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दक्षिण कर्नाटक का एक तालाब
दक्षिण कर्नाटक का एक तालाब


कर्नाटक के लगभग 75 प्रतिशत हिस्सों में अक्सर अकाल आते हैं। इसलिये वहाँ सिंचाई के संसाधनों की महत्ता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। कर्नाटक के इतिहास में तालाबों के निर्माण से सम्बन्धित अनेक प्रमाण मिलते हैं। इनमें से आज भी काम आने वाले कुछ तालाब तो 15-16 शताब्दी पुराने हैं।

कर्नाटक की जमीन और पानी के स्रोतों को चार भागों में बाँटा जा सकता है। अरब सागर और पश्चिमी घाट के बीच के संकरे तटीय क्षेत्र, जो 300 किलोमीटर लम्बा और 32 किलोमीटर चौड़ा है और जिसमें सर्वाधिक वर्षा होती है (औसतन 25,000 मिमी प्रतिवर्ष)। पश्चिमी घाट से आठ नदियाँ अरब सागर में जा मिलती हैं। इस क्षेत्र के पानी के स्रोतों से सिर्फ बिजली बन सकती है। इस क्षेत्र की अधिकांश नदियाँ मालनाड प्रदेश से ही निकलती हैं। इनमें ऊँचे पहाड़ और घाटियाँ भी हैं, जहाँ वर्षा का वार्षिक औसत 1050 मिमी है। इस इलाके में हरे-भरे बगीचे और धान के खेत हैं।

राज्य के उत्तरी पठारी भाग में जमीन बिल्कुल समतल है। यहाँ काली मिट्टी है और पेड़ काफी कम उगते हैं। यह एक बंजर प्रदेश है, जहाँ वर्षा औसतन 600 मिमी के आस-पास ही होती है। इस क्षेत्र से होकर बहने वाली नदियाँ सिर्फ मानसून में ही भरी होती हैं।

दक्षिणी पठारी क्षेत्र में लाल मिट्टी पाई जाती है और यहाँ पेड़ों के उगने की दर सामान्य है। यहाँ औसत वर्षा 500-750 मिमी के बीच बेतरतीब बारिश होती है। इससे होकर बहने वाली नदियों में मानसून के मौसम में काफी पानी भरा होता है, जिससे बाढ़ की आशंका हमेशा बनी रहती है। हालांकि राज्य में पानी के स्रोतों की कोई कमी नहीं है, फिर भी इनमें से सिर्फ आधे को ही काम में लाया जा सकता है। इसलिये सिंचाई के लिये तालाबों और बैराजों के निर्माण का कर्नाटक राज्य के पास और कोई चारा भी नहीं है।

आज कर्नाटक में कुल मिलाकर 36,508 बड़े और छोटे तालाब हैं। मालनाड क्षेत्र शिमोगा, दक्षिण कन्नड़ के कुछ भाग और उत्तर कन्नड़ में सिर्फ छोटे तालाब हैं, ये सिर्फ वर्षा के पानी को जमा करते हैं। इस क्षेत्र में तालाबों में जलमार्गों/नालों के द्वारा पानी पहुँचाने की कोई व्यवस्था नहीं है। जमा किया गया पानी रिसकर नीचे के खेतों में चला जाता है, जहाँ धान की खेती की जाती है। मालनाड में पूरे राज्य के तालाबों का 25 प्रतिशत है।

कोलार जिले का मिट्टी भरा तालाब उत्तरी पठारी क्षेत्र-धारवाड़, बेलगाम, बीजापुर, बेल्लारी, रायचूर, गुलबर्गा और बीदर में तालाबों की संख्या काफी कम है। इस क्षेत्र में राज्य के सिर्फ 15 प्रतिशत तालाब ही हैं। नमी वाली काली मिट्टी में ज्यादातर रबी की फसल उपजाई जाती है। सितम्बर के महीने में एक-दो बार पानी बरसना ही रबी की फसलों को बोने के लिये काफी होता है। इसलिये इस क्षेत्र में और वर्षा की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसी कारण यहाँ तालाबों की जरूरत भी नहीं के बराबर होती है। दक्षिणी पठारी क्षेत्र-चित्रदुर्ग, तुमकुर, चिकमंगलुर के कुछ भाग, हासन, कोडागू, मैसूर, मांड्या, बंगलुरु और कोलार में काफी तालाब हैं। इस क्षेत्र में पाई जाने वाली मिट्टी बिना वर्षा के रबी की फसल उगाने के लिये उपयुक्त नहीं है। इस कारण क्षेत्र में तालाब की काफी अधिक आवश्यकता है।

प्राचीनकाल में तालाब एक-दूसरे से जुड़े होते थे, जिससे थोड़ा भी पानी खराब न हो सके। कर्नाटक राज्य में तालाबों की व्यवस्था के विस्तार से प्राचीन काल में पानी को सिंचाई के उपयोग में लाने के लिये किये गये प्रयासों की एक झलक मिलती है। लगभग सभी दक्षिणी राज्यों के हर गाँव में तालाब हैं, जिनका उपयोग सिंचाई के अलावा पीने और मछली पालन के लिये भी किया जाता है। किसी-किसी गाँवों में तो कई तालाब हैं। इन तालाबों की एक विशेषता गाँवों के काफी समीप होना है, जिससे उनका उपयोग भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये आसानी से किया जाये।

