उधार का पानी

प्यासे को पानी पिलाना पुण्य का काम होता था। पंछियों और पशुओं की प्यास का भी ख्याल किया जाता था। पानी की कीमत नहीं थी, पर वह अनमोल माना जाता था। मगर इक्कीसवीं सदी में…?

कतार में खड़ी रामदेई खाली बाल्टी लिए उस घड़ी को कोस रही थी, जब यह एलान हुआ था कि तीन दिन कस्बे में नल नहीं आएंगे। चूँकि सरकारी नल ढलान पर था, इसलिए उसमें थोड़ा-थोड़ा पानी आ रहा था। लेकिन पानी भरने वालों की पंक्ति इतनी लम्बी थी कि रामदेई तो दिखाई ही नहीं पड़ती थी। सुबह पानी भरने के लिए काफी धक्का-मुक्की हो रही थी, तब वहाँ एक सब इंस्पेक्टर और दो कांस्टेबल नियुक्त किए गए। उन्होंने ही कतार लगवा दी थी।

रामदेई के आगे लगभग बीस लोग थे। पीछे वालों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। जैसे-जैसे उसकी बारी पास आने लगी, उसके चेहरे पर रौनक छाने लगी। जब उसके आगे सिर्फ दो व्यक्ति ही बचे, तब रामदेई ने सुना कि नल के पास कुर्सी बिछाकर बैठने वाला पुलिसिया सबसे पाँच-पाँच रुपए ले रहा है। अपनी बारी आने पर उसने बाल्टी नल के नीचे लगाकर नल का हत्था पकड़ना चाहा, मगर पुलिस वाले ने उसकी बाल्टी खींच दी - ‘बाई, पहले पाँच रुपए निकाल।’

‘रुपये काहे के साहब?’ रामदेई कांपकर बोली।
‘पानी भरने के और काहे के!’
‘मगर साहब यह तो सरकारी नल है।’
‘हाँ, मगर यहाँ पहरेदारी पर सरकार नहीं, हम बैठे हैं।’
‘मेरे पास रुपए नहीं हैं साहब...।’
‘तो फिर घर जा, दूसरे को आने दे।’
मगर घर में पीने को एक बूंद पानी नहीं है।
‘समय खराब मत कर, रुपए ले आ फिर पानी भरना।
और हाँ, लाइन में सबसे पीछे खड़ी होना अब।’

अपमान की आग में सुलगती रामदेई घर की ओर चल पड़ी। आँगन में चारपाई पर लेटा उसका ससुर खाँसकर गला साफ करते हुए बोला, ‘बहू, पानी ले आई?’

रामदेई भन्नाकर बोली, ‘नहीं लाई पिताजी, वो दरोगा सबसे पाँच-पाँच रुपए लेकर ही पानी भरने दे रहा है।’

‘सरकारी नल पर भी...हे ईश्वर…!’

‘पिताजी, आप थोड़ा सब्र कीजिए। मैं रूपए लेकर अभी पानी लेने जाती हूँ।’

‘रहने दे बहू, अब तेरा नम्बर शाम तक भी नहीं आ पाएगा, मैंने पानी पी लिया है। घड़े में थोड़ा-सा था।’

‘बच्चे स्कूल होंगे पिताजी?’

‘हाँ।’

‘मैं भी अब तैयार होकर सिलाई केन्द्र जा रही हूँ।’

रामदेई शाम को जैसे ही सिलाई केन्द्र से निकलकर घर की ओर चलने लगी, दो आवारा लड़के उसका रास्ता रोककर खड़े हो गए। वह कन्नी काटकर निकलने लगी, तो एक लड़के ने उसका हाथ पकड़ना चाहा। रामदेई का हाथ घूमा और एक झन्नाटेदार थप्पड़ की छाप उस लड़के के गाल पर पड़ गई। दोनों लड़के सहमकर पीछे हट गए।

रामदेई अपने रास्ते चल पड़ी। उसके दिमाग में उथल-पुथल मची थी। ‘चारों ओर गरीबी, मँहगाई, भ्रष्टाचार का आ्रतंक है। क्या यही हमारी प्रगति है?’ वह दसवीं तक पढ़ी थी। दो साल पहले जब ट्रक दुर्घटना में उसके पति की मौत हुई, उसने अपने तीनों बच्चों का वास्ता देकर पति की जगह नौकरी पाने की बहुत कोशिश की। मगर कार्यालय प्रमुख की आँखों के कामुक भाव पढ़े, तो सहमकर नौकरी का विचार ही त्याग दिया। उसका पति एक प्राइवेट फर्म में क्लर्क था, सो पेंशन मिलने का सवाल ही नहीं था। हारकर रामदेई ने एक सिलाई केन्द्र में कपड़े सिलने शुरू कर दिए।

