उखड़ती साँसें

संसाधनों को शहरों तक सीमित रखने की चिन्ता को छोड़ कर अगर छोटे कस्बों और गाँवों में विकास किया जाए, तो शहरों पर बोझ कम हो सकेगा। शहरों पर बोझ कम होगा तभी हम कह सकते हैं कि यहाँ की जलवायु और वातावरण स्वच्छ हो सकता है।

बहुत पहले मुजफ्फर अली ने अपनी फिल्म ‘गमन’ में बड़े शहरों में रहने वाले लोगों की कशमकश को व्यक्त करते हुए ‘सीने में जलन, आँखों में तूफान-सा क्यों है/ इस शहर में हर शख्स परेशान-सा क्यों है’ गीत दिया था। गीत मुम्बई के बारे में था, पर अब इसे हमारे हर बड़े शहर का गीत कहा जा सकता है। समस्या यह है कि सीने में जलन और आँखों में तूफान से सिर्फ व्यस्क नहीं, बल्कि दिल्ली जैसे शहर के चालीस प्रतिशत बच्चे भी जूझ रहे हैं। विकास का इसे मापदण्ड कह लीजिए या कुछ और लेकिन एक सर्वेक्षण से यह पता चला है कि दिल्ली में रहने वाले चालीस प्रतिशत स्कूली बच्चों के फेफड़े कमजोर हैं। वैसे भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के सोलह सौ बड़े शहरों में दिल्ली की हवा सबसे अधिक खराब है।

इस सर्वे में दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और बंगलुरु में दो हजार तीन सौ तिहत्तर बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर परीक्षण किया गया। दिल्ली में जिन सात सौ पैंतीस बच्चों पर यह परीक्षण हुआ, उनमें से इक्कीस प्रतिशत के फेफड़े कमजोर निकले और उन्नीस प्रतिशत बुरी हालत में पाए गए। इन छात्रों से कहा गया कि वे गहरी साँस लें और उसे पूरी ताकत से परीक्षण उपकरण में छोड़ दें। सर्वेक्षण करने वालों को यह देखकर हैरानी हुई कि कई बच्चे पूरी तरह साँस भी नहीं ले पा रहे थे। बाकी शहरों में भी हालत लगभग ऐसे ही थे।

सवाल है कि क्या दिल्ली में प्रदूषण के कारण ऐसा हो रहा है या बच्चों के जीवन से दौड़-भाग और खेल-कूद गायब हो जाने के कारण। अब बच्चे मशीनों के गुलाम होते जा रहे हैं। स्कूलों में खेलकूद का माहौल या स्थान है ही नहीं। खेल परिसर में सदस्यता शुल्क या अस्थायी शुल्क बहुत अधिक है। पार्क की जगह पार्किंग बन गई है। बच्चों के खेलने के लिए जगह नहीं बची है। वे साइकिल तक नहीं चला सकते। जिनके आस-पास जगह है, वे महँगे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और मोबाइल फोन के जैसे गुलाम हो गए हैं। स्कूल भी व्हाट्सऐप, फेसबुक या इंटरनेट से बच्चों को जोड़ने के लिए चिन्तित रहते हैं। बच्चों के फेफड़े मजबूत हों तो कैसे?

यह सच है कि दिल्ली का वातावरण प्रदूषित हो चुका है। यही कारण है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण को दिल्ली से दस वर्ष पुराने डीजल वाहनों को हटाने का निर्देश देना पड़ा। सरकार के हर फैसले और नीति को बाजार के हिसाब से देखने वालों के पेट में इससे दर्द होना शुरू हो गया है। उन्हें लगता है कि दस साल पुराने डीजल वाहनों के हटाए जाने से कारों का बाजार मन्दा पड़ जाएगा। ऐसा अगर पूरे देश में हो जाता है, तो इसका असर डीजल वाहनों पर तीस प्रतिशत होगा, जो मोटर वाहनों के बाजार को मन्दी का शिकार बना देगा। यही नहीं, उन्हें यह भी चिन्ता है कि पुरानी कारों के बाजार में जो महिन्द्रा और मारुति जैसे खिलाड़ी कूदे थे, वे भी कदम पीछे खीच लेंगे। पर जब लोग मोटर वाहन उद्योग की बात करते हैं, तो वह कहीं भी मानव जीवन को छूकर नहीं गुजरती। हाँ, यह जरूर कह देते हैं कि इससे प्रदूषण को नियन्त्रित करने में कुछ लाभ नहीं होगा।

