकों के लोगों को पीने का पानी का संकट झेलना पड़ता है। खेतों की सिंचाई भी भगवान भरोसे रहती है। हिमालयी पर्वतमालाओं की बर्फीली वादियों के हिमनदों और जल से लदे बादलों से जितना जीवन-रक्षक जल मिलता है वह नीचे जाकर मैदानी क्षेत्रों को तो उर्वर और खुशहाल बनाता है परंतु खुद पहाड़ी इलाकों के लोगों को पीने का पानी का संकट झेलना पड़ता है। खेतों की सिंचाई भी भगवान भरोसे रहती है। कारण दो हैं— ऊँची-नीची भू-संरचना जो पहाड़ों की विशेषता है। इससे भी बड़ा कारण है वनों की अंधाधुंध कटाई जिसकी वजह से वर्षा का पानी जल्द बह जाता है। अतः जल धाराएँ और स्रोत बारहमासी नहीं रह गए हैं। हरिद्वार को छोड़ दिया जाए तो समूचे उत्तरांचल में औसत वर्षा होने पर 67 अरब 24 करोड़ घनमीटर पानी बरसता है। वनों की रक्षा और अन्य उपायों से इसका एक प्रतिशत भी संजोया जा सके तो कभी भी पानी का संकट न हो।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी की उपेक्षा के कारण दुनिया के दूसरे सर्वाधिक वर्षा वाले स्थान चेरापूंजी (मेघालय) को भी गर्मियों में पानी के लाले पड़ जाते हैं, चल प्राकृतिक जल-स्रोतों में पानी नहीं रहता।

उत्तरांचल में पानी संजोने के कई प्रयास है दूधातोली लोक विकास संस्थान का, जिसका मुकाम है उफरैखाल। यह एक पिछड़ा इलाका माना जाता है जो पौड़ी, चमोली और अल्मोड़ा जिलों के केंद्र में है। यहाँ एक इंटर कॉलेज भी है। यह संस्थान एक तरह से चमोली जिले में गोपेश्वर के दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल का विस्तार है। इस भूभाग में वन रक्षा और वनारोपण की अनिवार्यता की चेतना सन सत्तर के दशक में स्वराज्य मंडल ने ही जगाई थी और ‘चिपको आंदोलन’ छेड़ा था। वनों की अंधाधुंध कटाई से आसपास के इलाकों में पानी और ईंधन की तंगी हो गई थी। इसलिए आदमियों और औरतों ने पेड़ों से चिपककर पेड़ों को कटने से रोका। तब आंदोलनकारियों में ‘चंडीप्रसाद भट्ट’ और ‘गौरादेवी’ के नाम सुर्खियों में आए थे। इस आंदोलन में औरतों की विशेष भूमिका थी। वन रक्षा के बाद वनारोपण अभियान भी शुरू हुआ।

दूधातोली लोक विकास संस्थान की स्थापना सच्चिदानंद भारती ने उफरैखाल में दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के नमूने पर की तथा लोगों और विशेषकर औरतों को संगठित और सक्रिय किया। उद्देश्य वही था जो दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल का था। सबसे पहले उन्होंने वन विभाग द्वारा नीलाम पेड़ों को बचाने के लिए ग्रामवासियों को एकजुट किया और फिर उफरैखाल के गाँव गाडखर्क से दो किलोमीटर दूर ऊँचाई पर काटे गए घने जंगल के स्थान पर वृक्षारोपण का कार्यक्रम बनाया। कठिनाईयों के बावजूद लगभग बंजर और झाड़ियों वाले स्थान को फिर से हरा-भरा बनाने में संस्थान को मिली सफलता उल्लेखनीय है, पर कैसे मिली यह जानने योग्य है।

संस्थान ने चंदा इकट्ठा करके अपना काम शुरू किया, लेकिन 1985 में उसे धरती भूमि विकास बोर्ड से दस गाँवों में दो लाख पौधे लगाने और दस पर्यावरण जागरुकता शिविर लगाने के लिए पाँच लाख रुपए मिल गए। बस फिर क्या था। संस्थान के कार्यकार्ताओं का उत्साह चौगुना हो गया। दो की जगह चार लाख पौधे रोपे गए और दो लाख पौधे जिला प्रशासन को बेचकर चार लाख रुपए कमा भी लिए गए।

