उपजाऊ भूमि के बंजर होने का खतरा

धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। अगर इस तरफ ध्यान दिया जाए तो कुछ समस्याएं हल हो सकती हैं।

संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के मुताबिक रेगिस्तान के फैलते दायरे को रोकने की गंभीर कोशिश नहीं की गई तो आने वाले समय में अनाज का संकट खड़ा हो जाएगा। आज उपजाऊ भूमि के बंजर में तब्दील होने के खतरे बढ़ रहे हैं। हर साल खाद्यान्न उत्पादन में काफी कमी आ रही है। इसके लिए वन विनाश, खनन नीतियां, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, नकदी खेती आदि जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीवन का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थों की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया।

वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार 25 सेंटीमीटर मोटी मिट्टी की ऊपरी परत के नवीकरण में 200 से 1000 साल का समय लगता है। इसके बावजूद वह सरकारों व किसानोंकी कार्यसूची में स्थान नहीं बना पाती तो इसका कारण यह है कि मिट्टी क्षरण बहुत ही धीमी गति से होता है और इसका असर दिखने में सैकड़ों वर्ष लग जाते हैं। जहां-जहां इसका असर दिखने लगा है वहां-वहां भोजन और पानी की कमी तथा संषर्ष की स्थितियां पैदा हो गई हैं। यदि अफ्रीका व एशिया में होने वाले संघर्षों, गृहयुद्धों की पड़ताल की जाए तो उसकी जड़ उत्पादक भूमि और पानी में होने वाली कमी में ही मिलेगी।

बढ़ती जनसंख्या से कृषि भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। यह अनुमान है कि इस महीने अर्थात अक्टूबर 2011 में विश्व जनसंख्या 7 अरब और 2050 तक 9 अरब हो जाएगी। स्पष्ट है अगले 40 वर्षों में धरती पर दो अरब लोग बढ़ जाएंगे। ऐसे में खाद्यान्न में 40 फीसदी की बढ़ोतरी करनी होगी और इसका अधिकांश हिस्सा उस उपजाऊ मिट्टी पर उगाया जाएगा, जो कि कुल भूभाग का 11 फीसदी ही है। खाद्यान्न उत्पादन के अधीन अब नई भूमि लाना संभव नहीं है, जो भूमि बची है वह भी तेजी से क्षरित हो रही है। उदाहरण के लिए मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है वहीं भारत में थार की रेत उत्तर भारत के मैदानों को दफना रही है।

इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन (इसरो) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान तक सिमटे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। थार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1.96 लाख वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2.08 लाख वर्ग किमी तक हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार थार मरुस्थल मानसूनी हवाओं द्वारा प्रेरित रेतीला रेगिस्तान है। यहां गर्मी के मौसम में वायु अपरदन एक बड़ी समस्या रहती है। अरावली की पहाड़ियां मरुस्थल के विस्तार में दीवार की भांति बाधा खड़ी करती रही हैं।

लेकिन अंधाधुंध खनन के कारण इस प्राकृतिक दीवार में कई गलियारे बन गए हैं जो मरुस्थल के विस्तार में सहायता पहुंचा रहे हैं। इसके अलावा भूजल के अत्यधिक दोहन, अधिक पानी मांगने वाले फसलों की खेती, अवैध खनन को बढ़ावा देने वाले आधारभूत ढांचे की मांग के कारण रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। इसके बाद भी न तो सरकारें और न ही आम जनता इसके प्रति गंभीर है। दो साल पहले केंद्र सरकार की ओर से गठित समिति ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष यह राय जाहिर की थी कि पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील मानी जाने वाली अरावली की पहाड़ियों को बचाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। इसके बावजूद इन पहाड़ियों को काटकर उन पर फार्महाउस, बैंक्वेट हाल, रिहाइशी कॉलोनियां, स्कूल-कॉलेज आदि का निर्माण बदस्तूर जारी है।

देश के दूसरे हिस्सों का भी तेजी से मरुस्थलीकरण हो रहा है। अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 17 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है। इसके अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (टीजीए) का कोई 25 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान हो चुका है और 32 फीसदी भूमि की गुणवत्ता घटी है। इसके अलावा देश के 69 फीसदी हिस्से को शुष्क क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, वृक्षारोपण, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस महत्वपूर्ण पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। अगर इस तरफ ध्यान दिया जाए तो कुछ समस्याएं हल हो सकती हैं।

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