राज्य के करीब 38 प्रतिशत तालाबों का सिंचित क्षेत्र 4 हेक्टेयर से कम है। बड़े तालाबों के अधीन 200 हेक्टेयर से भी ज्यादा की जमीन आती है। राज्य के कुल तालाबों में सिर्फ 1.4 प्रतिशत ही ऐसे हैं। अधिकतर तालाबों से 4 से 20 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होती है। ऐसे तालाबों की संख्या कुल तालाबों का 50 प्रतिशत है।

राज्य के कुल तालाबों में से सिर्फ 10 प्रतिशत ऐसे हैं, जिनके कमांड क्षेत्र में 20 से 200 हेक्टेयर की जमीन आती है। अनुमानतः राज्य में सिंचाई करने योग्य 45 लाख हेक्टेयर जमीन है। इसमें से लघु स्रोतों में तालाब, नदी के पानी को मोड़ने वाले बाँध और लिफ्ट सिंचाई के साधन प्रमुख हैं।

तालाबों की भूमिका

प्राचीनकाल के राजाओं और प्रधानों के द्वारा की गई मेहनत के फलस्वरूप ही आज भी तालाबों का प्रयोग हो रहा है। प्राप्त अभिलेखों से पता चलता है कि तालाबों का निर्माण सबसे पहले कादम्ब राजाओं द्वारा चौथी शताब्दी में किया गया था। पर इतिहास के किसी भी काल में पाये जाने वाले तालाबों की संख्या का अनुमान लगाना काफी कठिन है। तालाबों को विकसित करने के कई फायदे हैं। इनके निर्माण का काम जल्दी किया जा सकता है, खर्च कम आता है और इनका उपयोग भी तुरन्त किया जा सकता है। लेकिन राज्य के निर्माण पर सिर्फ 400 करोड़ रुपए ही खर्च किये गये हैं।

बदकिस्मती से राज्य के तीन क्षेत्रों तटीय, मालनाड और दक्षिणी पठार में नये तालाबों के निर्माण की अब कोई गुंजाइश नहीं है। सिर्फ उत्तरी पठारी क्षेत्र में ही तालाबों के निर्माण के लिये उपयुक्त स्थल बचे हैं। लेकिन तालाबों के निर्माण के इतिहास से पता चलता है कि इस क्षेत्र में उनसे होने वाला फायदा बहुत ही सीमित है। उत्तरी कर्नाटक में सिंचाई के लघु स्रोतों का विकास सिर्फ बैराजों और जलमार्गों के द्वारा ही सम्भव है। दक्षिणी कर्नाटक में अतिरिक्त तालाबों के निर्माण से निचले तालाबों में पानी कम हो जाएगा। आज तालाबों के लिये रखे धन को सिर्फ पुराने तालाबों के आधुनिकीकरण के लिये ही इस्तेमाल में लाया जा सकता है।

संचालन के तरीके

प्राचीनकाल में लोग तालाबों को एक सामूहिक संसाधन की तरह देखते थे। उनके संरक्षण और रख-रखाव का काम सामूहिक रूप से किया जाता था। हर गाँव में एक प्रधान होता था, जिसे पटेल या गौडा के नाम से जाना जाता था। इसके अतिरिक्त, हर गाँव में एक लेखाकार भी हुआ करता था। जिसे शानबोग या कारानाम कहा जाता था। हर पटेल के पास कई सहायक होते थे, जो गाँव के सदस्य की जरूरतों का ध्यान रखते थे। सड़कों, पानी की व्यवस्थाओं, मन्दिरों, सामुदायिक जमीनों, गाँव के अनुष्ठानों, तालाबों और शमशानों, सभी की देखभाल गाँव वाले स्वयं करते थे। इसके लिये लोग या तो हर सोमवार को स्वयं काम करते थे या अपनी जगह किसी मजदूर को लगाते थे, जिसकी मजदूरी का भुगतान वे करते थे।

गर्मी के मौसम में तालाबों से गाद निकालने का काम भी गाँव वाले स्वयं करते थे। इस गाद को पास के खेतों के निकट रखा जाता था, जिससे खेती शुरू होने के महीने में इसका प्रयोग किया जा सके। पानी का बँटवारा करने वाला, जिसे सौडी या नीरगंटी के नाम से जाना जाता था, का सबसे महत्त्वपूर्ण काम तालाबों को संचालित करना था, जिससे किसानों में पानी बराबर मात्रा में बाँटा जा सके। इसके नियमन का काम पटेल के द्वारा किया जाता था। सौडियों को किसान स्वयं ही भुगतान किया करते थे, जो सामान्य तौर पर उनके द्वारा उपजाये गये अनाज का एक छोटा-सा हिस्सा हुआ करता था। जलमार्गों से मिट्टी और झाड़ियों को हटाने का काम लोग स्वयं करते थे। जहाँ कहीं भी धन के निवेश की जरूरत पड़ती थी, पटेल इससे जुड़े विभागों के प्रमुखों का दरवाजा खटखटाते थे। सामान्यतः यह राशि बहुत कम होती थी।