जब रामदेई घर पहुँची, तो बच्चे आ चुके थे। उसका मंझला लड़का खाट पर दादा के पास लेटा था। रामदेई को देखते ही उसका ससुर बोला, ‘बहू बच्चे को बहुत तेज बुखार है।’

रामदेई ने लड़के के माथे पर हाथ रखा। माथा गर्म था। शाम के पाँच बज रहे थे। उसने सोचा, अभी सरकारी अस्पताल खुला होगा।

वह बच्चे को लेकर अस्पताल पहुँची। वहाँ एक डॉक्टर को बच्चे को दिखाकर बोली, ‘साहब, मेरे बच्चे को यहीं से दवाइयाँ दिलवा देना, मैं बाजार से नहीं खरीद सकती।’

‘देखो बाई, या तो इसे लेकर मेरे क्लीनिक पर आ जाना या फिर पचास रुपए जमा कर दो।’ डॉक्टर बोला।‘रुपए किसलिए साहब…?

‘इलाज में कुछ तो खर्च आएगा न।’

‘मैं रुपए नहीं कर सकती साहब और न ही आपकी कोठी पर दिखाने आ सकती हूँ। मैं फीस दे सकती, तो पास ही के किसी डॉक्टर से दवा न दिलवा देती! आप इसे सरकारी दवाइयाँ दे दीजिए। ’

‘यहाँ स्टॉक नहीं है। तुम इसे घर ले जाओ और इसके माथे पर ठण्डे पानी की पट्टियाँ रखना, बुखार उतर जाएगा।’

घर पहुँचकर रामदेई ने बच्चे को लिटाया और एक बर्तन में पानी लेने उठी, तभी उसे ध्यान कि घर में पानी ही नहीं है।

उसने पड़ोस के एक घर का दरवाजा खटखटाया। एक महिला उसे देखकर बोली, ‘क्या बात है रामदेई?’

‘चाची, मुन्ना को बहुत तेज बुखार है। डॉक्टर ने उसके माथे पर गीली पट्टियाँ रखने को कहा है।’

‘तो रख दे न!’

‘चाची घर में एक बूँद पानी नहीं है। तुम्हारे घर तो पानी की बड़ी टंकी है, थोड़ा सा पानी दे दो।’

‘टंकी तो खाली पड़ी है।’

रामदेई ने नजर उठाकर देखा, भीतर एक लड़की नल खोलकर आराम से बर्तन धो रही थी, सारा पानी नाली में बह रहा था। चाची शायद रामदेई की नजरों का आशय समझ गई। वह बोली, ‘सुबह बीस रुपए देकर चार बाल्टी पानी लाई थी, अब घर के जरूरी कामों के लिए पानी तो चाहिए न।’

‘चाची, बस एक बर्तन पानी दे दो, मैं तुम्हारा अहसान कभी नहीं भूलूंगी।’ रामदेई ने हाथ जोड़ दिए।

‘अच्छा, देखती हूँ।’

चाची भीतर गई। दो मिनट बाद वह एक प्लास्टिक के बड़े मग में पानी लेकर आई और रामदेई से बोली, ‘यह ले जा...मगर उधार दे रही हूँ, कल तक लौटा देना।’

‘पानी? उधार!’ रामदेई का मुँह खुला का खुला रह गया। चाची हाथ नचाकर बोली, ‘इसमें हैरत की क्या बात है? इक्कीसवीं सदी है। गनीमत है, उधार दे रही हूँ। पड़ोसन हो, इसलिए बेच नहीं रही हूँ। मेरे यहाँ भी कोई मुफ्त का पानी नहीं आता।’

‘सच कहती हो चाची, अब तो हर चीज बिकाऊ है। यह तो तुम्हारी मेहरबानी है, जो पानी उधार दे दिया, नहीं तो न जाने इस थोड़े से पानी के लिए मुझे क्या करना पड़ता।’

रामदेई पानी लेकर आई तो ससुर ने पूछा, ‘बहू, ले आई पानी?’

‘हाँ पिताजी, मगर उधार लाई हूँ।’

‘उ...उधार।’

‘हाँ पिताजी, इक्कीसवीं सदी है न।’ रामदेई ने फीकी हँसी हँसकर कहा और मुन्ने के माथे पर गीली पट्टी रखने लगी।

Path Alias

/articles/udhaara-kaa-paanai

Post By: Hindi
×