सबसे पहले पौधे गाडखर्क गाँव के पास पुराने जंगल की बंजर जमीन पर रोपे गए। 1967 का वर्ष सबसे सूखे वाला वर्ष निकला। पानी के रहे-बचे स्रोत भी सूख गए। रोपे गए पौधे नमी के अभाव में सूखने लगे। कई तो मर भी गए। आवश्यकता आविष्कार की जननी मानी जाती है। काफी सोच-विचार के बाद एक उपाय सूझा। रोपे गए हर पौधे के पास एक गड्ढा बनाया गया जिससे कि उसमें वर्षा का पानी जमा हो सके और काफी समय तक पौधे को नमी देता रहे। यह जुगत कारगर साबित हुई। पौधों की जगह नए पौधे रोपे गए। 1990-91 तक गाडखर्क के बंजर जंगल में हरियाली छा गई। अब तो वहाँ पूर्ण विकसित वन है। बांज, बुरास, जायफल, चीड़ आदि स्थानीय नस्लों के अलावा देवदार के पेड़ भी सिर उठाए खड़े हैं।

सूखे के बावजूद वृक्षारोपण को कामयाब बनाने की तरकीब एक नए अभियान का बीज-मंत्र साबित हुई। नया अभियान था—छोटे-छोटे तालाब या तलैया बनाना। यह सिलसिला अनुपम मिश्र के परामर्श और राजस्थान की पारंपरिक जलसंग्रह प्रणालियों के अध्ययन के बाद शुरू हुआ। अनुपम मिश्र दिल्ली स्थित गाँधी शांति प्रतिष्ठान के पर्यावरण कक्ष के निदेशक हैं। उन्होंने तालाबों पर काफी काम किया है और पुस्तक भी लिखी है जिसका कई भारतीय भाषाओं और फ्रांसीसी में अनुवाद भी हो चुका है। श्री मिश्र के सुझाव पर श्री भारती ने राजस्थान में जलसंग्रह के तौर-तरीके देखे और अंततः तय पाया गया कि पर्वतीय क्षेत्र के जल-स्रोतों को पुनर्जीवित करने के लिए छोटे-छोटे तालाबों की शृंखला बनाई जाए।

सबसे पहले गाडखर्क के जंगल में तालाबों या तलैइयों की शृंखला बनाई गई। इस कार्य के लिए संस्थान को उत्तरांचल सेवा निधी से 50 हजार रुपए मिले। वन में 1500 जल तलाई बनीं। जहाँ ढाल दिखा वहीं खुदाई करके तलाई बना दी गई। खोदी गई मिट्टी से चारों ओर मेड़ बना दी जाती है। उसके ऊपर पेड़ और दूबड़ घास लगा दी जाती है जिससे कि वर्षा होने पर मेड़ सुरक्षित बनी रहे। पहाड़ी के शिखर से ही वर्षा जल का संग्रहण आरंभ हो जाता है और फिर तलाई का पानी रिस-रिसकर नालों और जलधाराओं में पहुँचता रहता है।

गाडखर्क वन को लगातार नमी मिलते रहने के बाद विभिन्न गाँवों में तलाइयाँ बनाने का काम शुरू हुआ। उत्तरांचल सेवक निधि से हर साल 50 हजार रुपए की सहायता मिल रही है, जिसका उपयोग 27 गाँवों में 7,000 से भी अधिक तलाइयाँ बनाने में किया गया है। संस्थान के प्रवक्ता के अनुसार इनका आकार न्यूनतम 4 घनमीटर और अधिकतम 100-150 घनमीअर है। 2 मीटर लंबी, 2 मीटर चौड़ी और 1 मीटर गहरी तलाई खोदने और उसकी मेड़ पर पाँच पौधे रोपने के लिए संस्थान पारिश्रमिक के तौर पर ग्रामवासियों को केवल 50 रुपए देता है। यही काम सरकार कराए तो उसे कई गुना अधिक खर्च करना पड़ेगा। स्थानीय लोग पारिश्रमिक के लोभ में तलाई नहीं बनाते, अपने लाभ के लिए बनाते हैं। इसलिए उसकी देखभाल भी करते हैं।

सच्चिदानंद भारती का दावा है कि अगर संस्थान को हर साल 50-60 हजार रुपए मिलते रहें तो हम दस वर्ष में यह काम 300 गाँवों में फैला सकता हैं। तब इन सब गाँवों की जल, जंगल और मिट्टी के कटाव की समस्याओं का समाधान हो जाएगा।

वित्तीय सहायता से अधिक महत्त्व स्वयंसेवी संगठन का है और उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण है स्थानीय लोगों की भागीदारी। 130 महिला मंगल दल दूधातोली लोक विकास संस्थान के साथ हैं जो उसका सबसे बड़ा संबल है।

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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