स्वतंत्रता के बाद इस व्यवस्था का पतन शुरू हो गया। सन 1932 के सिंचाई कानून को 1965 में संशोधित किया गया, जिसके फलस्वरूप लोक निर्माण विभाग ने तालाबों का कार्यभार राजस्व विभाग से अपने ऊपर ले लिया। पटेल-शानबोग जैसे पदों को खत्म कर दिया गया और उनकी जगह एक लेखापाल को नियुक्त किया गया जो सरकार पर निर्भर रहने को बाध्य हो गये। सरकार द्वारा किये जाने वाले खर्च में भारी बढ़ोत्तरी हुई। तालाबों से खेतों तक पानी पहुँचाने के काम में सरकार जरूरत के अनुसार कर्मचारी काम पर लगाने में असमर्थ है। आज सौडी सिर्फ कुछ ही बड़े तालाबों पर काम करते हैं और स्थानीय लोगों की भागीदारी बढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं है।

मौजूदा हालात

आज तालाबों की हालत काफी खराब है। इनमें गाद जमा होने से उनके पानी जमा करने की क्षमता काफी कम हो गई है। तालाबों के जल-ग्रहण क्षेत्रों को खेती के काम में लाया जाता है। भूमिहीन लोगों को जमीन उपलब्ध करने की सरकार की नीति के कारण जंगलों और कावल की जमीनों को साफकर उन्हें खेती योग्य बनाया जा रहा है। इस जमीन में खेती करने से मिट्टी बहती है और तालाबों में आसानी से गाद जमा हो जाती है। पानी के इन स्रोतों को बचाने के प्रयास सीमित स्तर पर ही किये जा रहे हैं।

इनका परिणाम यह हुआ है कि तालाब अब उतने उपयोगी नहीं रहे, किसान असन्तुष्ट हैं। सरकार इन सबको सुधारने में असमर्थ है। किसानों के विरोध के कारण सरकार ने उन क्षेत्रों में, जहाँ फसलों की उपज नहीं है, जलकर माफ करने के आदेश दिये हैं। बाद में किये संशोधनों के फलस्वरूप 40 हेक्टेयर से कम की जमीन के कमांड क्षेत्र वाले तालाबों से सिंचित जमीन पर से पानी कर माफ कर दिया गया है। लघु सिंचाई के स्रोतों से सिंचित जमीन पर यह कर सामान्य दर का आधा कर दिया गया है। ऐसा यह मानते हुए किया गया है कि रख-रखाव के लिये निर्धारित राशि में कोई भी कमी नहीं की गई है। सरकार पहले जो भी थोड़ा-बहुत राजस्व प्राप्त करती थी, वह खोती जा रही है। संरक्षण का खर्च बढ़ता जा रहा है। इन कारणों से तालाबों की स्थिति खराब हो रही है।

राज्य सरकारों के पास ग्रामीण विकास, रोजगार बढ़ाने, बंजर जमीन का सुधार, वृक्षरोपण और मिट्टी के संरक्षण से सम्बन्धित योजनाएँ हैं, पर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोगी प्रबन्धन के लिये इन योजनाओं को समन्वित नहीं किया गया है। बंजर जमीन के विकास की जिस योजना को तालाबों की व्यवस्था में सुधार से जोड़ा नहीं जाएगा वह प्रभावी कार्यक्रम नहीं हो सकता। तालाबों को फिर से उपयोगी बनाने से रोजगार के काफी अवसर उत्पन्न हो सकते हैं और रोजगार को बढ़ाने सम्बन्धी कार्यक्रमों में इस पर ध्यान देना चाहिए। इससे वे भी प्रभावी होंगे।

कर्नाटक राज्य जिला परिषदों और मण्डल पंचायतों के माध्यम से अधिकारों के विकेन्द्रीकरण का प्रयास कर रहा है। उन तालाबों को, जिनके कमांड क्षेत्र में 200 हेक्टेयर से कम जमीन है, सन 1987 में ही जिला परिषदों को सौंप दिया गया था। हालांकि इनसे जुड़े हुए आर्थिक संसाधनों को भी स्थानान्तरित किया गया है, फिर भी इन तालाबों में काफी सुधार नहीं हो पाया। इसका कारण है स्थानीय स्तर पर संसाधनों के संचालन से सम्बन्धित नीतियों में कोई विशेष परिवर्तन न करना। तालाबों को फिर से जीवित करने के लिये स्थानीय लोगों को, विशेषकर जो उनके आगोर और कमांड क्षेत्रों में रहते हैं, सम्मिलित करना काफी आवश्यक है।

‘बूँदों की संस्कृति’ पुस्तक से साभार
 

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