दरअसल, हमने अपने जीवन को खुद नष्ट करने का काम किया है। सारे संसाधन और अच्छा जीवन शहरों तक सीमित रख कर हम लोगों को अपने सपने पूरे करने के लिए शहरों में धक्के खाने के लिए बुलाते हैं। संसाधनों को शहरों तक सीमित रखने की चिन्ता को छोड़ कर अगर छोटे कस्बों और गाँवों में विकास किया जाए, तो शहरों पर बोझ कम हो सकेगा। शहरों पर बोझ कम होगा तभी हम कह सकते हैं कि यहाँ की जलवायु और वातावरण स्वच्छ हो सकता है। चिन्ता यह भी है कि दिल्ली जैसे शहर में मेट्रो रेल सेवा के बावजूद यातायात पर कोई अधिक असर नहीं पड़ा है। यह तब है जब हर दिन दिल्ली मेट्रो में बीस लाख से अधिक लोग यात्रा करते हैं। आज के हालात में अगर हम लोगों को अधिक से अधिक साइकिल के उपयोग या पैदल चलने के लिए कहें तो यह भी महँगा हो जाता है।

.गर्मी के मौसम में पहले जमाने में जगह-जगह प्याऊ होते थे, जहाँ लोग ठण्डी छाँव में सुस्ता कर मुफ्त में ठण्डा पानी पी लेते थे। आज अगर प्यास लगे तो पानी किसी दुकान से खरीदना पड़ता है। दिन भर में दो-तीन जगह आप पैदल या साइकिल से चले गए तो पानी खरीदना ही जेब ढीली कर देगा। कमाल है कि जिस देश में यात्रियों के लिए प्याऊ और कुएँ होते थे वहाँ पानी खरीद कर पीना पड़ता है। फेसबुक पर किसी ने लिखा था कि जिस देश में गंगा बहती है उस देश में पानी बिकता है। दिन भर एसी से लिकलने वाली गर्म हवा तापमान को कम से कम पाँच डिग्री बढ़ा देती होगी। इसके बावजूद आपको हिम्मत करके पैदल, साइकिल या फिर सार्वजनिक यातायात को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि यह आपके लिए कई तरह से लाभदायक हो सकता है। इसका सबसे बड़ा लाभ आपके और आपके बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ा है।

हमारे यहाँ जैसा चल रहा है वैसा चलने दो का सोच आम है। अपनी जड़ों से उखड़ने के बाद भी शहरों में आकर सफर समाप्त नहीं होता। गुड़गाँव के आदमी को काम के लिए नोएडा और नोएडा के आदमी को काम के लिए गुड़गाँव तक की यात्रा करनी पड़ती है। अगर कार्यालय और आवास एक ही जगह हों तो यह समस्या आसानी से हल हो सकती थी, पर इसके लिए कभी योजना बनाई ही नहीं गई। वैसे भी मोटर वाहन उद्योग का इससे भला ही होता है। पेट्रोल कम्पनियाँ भी अधिक पेट्रोल बिकने से खुश होती होंगी। भले सड़कों पर लगे जाम या ट्रैफिक सिग्नलों पर तेल जलने से प्रदूषण बढ़ता रहे।

सुबह देख लीजिए तो बच्चों को स्कूल छोड़ने के लिए बसें और गाड़ियाँ दौड़ती दिखाई देती हैं। कुछ क्षेत्रों में स्कूलों की भरमार है और कुछ क्षेत्रों में स्कूल ही नहीं हैं। ऐसे में बच्चों को स्कूल के लिए वाहनों से ही आना-जाना पड़ता है। सोचिए कि अगर स्कूल समीप हों और सड़कों पर साइकिल के लिए अलग लेन हो या बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सारा समाज या यातायात पुलिस ले ले तो बच्चे सवेरे साइकिल चला कर स्कूल जाएँ या उन्हें अभिभावक पैदल ही स्कूल छोड़ आएँ। जब छुट्टी हो तब भी सड़क पर अगर यातायात नियन्त्रण में रहे तो बच्चे पैदल या साइकिल से घर आ जाएँ। इससे कितना तेल जलने से बचेगा और वायु भी दूषित नहीं होगी। प्रदूषण कम होने से बच्चों के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। साथ ही चलने-फिरने और साइकिल से उनके फेफड़ों की ताकत बढ़ेगी।

हालाँकि यह केवल सोचने की बात है। होना मुश्किल है। क्योंकि हालात सुधरते नहीं दीखते। ऊपर से मौसम में आता परिवर्तन हमें और डराता है। क्या किसी को इसकी चिन्ता है? हमें उस बचपन के लिए चिन्तित होना ही चाहिए, जो हमारे अविवेक की सजा पा रहा है। बच्चों के इस जहालत से हम ही बचा सकते हैं, क्योंकि हम सभी जानते हैं कि उनके सीने में जलन और आँखों में तूफान क्यों और किसके कारण है।

लेखक ईमेल : drsyedmubinzehra@gmail.com

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